Friday, 4 July 2025

ब्राह्मण यज्ञ मीमांसा

🔥अत्यन्त विचारणीय बिन्दु- अयोध्यां मिथिलां काशीं व्रजं गङ्गां यमानुजाम्। श्रुतिं स्मृतिं पुराणं च तन्त्रशास्त्रं नमाम्यहम्।। 

(१.)पं.वेणीराम गौड़जी ने स्वसंकलित "यज्ञमीमांसा" के पृष्ठसंख्या २२१ के "मागधो माथुरश्चैव कापट: कीकटानजौ। पञ्च विप्रा न पूज्यन्ते बृहस्पतिसमा यदि।।" में किस प्रकरण में और किस पद का अर्थ सम्पूर्ण 'बिहार' कर दिया है? इन्होंने 'कीकट' का अर्थ 'गया' के साथ ही पूरा 'बिहार' कैसे ले लिया?  

(२.)इन्होंने 'मागध' का अर्थ 'स्तुतिपाठक' लिया है। यदि 'मागध' का अर्ध 'मगधदेशोद्भव' लेते तो किञ्चित् सङ्गति लगाने का प्रयास होता। यथा- प्राचीनकाल में मगध के राजाओं के अधिकृत विशाल भूखण्ड को 'विहार' कहा जाता था, वही कालान्तर में "बिहार" हो गया। उस समय के मगधसम्राट् समग्र भारतवर्ष के अधिपति थे। इतिहास में ईसा से ७०० वर्ष पहले भी समृद्ध 'विहार' या मगध की चर्चा है। बङ्गविच्छेद के समय उत्कल को मिलाकर २२ मार्च १,९१२ ई. को स्वतन्त्र प्रदेश के रूप में विहार की स्थापना हुई थी। वर्तमान के दक्षिण बिहार या मगध क्षेत्र में उस समय बौद्धों का बाहुल्य हो गया था, परन्तु अब उतनी समस्या नहीं है। पूर्वकाल में बौद्धों का प्रसिद्ध विहारस्थल होने से 'विहार' नामकरण की सम्भावना हो सकती है। परन्तु श्रुतिस्मृतिप्रसिद्ध मिथिला क्षेत्र भी अभी विहार का ही अङ्ग है। सभी वेद-पुराणादिकों में 'मिथिला' और 'मैथिलों' के औत्कृष्ट्य का अभिवन्दन किया गया है। इस स्थिति में 'कीकट' का अर्थ सम्पूर्ण 'विहार' कैसे सिद्ध होगा? 

(३.)संग्रहकर्ता लेखक ने "अत्रिस्मृति" या "श्रीमद्भागवत" के रचनाकाल का चिन्तन किये बिना बङ्ग, उत्कल, और मिथिला से संयुक्त 'विहार प्रदेश' को अपवित्र कैसे सिद्ध कर दिया? जिस समय इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ, उस समय वर्तमान का झारखण्ड राज्य भी बिहार ही था। क्या लेखक को "अत्रिस्मृति" आदि में 'विहार' का नाम मिला है? आपने अत्रिस्मृति एवं श्रीमद्भागवत में तात्कालिक "बिहार" का नाम ढूँढकर क्यों नहीं दिखाया?

(४.)बौद्धों के प्रसार से पूर्व स्मृति-पौराण काल में अङ्ग, बङ्ग, कलिङ्ग, मगध, मिथिला आदि के नामों की ही प्रसिद्धि थी। उस समय अखण्ड भारतवर्ष राज्यों में न बँटकर साम्राज्यों में बँटा था। जब सहस्रों वर्ष पूर्व स्मृति या पुराणकाल में "बिहार" नाम से कोई प्रदेश था ही नहीं तो आपने उस समय के लिखे महान् ग्रन्थ में "बिहार" की कल्पना कैसे कर ली?

(५.)आपने स्वार्थ की पुष्टि में श्रीमद्भागवत के दो स्थल बताये, जहाँ से आपके पक्ष की प्रबलता सम्भव नहीं- "यत्र यत्र च मद्भक्ता: प्रशान्ता: समदर्शिन:। साधव: समुदाचारास्ते पूयन्त्यपि कीकटा:" (७।१०।१९) यहाँ भगवद्भक्त की प्रशंसा है एवं "अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्। कृष्णसारोऽप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम्।।" (११।२१।८) यहाँ सभी भाष्यकारों ने "अब्रह्मण्यदेश" का अर्थ ब्राह्मणभक्तिशून्य देश किया है; जो प्राय: आज भी है ही। कुछ मठों में शुद्ध ब्राह्मण द्वारा स्पृष्ट रसोई को साम्प्रदायिक द्रोहवश अशुद्ध माना जा रहा है, जबकि मिथिला के प्रसिद्ध ब्राह्मण महर्षि "बोधायन" ही उनके उपजीव्य या प्रवर्तक हैं। अस्तु, आश्चर्य- आपने इन दोनों श्लोकों को त्याज्य ब्राह्मण के प्रकरण में कैसे रख दिया?!

