(१.)पं.वेणीराम गौड़जी ने स्वसंकलित "यज्ञमीमांसा" के पृष्ठसंख्या २२१ के "मागधो माथुरश्चैव कापट: कीकटानजौ। पञ्च विप्रा न पूज्यन्ते बृहस्पतिसमा यदि।।" में किस प्रकरण में और किस पद का अर्थ सम्पूर्ण 'बिहार' कर दिया है? इन्होंने 'कीकट' का अर्थ 'गया' के साथ ही पूरा 'बिहार' कैसे ले लिया?
(२.)इन्होंने 'मागध' का अर्थ 'स्तुतिपाठक' लिया है। यदि 'मागध' का अर्ध 'मगधदेशोद्भव' लेते तो किञ्चित् सङ्गति लगाने का प्रयास होता। यथा- प्राचीनकाल में मगध के राजाओं के अधिकृत विशाल भूखण्ड को 'विहार' कहा जाता था, वही कालान्तर में "बिहार" हो गया। उस समय के मगधसम्राट् समग्र भारतवर्ष के अधिपति थे। इतिहास में ईसा से ७०० वर्ष पहले भी समृद्ध 'विहार' या मगध की चर्चा है। बङ्गविच्छेद के समय उत्कल को मिलाकर २२ मार्च १,९१२ ई. को स्वतन्त्र प्रदेश के रूप में विहार की स्थापना हुई थी। वर्तमान के दक्षिण बिहार या मगध क्षेत्र में उस समय बौद्धों का बाहुल्य हो गया था, परन्तु अब उतनी समस्या नहीं है। पूर्वकाल में बौद्धों का प्रसिद्ध विहारस्थल होने से 'विहार' नामकरण की सम्भावना हो सकती है। परन्तु श्रुतिस्मृतिप्रसिद्ध मिथिला क्षेत्र भी अभी विहार का ही अङ्ग है। सभी वेद-पुराणादिकों में 'मिथिला' और 'मैथिलों' के औत्कृष्ट्य का अभिवन्दन किया गया है। इस स्थिति में 'कीकट' का अर्थ सम्पूर्ण 'विहार' कैसे सिद्ध होगा?
(३.)संग्रहकर्ता लेखक ने "अत्रिस्मृति" या "श्रीमद्भागवत" के रचनाकाल का चिन्तन किये बिना बङ्ग, उत्कल, और मिथिला से संयुक्त 'विहार प्रदेश' को अपवित्र कैसे सिद्ध कर दिया? जिस समय इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ, उस समय वर्तमान का झारखण्ड राज्य भी बिहार ही था। क्या लेखक को "अत्रिस्मृति" आदि में 'विहार' का नाम मिला है? आपने अत्रिस्मृति एवं श्रीमद्भागवत में तात्कालिक "बिहार" का नाम ढूँढकर क्यों नहीं दिखाया?
(४.)बौद्धों के प्रसार से पूर्व स्मृति-पौराण काल में अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, मगध, मिथिला आदि के नामों की ही प्रसिद्धि थी। उस समय अखण्ड भारतवर्ष राज्यों में न बँटकर साम्राज्यों में बँटा था। जब सहस्रों वर्ष पूर्व स्मृति या पुराणकाल में "बिहार" नाम से कोई प्रदेश था ही नहीं तो आपने उस समय के लिखे महान् ग्रन्थ में "बिहार" की कल्पना कैसे कर ली?