(६.)कीकट देशीय या माथुर ब्राह्मण कर्मविशेष में ही त्याज्यात्याज्य हो सकते हैं, सर्वत्र नहीं। आपने कर्मविशेष के लिये पुराणों में श्रद्धापूर्वक गयावाल ब्राह्मणों की पूज्यता क्यों नहीं देखी थी? आपने गर्गसंहिता एवं वराह पुराणादि में माथुर ब्राह्मणों की पूज्यता क्यों नहीं देखी? आपने बिना समझे स्वार्थ और असूयावश अमुकामुक स्थानों के पवित्र ब्राह्मणों का अपमान क्यों कर दिया?

(७.)सहस्रों वर्षों से मिथिला, बङ्ग और उत्कलसहित 'विहार' के ८० प्रतिशत महाविद्वानों ने ही अपनी सारस्वत साधना से दिव्य "काशी" को विभूषित किया है (काशी की पाण्डित्यपरम्परा आदि पढ़ें)। आपके पूज्यतम पिताश्री के अन्तरङ्ग शिष्यों में श्रीजगदानन्दजी झा (मेरे वैदिक गुरु) आदि मैथिल महाविद्वान् भी थे, जो गुरुजी की आज्ञा से आपको पढ़ाते थे; तथापि आपने उस समय के बृहद् बिहार और माथुर प्रदेश को अपमानित क्यों किया?

(८.)आपका कर्मक्षेत्र भी विशेषरूपेण दक्षिण बिहार ही था। उत्तर बिहार यानी मिथिला क्षेत्र में प्रवेश या मैथिलों से वार्ता के लिए भगवती "संकटा" को सौवर्ण बिल्वपत्र चढ़ाने का संकल्प लेना पड़ता था। तथापि भवदुक्त स्थल श्रीमद्भागवत की टीकाओं के अनुसार "अङ्गबङ्गकलिङ्गेषु सौराष्ट्रमगधेषु च। तीर्थयोगं विना गत्वा पुन: संस्कारमर्हति।।" आपने सपरिकर इन सभी स्थानों (यज्ञमीमांसा की भूमिका के अनुसार) में वृत्त्यर्थ यज्ञानुष्ठान कराने के बाद भी प्रायश्चित्तार्थ कभी पुन:संस्कार या चान्द्रायणादि व्रतों का सम्पादन क्यों नहीं किया? आपने उक्त स्थलों में गमनागमन का कारण क्यों नहीं बताया?

(९.)आप स्वयं ही मूलत: काशी से हजार किलोमीटर दूर के थे। कुछ दशाब्दियों से काशी का वास करते हुए भी बिहारियों एवं माथुरों के प्रति आपका कौटिल्य भाव समाप्त क्यों नहीं हुआ? ऐसे ब्रह्मवृत्तिविघातक अनर्थ का प्रसारण करने पर उक्त प्रदेशों के ब्राह्मण वेद-शास्त्रादि को पढ़ेंगे ही क्यों? क्या इसका परिणाम धर्म-संस्कृति के लिये सुखद होगा? मन्त्रार्थचन्द्रोदय आदि वेदभाष्य मिथिला के ही हैं!

(१०.)प्राचीनकालात् मिथिला एवं मैथिलों के सौजन्य से ही किञ्चित्काल पाटलिपुत्र भी मीमांसकों की भूमि रही है। प्रसिद्ध है- कट्टर सनातनी एवं संस्कृतसम्पोषक मिथिलानरेश के आह्वान पर मिथिला में एक ही दिन में १४ सौ महामीमांसकों की बृहद् गोष्ठी हुई थी। महामीमांसक श्रीमद्गङ्गेशोपाध्यायादि ने मीमांसोक्त यज्ञकर्म की रक्षा के लिए ही युक्तिप्रधान नव्यन्याय का प्रवर्तन किया था; क्योंकि बौद्ध वेदप्रमाणवादी नहीं थे। श्रीमान् कुमारिल भट्ट, श्रीमण्डन मिश्र, श्रीप्रभाकर मिश्र, श्रीमुरारि मिश्र, श्रीशबर स्वामी, श्रीवर्षाचार्य, श्रीमान् उपवर्षाचार्य, श्रीमान् वाचस्पति मिश्र, श्रीमान् उदयनाचार्य एवं श्रीमान् बच्चा झाजी आदि ने मीमांसोक्त यज्ञकर्म की रक्षा के लिए ही प्रबल युक्तियों से वेदाप्रमाणवादी बौद्धों को खदेड़ा था। आपने जिस शुक्लयजुर्वेद माध्यन्दिनशाखा का पाठ-पारायण किया था, उसका प्राकट्य महर्षि याज्ञवल्क्य के द्वारा मिथिला में ही हुआ था। आपके महाविद्वान् पूज्य पिताजी ने जिन कात्यायन श्रौतसूत्र और शुल्बसूत्र पर भाष्य के रूप में अपनी सारस्वती साधना को समर्पित कर दी, वे महर्षि कात्यायन मिथिला के ही ब्रह्मविद्वरिष्ठ महर्षि याज्ञवल्क्य के सुयोग्य सुपुत्र थे। सम्पूर्णविश्व में मिथिला की कृपा से ही शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा, पूर्वमीमांसा एवं न्यायादि का प्रचार-प्रसार हुआ। अन्य कोई भले ही मिथ्या श्रेय ले ले, परन्तु मैथिल विद्वानों ने ही बौद्धों के बौद्धिक आतङ्क से वेदों एवं विशेषकर श्रौत-स्मार्त्त कर्मकाण्डों को बचाने का सफल प्रयास किया था। स्वयं महर्षि पाणिनि एवं वार्त्तिककार कात्यायन आदि भी पाटलिपुत्र के अध्यापक मैथिलमनीषी श्रीवर्षाचार्य के शिष्य थे। बिहार की मिथिला ने ही संसार को महाप्रभु चैतन्य जैसे महारत्न का दान दिया। आज भी धर्मब्रह्मविग्रह जगद्गुरु पुरीपीठाधीश्वर स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती महाभाग के रूप में मैथिल मनीषी की विद्यमानता विश्वविदित है। मैं अधिक व्याख्यान न करते हुए पूछता हूँ- मैथिलों या विहारियों के "पूर्वमीमांसा" परक महान् साहित्यों को छोड़कर आप श्रौतयज्ञों का विश्लेषण या सम्पादन कर सकते हैं क्या? तत्कालीन मैथिलों के साथ प्रत्यक्ष प्रवाद में आप सक्षम नहीं होते थे, एतदर्थ आपने बड़ी चतुराई से बिहारियों की जीविका के अपहरण का मार्ग ढूँढ लिया; क्यों? यदि शास्त्रत: इन जिज्ञासाओं का समाधान सुलभ नहीं है तो श्रीगौड़जी की "यज्ञमीमांसा" का संशोधन होना चाहिए, अन्यथा मूलज्ञान से अनभिज्ञ भावी पीढ़ी के लिए ऐसे गलत अर्थ ही प्रमाण माने जाएँगे। उक्त श्लोक में जीविकामात्र के लिए वैद्य और ज्योतिषी बनने वाले का निषेध है, तद्वेत्ता का नहीं। यज्ञादि कर्मकाण्ड में दोनों के ज्ञान की आवश्यकता है।


Monday, 30 June 2025

अरंडी और तंबाकू

एक अरंडी का बीज लेकर छिलका निकाल कर अच्छी तरह से चबाकर 300ml चाय के जैसे गर्म पानी के साथ पहले दिन एक बीज, दूसरे दिन दो बीज इसी प्रकार 7 दिन लगातार एक बीज बढ़ाते हुए खाना है फिर आठवें दिन से 6 बीज नॉर्वे दिन 5 बीज यानी की 7 दिन क्रम अनुसार बढ़ाते हुए खाना है फिर 7 दिन क्रम अनुसार घटाना है। यह नुकसा आजमाइसी है, लगभग बहुत से लोगों को लाभ हुआ है।
  अरंडी के बीजों में ओलिक एसिड, रिकिनोइलिक एसिड, लिनोलिक एसिड और अन्य फैटी एसिड प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, गठिया, जोड़ों के दर्द वात रोग दाद खाज खुजली तथा अगर बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में रुकावट हो दूर होती है , कब्ज की हर प्रकार की बीमारी का दुश्मन है। मासिक धर्म संबंधित दोष तथा दर्द दूर होते हैं। परंतु जिन स्त्रियों को अभी और संतान की इच्छा हो ऐसी स्त्रियां लेने से बच्चे मेरे निजी सुझाव के अनुसार यह एक गर्भनिरोधक का कार्य करता है - स्त्रियों के द्वारा सेवन करने से संतान उत्पत्ति बाधा उत्पन्न कर सकता है।
  जोड़ों के दर्द तथा वात रोग के लिए तथा चमड़े की बीमारी और बालों में लगे कीड़े या बाल झड़ना संबंधित बीमारियों के लिए बहुत ही उपयोगी आजमायसी तम्बाकू का तेल
  ढाई किलो तंबाकू के पत्ते लेकर या तंबाकू लेकर साढ़े 7 लीटर पानी में शाम के समय आधा घंटा पीकर छोड़ दे और सुबह में पानी में अच्छी तरह से तंबाकू के पत्तों को मलकर पानी को निचोड़ लें किसी कपड़े की मदद से तत्पश्चात 1 लीटर तिल का तेल लेकर हल्की-हल्की मीठी आज में तेल और तंबाकू के पानी को पकाएं जब पानी खत्म हो जाए तेल को किसी मिट्टी के बर्तन में या कांच के बर्तन में स्टोर करके रख ले यह तेल गठिया वात चर्मरोग तथा तथा बाल झड़ने जैसे इत्यादि रोगों में बहुत ही लाभदायक है। हालांकि मेरे धर्म रीति अनुसार मैं इसका स्वप्रयोग तो नहीं किया परंतु अन्य को प्रयोग करवाया है ✍️🙏