(५.)आपने स्वार्थ की पुष्टि में श्रीमद्भागवत के दो स्थल बताये, जहाँ से आपके पक्ष की प्रबलता सम्भव नहीं- "यत्र यत्र च मद्भक्ता: प्रशान्ता: समदर्शिन:। साधव: समुदाचारास्ते पूयन्त्यपि कीकटा:" (७।१०।१९) यहाँ भगवद्भक्त की प्रशंसा है एवं "अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्। कृष्णसारोऽप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम्।।" (११।२१।८) यहाँ सभी भाष्यकारों ने "अब्रह्मण्यदेश" का अर्थ ब्राह्मणभक्तिशून्य देश किया है; जो प्राय: आज भी है ही। कुछ मठों में शुद्ध ब्राह्मण द्वारा स्पृष्ट रसोई को साम्प्रदायिक द्रोहवश अशुद्ध माना जा रहा है, जबकि मिथिला के प्रसिद्ध ब्राह्मण महर्षि "बोधायन" ही उनके उपजीव्य या प्रवर्तक हैं। अस्तु, आश्चर्य- आपने इन दोनों श्लोकों को त्याज्य ब्राह्मण के प्रकरण में कैसे रख दिया?!
(६.)कीकट देशीय या माथुर ब्राह्मण कर्मविशेष में ही त्याज्यात्याज्य हो सकते हैं, सर्वत्र नहीं। आपने कर्मविशेष के लिये पुराणों में श्रद्धापूर्वक गयावाल ब्राह्मणों की पूज्यता क्यों नहीं देखी थी? आपने गर्गसंहिता एवं वराह पुराणादि में माथुर ब्राह्मणों की पूज्यता क्यों नहीं देखी? आपने बिना समझे स्वार्थ और असूयावश अमुकामुक स्थानों के पवित्र ब्राह्मणों का अपमान क्यों कर दिया?
(७.)सहस्रों वर्षों से मिथिला, बङ्ग और उत्कलसहित 'विहार' के ८० प्रतिशत महाविद्वानों ने ही अपनी सारस्वत साधना से दिव्य "काशी" को विभूषित किया है (काशी की पाण्डित्यपरम्परा आदि पढ़ें)। आपके पूज्यतम पिताश्री के अन्तरङ्ग शिष्यों में श्रीजगदानन्दजी झा (मेरे वैदिक गुरु) आदि मैथिल महाविद्वान् भी थे, जो गुरुजी की आज्ञा से आपको पढ़ाते थे; तथापि आपने उस समय के बृहद् बिहार और माथुर प्रदेश को अपमानित क्यों किया?
(८.)आपका कर्मक्षेत्र भी विशेषरूपेण दक्षिण बिहार ही था। उत्तर बिहार यानी मिथिला क्षेत्र में प्रवेश या मैथिलों से वार्ता के लिए भगवती "संकटा" को सौवर्ण बिल्वपत्र चढ़ाने का संकल्प लेना पड़ता था। तथापि भवदुक्त स्थल श्रीमद्भागवत की टीकाओं के अनुसार "अङ्गबङ्गकलिङ्गेषु सौराष्ट्रमगधेषु च। तीर्थयोगं विना गत्वा पुन: संस्कारमर्हति।।" आपने सपरिकर इन सभी स्थानों (यज्ञमीमांसा की भूमिका के अनुसार) में वृत्त्यर्थ यज्ञानुष्ठान कराने के बाद भी प्रायश्चित्तार्थ कभी पुन:संस्कार या चान्द्रायणादि व्रतों का सम्पादन क्यों नहीं किया? आपने उक्त स्थलों में गमनागमन का कारण क्यों नहीं बताया?
(९.)आप स्वयं ही मूलत: काशी से हजार किलोमीटर दूर के थे। कुछ दशाब्दियों से काशी का वास करते हुए भी बिहारियों एवं माथुरों के प्रति आपका कौटिल्य भाव समाप्त क्यों नहीं हुआ? ऐसे ब्रह्मवृत्तिविघातक अनर्थ का प्रसारण करने पर उक्त प्रदेशों के ब्राह्मण वेद-शास्त्रादि को पढ़ेंगे ही क्यों? क्या इसका परिणाम धर्म-संस्कृति के लिये सुखद होगा? मन्त्रार्थचन्द्रोदय आदि वेदभाष्य मिथिला के ही हैं!