ब्राह्मण

रावण को सीता का हरण करना था उसने वेष बनाया ब्राह्मण का। हनुमानजी को राम का भेद लेना हुआ उन्होंने वेष बनाया ब्राह्मण का। कालनेमी को हनुमानजी को उनसे मार्ग से भटकाना हुआ उसने वेष बनाया ब्राह्मण का। कर्ण को परशुराम जी से धनुर्वेद का ज्ञान लेना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। श्रीकृष्ण को कर्ण को छलना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। श्रीकृष्ण सहित भीमादि पांडवों को छल से जरासंध का वध करना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। वरुण को राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। विश्वामित्र को राजा हरिश्चंद्र को छलना को हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। विष्णु को राजा बलि को छलना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। अश्विनी कुमारों को च्यवन ऋषि की पत्नी सत्यवती की परीक्षा लेना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। अपने अज्ञातवास के दौरान पांडव सहित कुंती तथा द्रौपदी ने कई बार ब्राह्मण का वेश धारण किया।

जब जब किसी को कोई समाजवर्धी , राष्ट्रविरोधी पाप और क्रूर कर्म करना हुआ तो उसने ब्राह्मण का वेश ही धारण किया। 
क्यों? क्योंकि ब्राह्मण नाम है एक भरोसे का। ब्राह्मण नाम है एक विश्वास का। ब्राह्मण नाम है सत्य का। ब्राह्मण नाम है धर्म का। ब्राह्मण नाम है सबका कल्याण चाहने वाला,सबको सुखी देखने वाला,सबको साथ लेकर सन्मार्ग पर चलने वाला,राष्ट्रभक्ति , दूरदर्शिता,अध्ययन,लगन, ज्ञान, त्याग, तप, बलिदान ,शील,धैर्य,निष्पक्षता,
संतोष और संयम का।
 इसलिए ब्राह्मण के नाम, ब्राह्मण की प्रतिष्ठा का लाभ उठाना बहुत आसान था। उसके वेश से, उसके नाम से लोगों को मूर्ख बनाना आसान था। उसके नाम से लोगों को ठगना आसान था। आज भी यही हो रहा है। हालांकि अब ब्राह्मण नाम ब्रांड नहीं एक धब्बे जैसा लगता है। ब्राह्मण होना पाप जैसा लगता है। 

आखिर ब्राह्मण इतने कुकर्मी हैं जो ? 
 ब्राह्मणों ने सदियों तक मौर्यवंशी सम्राटों, चंवर वंशी क्षत्रिय राजाओं (अब चमार), अहीर-यदुवंशी राजाओं, महार-कहार-कुर्मी-पासी-राजभर,मल्लाह-निषाद जाति के राजाओं, नाई जाति के राजाओं, डोम राजाओं, नागवंशी राजाओं, हैहय वंशी राजाओं, जाट-गुर्जर-पाल,बघेल-परमार-
प्रतिहार राजाओं,मराठा,डोंगरा, चोल-चालुक्य-वेंगी-वर्मन वंशी राजाओं, सूर्यवंशी, चंद्रवंशी चक्रवर्ती सम्राटों ,महाराजाओं का शोषण किया? उन्हें दबाया कुचला, पीड़ित और प्रताड़ित किया। वे राजे ,महराज के परिवार के लोग 80-90% और ब्राह्मण केवल 3-5%। राजे , महाराजे की सेना, उनका राजपरिवार,उनकी प्रजा, उनके हथियार, उनके अस्त्र-शस्त्र,किले, उनका खजाना, उनकी ताकत, उनके साथ उनकी बिरादरी का बल व सहयोग और ब्राह्मण ठहरे कमजोर अल्पसंख्यक? 
अल्पसंख्यक होते हुए भी ब्राह्मण एक धोती, शिखा, जनेऊ, तिलक, छोटी सी कुटिया में रहने वाले , कभी कभी भूखे पेट रहकर सोने वाले ने राजे , महाराजे और उनके परिवार को लूट लिया? बर्बाद कर दिया है? सदियों तक शोषण करके तबाह कर दिया? और इस कदर तबाह किया वे अपना सिर ही न उठा सके? अब झूठे और मनगढ़ंत शोषण की झूठी कहानियों पर आधारित इतिहास का बदला लिया जा रहा है? 
या तो क्या गैर ब्राह्मण राजे , महाराजे इतने अनभिज्ञ,अदूरदर्शी , मूर्ख, निर्बुद्धि, कायर, निर्बल ,असहाय और अज्ञानी थे कि उन्हें ब्राह्मणों का अत्याचार, कमीनापन दिखा नहीं अथवा ब्राह्मण वाकई इतने योग्य, सामर्थ्यवान थे कि राजे , महाराजे लोग चकरघिन्नी की तरह सहस्राब्दियों तक नाचते रहे, नट-मरकट की तरह अथवा यह अब तक का सबसे बड़ा झूठ है, षड्यंत्र है, धोखा है।
 प्रकृति की अनमोल धरोहर मानव हो ,मानवता दिखाई पड़नी चाहिए ,जातीयता नहीं 
इन चंद जातिवादी हिंदू विरोधी,सनातन संस्कृति विरोधी चाटुकारों की राजनैतिक पराकाष्ठा के झांसे में ना आएं ।

स्त्री की लालसा

स्त्री जब अतिरिक्त लालसा और सरप्लस अभिलाषा के जाल में फंसती है , तभी ऐसा होता है l और यह उस का अपना ही चयन होता है , उस का ही अपना विवेक होता है l 

खामखा पुरुष सत्ता , पितृसत्ता को गरियाना वामपंथी बीमारी है l वामपंथियों ने औरतों को भोगने के लिए यह शब्दावली थमा दी l और औरतें इसे ले उड़ीं l पितृ सत्ता न हो तो , अराजक , बीमार और कुंठित मर्द औरत को भून कर खा जाएं l 

पितृसत्ता के नाम पर विमर्श करने वाली स्त्रियां एक बार अपने पिता , भाई , पति और पुत्र के बिना अपने को रख कर देख लें न ! 

समाज कहां जाएगा , और औरतें कहां जाएंगी , अकल्पनीय है यह कह पाना l पिता, पति, पुत्र का कवच-कुंडल हटते ही स्त्री , बिना पतवार की नाव सरीखी हो जाती है l जो जब चाहता है , जिधर चाहता है , बहा ले जाता है l कभी फुसला कर , कभी जबरिया l 

तो पितृसत्तात्मक समाज को कोसना बंद करना चाहिए l चाहे पौराणिक काल हो , आज का समय हो , हर बार स्त्रियों की रक्षा , यही पितृ सत्ता करती आई है l राम ने रावण से युद्ध किया तो सीता के लिए ही , राजगद्दी के लिए नहीं l कृष्ण ने द्रौपदी को चीर हरण से बचाया तो स्त्री की लाज के लिए ही l ऐसे अनेक प्रसंग आज भी उपस्थित हैं l रहेंगे l स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं तो यह पितृ सत्ता के कारण हैं l 

जाइए कभी शिलांग l कभी गौहाटी l कभी थाईलैंड l मातृसत्तात्मक समाज है वहाँ l देखिए कि कितनी अराजकता , असभ्यता और हिंसा है l कितना बिखराव है , समाज और परिवार में l 

बाक़ी स्त्रियों का अपना विवेक है l अपनी समझ और राय है l अपनी बात कहने के लिए कोई मनाही तो है नहीं l लेकिन पत्थर पर कुदाल चलाने से चोट अपने ही पांव पर लगती है l घायल अपना ही पांव होता है l

(एक मित्र की पोस्ट पर मेरा यह कमेंट l)

मनुस्मृति

मनुस्मृति (१)

अब जबकि मनुस्मृति के विरुद्ध युद्ध छेड़ ही दिया गया है और उसे संविधान के द्वैत में खड़ा कर ही दिया गया है तो अब यह उतना ही जरूरी हो गया है कि चुनौती स्वीकार ही कर ली जाये और उन बंदों को भी आईना दिखाया जाये जो बड़े आधुनिक, जातिप्रथा विरोधी और समतावादी समाज के होने का दावा करते हैं। 