(१०.)प्राचीनकालात् मिथिला एवं मैथिलों के सौजन्य से ही किञ्चित्काल पाटलिपुत्र भी मीमांसकों की भूमि रही है। प्रसिद्ध है- कट्टर सनातनी एवं संस्कृतसम्पोषक मिथिलानरेश के आह्वान पर मिथिला में एक ही दिन में १४ सौ महामीमांसकों की बृहद् गोष्ठी हुई थी। महामीमांसक श्रीमद्गङ्गेशोपाध्यायादि ने मीमांसोक्त यज्ञकर्म की रक्षा के लिए ही युक्तिप्रधान नव्यन्याय का प्रवर्तन किया था; क्योंकि बौद्ध वेदप्रमाणवादी नहीं थे। श्रीमान् कुमारिल भट्ट, श्रीमण्डन मिश्र, श्रीप्रभाकर मिश्र, श्रीमुरारि मिश्र, श्रीशबर स्वामी, श्रीवर्षाचार्य, श्रीमान् उपवर्षाचार्य, श्रीमान् वाचस्पति मिश्र, श्रीमान् उदयनाचार्य एवं श्रीमान् बच्चा झाजी आदि ने मीमांसोक्त यज्ञकर्म की रक्षा के लिए ही प्रबल युक्तियों से वेदाप्रमाणवादी बौद्धों को खदेड़ा था। आपने जिस शुक्लयजुर्वेद माध्यन्दिनशाखा का पाठ-पारायण किया था, उसका प्राकट्य महर्षि याज्ञवल्क्य के द्वारा मिथिला में ही हुआ था। आपके महाविद्वान् पूज्य पिताजी ने जिन कात्यायन श्रौतसूत्र और शुल्बसूत्र पर भाष्य के रूप में अपनी सारस्वती साधना को समर्पित कर दी, वे महर्षि कात्यायन मिथिला के ही ब्रह्मविद्वरिष्ठ महर्षि याज्ञवल्क्य के सुयोग्य सुपुत्र थे। सम्पूर्णविश्व में मिथिला की कृपा से ही शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा, पूर्वमीमांसा एवं न्यायादि का प्रचार-प्रसार हुआ। अन्य कोई भले ही मिथ्या श्रेय ले ले, परन्तु मैथिल विद्वानों ने ही बौद्धों के बौद्धिक आतङ्क से वेदों एवं विशेषकर श्रौत-स्मार्त्त कर्मकाण्डों को बचाने का सफल प्रयास किया था। स्वयं महर्षि पाणिनि एवं वार्त्तिककार कात्यायन आदि भी पाटलिपुत्र के अध्यापक मैथिलमनीषी श्रीवर्षाचार्य के शिष्य थे। बिहार की मिथिला ने ही संसार को महाप्रभु चैतन्य जैसे महारत्न का दान दिया। आज भी धर्मब्रह्मविग्रह जगद्गुरु पुरीपीठाधीश्वर स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती महाभाग के रूप में मैथिल मनीषी की विद्यमानता विश्वविदित है। मैं अधिक व्याख्यान न करते हुए पूछता हूँ- मैथिलों या विहारियों के "पूर्वमीमांसा" परक महान् साहित्यों को छोड़कर आप श्रौतयज्ञों का विश्लेषण या सम्पादन कर सकते हैं क्या? तत्कालीन मैथिलों के साथ प्रत्यक्ष प्रवाद में आप सक्षम नहीं होते थे, एतदर्थ आपने बड़ी चतुराई से बिहारियों की जीविका के अपहरण का मार्ग ढूँढ लिया; क्यों? यदि शास्त्रत: इन जिज्ञासाओं का समाधान सुलभ नहीं है तो श्रीगौड़जी की "यज्ञमीमांसा" का संशोधन होना चाहिए, अन्यथा मूलज्ञान से अनभिज्ञ भावी पीढ़ी के लिए ऐसे गलत अर्थ ही प्रमाण माने जाएँगे। उक्त श्लोक में जीविकामात्र के लिए वैद्य और ज्योतिषी बनने वाले का निषेध है, तद्वेत्ता का नहीं। यज्ञादि कर्मकाण्ड में दोनों के ज्ञान की आवश्यकता है।
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