ये लोग तो तभी हार गये थे जब इन्होंने एक पुस्तक को जलाया था। भारत में तर्क-वितर्क की, खंडन-मंडन की, शास्त्रार्थ की इतनी लंबी परम्परा चली आई है। ध्यान यह भी दें कि चाहे मनुस्मृति को जलाया जाये चाहे रामचरितमानस को जलाया जाये या गीता को- कभी भी उस समाज ने जो इनका आदर करता है, कोई फतवा जारी नहीं किया, कोई सर तन से जुदा का आह्वान नहीं किया, किसी को ‘खुदा का दुश्मन’ नहीं घोषित किया। भारत की संस्कृति में वैसा कोई Index Librorum Prohibitorum (Index of Forbidden Books) नहीं रहा जैसा चर्च के इतिहास में रहा? 1242 में पेरिस में पोप नवम ग्रेगरी ने तालमुद और यहूदी पुस्तकों को जलाने के आदेश दिये थे। 1244 में पूरे यूरोप में ये पुस्तकें चर्च के आदेश से जलाई गईं। Impia Judaeorum Perfidia (1244) इसकी पुष्टि करता है। बाद में पोप इनोसेंट चतुर्थ के समय भी यही हुआ। 1121 में Theologia Summi Boni पुस्तक चर्च के आदेश से जलाई गईं। जॉन वाइक्लिफ की किताब De Civili Dominio सहित उसका बाइबिल अनुवाद जला दिया गया। सन 1520 में पोप लियो दशम् की धर्माज्ञा Exsurge Domine के द्वारा मार्टिन लूथर किंग की पुस्तकें On the Babylonian Captivity of the Church और The Freedom of a Christian सहित बहुत सी पुस्तकें जलवाई गईं। टिंडेल की अनूदित बाइबिल से लेकर गैलीलियो की डॉयलॉग तक कितनी ही पुस्तकों को जलाया गया। मैं पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों को जलाने की असंख्य औपनिवेशिक घटनाओं का कोई उल्लेख नहीं कर रहा हूँ। 

तो जब मनुस्मृति को जलाया गया वह कोई क्रांतिकारी काम नहीं था। वह औपनिवेशिक तौरतरीकों का अनुसरण था। भारत में असहमति पर शास्त्रार्थ और संवाद होता था। याज्ञवल्क्य का किन किन से नहीं हुआ। कभी उषस्ति चाक्रायण से। कभी गार्गी वाचक्नवी से। कभी मैत्रेयी से।प्रह्लाद की बहस इन्द्र से होती थी। ढेरों उदाहरण हैं। 

सभ्यता यही है और असल असभ्यता बुक बर्निंग है। आज तो मैं ऐसे ऐसे मूर्खों को मनुस्मृति के विरुद्ध बोलते देखता हूँ जिन्होंने मनुस्मृति को पढ़ा भी नहीं है पर उसके विरुद्ध नित्य टी वी चैनलों पर जहर उगलना उनके लिए जरूरी बन गया है। 

जॉर्ज बुहलर (सैक्रेड बुक्स ऑफ ईस्ट सीरीज) और पांडुरंग वामन काणे (हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र) ने मनुस्मृति के प्रक्षेपों का विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने सुझाया कि मूल मनुस्मृति संभवतः एक संक्षिप्त “मानव धर्मसूत्र” पर आधारित थी, जिसे बाद में विस्तारित और संशोधित किया गया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने “सत्यार्थ प्रकाश” में मनुस्मृति के कई अंशों को प्रक्षिप्त बताया, खासकर वे जो वेदों से असंगत हैं। उन्होंने सिद्ध किया कि मूल मनुस्मृति वैदिक सिद्धांतों पर आधारित थी। डॉ. सुरेंद्र कुमार ने “विशुद्ध मनुस्मृति” नामक ग्रंथ में प्रक्षिप्त श्लोकों को हटाकर मूल ग्रंथ को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। लेकिन ध्यान देने की बात है कि प्रक्षेपों के निष्कासन की जगह सम्पूर्ण मनुस्मृति को जलाया जा रहा है और एक आदिग्रंथ के विरुद्ध मूर्ख घृणा का एक माहौल बनाया जा रहा है। 

मनुस्मृति की 50 से अधिक पांडुलिपियां उपलब्ध हैं, और इनमें श्लोकों की संख्या (2684 से 2964 तक) और सामग्री में भिन्नताएं हैं।

और भारत में कई पब्लिकेशन हैं जो भारतीय ग्रंथों में मनमाना कुछ भी घुसेड़ कर अपना एजेंडा पूरा कर रहे हैं। 2016 और 2023 में ऐसे पब्लिशर्स के विरुद्ध कार्रवाई भी हुई। 

शताब्दियों से यह स्ट्रेटेजी चली आई है। होमर की इलियड और ओडेसी में 15 से 20% का प्रक्षेप माना जाता है। स्वयं बाइबिल में ये प्रक्षेप माने जाते हैं। शैतानी छंदों पर विवाद अलग हो चुका है। 

लेकिन जो बुद्धिमान होते हैं वे गेहूँ को भूसी से अलग कर लेते हैं। उन्हें दूध का दूध पानी का पानी करना आता है। वे नीर-क्षीर विवेक से सम्पन्न होते हैं। हंसो हि क्षीरं क्षिपन्ति जलं च त्यजन्ति। प्रक्षेपों को पहचानना कठिन नहीं है। पाठ्यगत असंगतियों ( textual inconsistencies) और अंतर्विरोधों ( contradictions) से समझ आ जाता है। छंदों के और छंदक्रम के उचित निर्वहन न होने से समझ आ जाता है। भाषाशास्त्रीय और शैलीगत विरोधों से समझ आ जाता है। अलग अलग पांडुलिपियाँ भेद खोलती हैं। cross-textual तुलनाएँ बता देती हैं। सैद्धान्तिक या विचारधारात्मक प्रदूषण ( doctrinal and ideological anomalies) बता देते हैं। टीकाएँ बताती हैं। बाहरी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं। 

पर यह सब पढ़े लि़खों का नसीब। अनपढ़ों और अर्धसाक्षरों का समय पुस्तकों का अपमान करता ही है। 

पर ये लोग कभी बताएँगे कि जब संविधान भी एक पुस्तक है, तब उसके प्रावधानों पर बहस से इतना कतराते क्यों हैं? 

बौद्धिकता से डर लगता है तो अपने बौद्धिक आलस्य के चलते किसी पुस्तक की रक्षा करते हैं और उसी आलस्य के चलते किसी दूसरी पुस्तक को पढ़े और समझे बिना जलाते भी हैं।

मनुस्मृति (२)

मनुस्मृति की कोई स्पर्धा संविधान से नहीं है। जब मनुस्मृति बनी तब संविधान का अस्तित्व ही नहीं था। 

मनुस्मृति की कोई स्पर्धा संविधान से हो भी नहीं सकती। संविधान भारत के लिए है, मनुस्मृति मानवता के लिए है। वह सभी वर्णों के लिए है और वह धर्म बताने के लिए है। जैसे वेद भारत ही के लिए नहीं है, वेदाधृत मनुस्मृति भी भारत भर के लिए नहीं है। मनु वेद को मनुष्य का शाश्वत नेत्र कहते हैं - पितृदेवमनुष्यमाणां वेदश्चक्षु: सनातनम्‌। संविधान ‘हम भारत के लोग’ के लिए है, मनुस्मृति नहीं। उसमें धर्म की परिभाषा ही इतनी व्यापक है-

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)

एक अन्य स्थान पर मनु धर्म यह बताते हैं -:

वेदाभ्यास:, तपः, ज्ञानम्‌, इन्द्रियाणां च संयम: । धर्मक्रिया, आत्मचिन्ता च नि: श्रेयसकरं परम्‌॥

मनु नहीं कहते In God we trust. वो अल्लाह की कल्पना को भी धर्म के लिए आवश्यक नहीं बताते। 

संविधान भारत को राज्यों का संघ कहता है-इस तरह वह भारत की उत्पत्ति कथा का आधार बताता है। India that is Bharat में इस देश की सांस्कृतिक जड़ों का संकेत है। 

पर मनुस्मृति इस जगत् की उत्पत्ति की बात करती है: 

आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्‌ । अप्रतर्क्यमविज्ञेय॑ प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥

यानी यह सब दृश्यमान जगत्‌ सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयकाल में तम अर्थात्‌ मूल प्रकृति रूप में एवं अन्धकार से आच्छादित था, स्पष्ट-प्रकट रूप में जाना जाने योग्य कुछ नहीं था, सृष्टि का कोई लक्षण-चिह्न उस समय नहीं था, न कुछ अनुमान करने योग्य था, सब कुछ अज्ञात था, मानो सब ओर, सब कुछ सोया-सा पड़ा था॥

मनुस्मृति मानवता का टेक्स्ट है, संविधान का वृत्त सीमित है। उसे सृष्टि की व्युत्पत्ति से मतलब नहीं। दोनों का contextual template ही अलग अलग है। 

फिर मनुस्मृति आत्मार्पित नहीं है। वह तो महर्षियों के द्वारा मनु से जिज्ञासा करने का परिणाम है। संविधान एक आलोड़न की स्थिति में लिखा गया है। देश विकट परिवर्तनों, उद्विग्नताओं और उथलपुथल से गुजर रहा था तब हमारा संविधान बन रहा था। पर मनुस्मृति एक अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्ति की एकाग्रता, अविचलितता और ध्यानस्थता के कारण संभव हुई, यह मनुस्मृति के पहले शब्द ‘मनुमेकाग्रमासीनभिगम्य’ से स्पष्ट है। 

संविधान अधिनियमित है, मनुस्मृति नहीं है। इसलिए संविधान को सुविधा है कि उसमें कोई भी संशोधन एक औपचारिक सामूहिक प्रक्रिया के माध्यम से हो। मनुस्मृति में तो जैसा हम देख चुके हैं कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा आकर कुछ भी जोड़ जाता है। और सिर्फ जोड़ने की बात नहीं, टीका की भी बात है।टीका अर्थविस्तार करे तो समझ आता है पर वह अर्थ-संकुचन करे तो मुश्किल होती है। सायण ने वेद का यज्ञपरक अन्वय किया तो वही काम मेधातिथि ने मनुस्मृति के साथ किया। लेकिन न तो वेद अनुष्ठानमूलक थे और न वेदाश्रित मनुस्मृति। यज्ञ के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक अभिप्राय थे। जब वेद का अर्थ ही ज्ञानमूलक है तो उनके यज्ञ कर्मकांडमूलक कैसे हो सकते थे? जो मनु यह कह रहे थे कि चारों वर्णों, चारों आश्रमों, तीनों लोकों और तीनों कालों का ज्ञान वेद से है -: 

चातुवर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमा: पृथक्‌।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात्‌ प्रसिद्धयति ॥

जो समस्त व्यवहारों का साधक वेद को बता रहे थे: 

बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम्‌ । तस्मादेतत्‌ परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्‌॥

उनकी मनुस्मृति के सर्वशुद्ध पाठ के लिए वेदानुकूलता एक बड़ा आधार है। इसलिए जो लोग मनुस्मृति पर किये गये कटाक्षों की उपेक्षा यह मान करते हैं कि वे तो मात्र एक स्मृति पर ही हैं, वे नहीं समझते कि ऐसे लोगों को यदि यहीं स्तंभित नहीं किया गया तो एक दिन ये वेद पर भी आयेंगे। उनका निशाना मनुस्मृति नहीं है, हिन्दुत्व है। आपकी पवित्र पुस्तकें आपके किले हैं। आप यह सोचकर असावधान रहेंगे कि यह तो सिर्फ एक किला गया और ‘दिल्ली दूर अस्त’ तो एक दिन आप कहीं के नहीं रहेंगे। आप सोचते हैं कि दूसरों के पास एक एक पुस्तक है और आपके पास पूरी एक लाइब्रेरी है तो आप एक दो तीन पुस्तकों का जलना अफोर्ड कर सकते हो, एक दिन आपका विद्या के प्रति यही लापरवाह नज़रिया आपके सामने वह स्थिति लायेगा जब इस लाइब्रेरी की पुस्तकें दीमकें खा चुकी होंगी। 

अब मध्यकाल की तरह पुस्तकालय जलाये नहीं जाते। अब वही काम एक क्रमिक तरह से दीमकें करती हैं। 
(क्रमशः) 
मनुस्मृति (३)

मनुस्मृति एक ऐसी पुस्तक है जिसके विरुद्ध औपनिवेशिक काल में एक smear campaign चला। हम उसकी चर्चा बाद में करेंगे पर यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ही थी जिसने सबसे पहले मनुस्मृति के पृष्ठों पर से धूल झाड़ी और उसे हिन्दू विधि संहिता के एकमात्र आधार के रूप में प्रयुक्त करना शुरू किया। 

इस कंपनी के द्वारा कमीशन की गई और जॉन बेकन द्वारा बनाई सर विलियम जोंस की एक विशालकाय प्रतिमा लंदन के सेंट पॉल कैथेड्रल में है। इसमें उसका हाथ जिस पुस्तक पर टिका बताया गया है, वह Menu’s Institutes के नाम से यह मनुस्मृति ही है।हालाँकि मनु का नाम देवनागरी में लिखा गया है। 

सर जोन्स ने मनुस्मृति का सन 1776 में अनुवाद किया था और उसे पढ़कर ही समझ आता है कि क्यों किसी समय बाइबिल के अंग्रेज़ी में अनुवाद का चर्च इतना विरोध करता था।मनुस्मृति को आर्डिनेंस के रूप में बताना ही बहुत बड़ी त्रुटि थी। स्मृति मेमोरी थी, पर अध्यादेश कभी नहीं थी। सर जोन्स कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे और उनकी मन:निर्मिति ने मनुस्मृति के एतदनुसार प्रयोग में बड़ी भूमिका अदा की। वे मनु को भारत के जस्टिनियन की तरह देखते थे। 

उन्होंने कहा कि मनु ने ब्रह्मा के द्वारा सिखाये गये एक लाख छंदों के कानूनों को primitive world को समझाया। हालाँकि मनुस्मृति का एक सहज पाठ ही बताता है कि यह प्रिमिटिव संसार की नहीं, एक विकसित समाज की रचना है। और जब मनुस्मृति लिखी गई तब यूरोप सहित शेष विश्व में कानून/व्यवस्था नामक किसी चीज का अता पता न था। बहरहाल जोन्स बताते हैं कि नारद और भृगुपुत्र सुमति ने उसका संक्षिप्तीकरण किया। फिर वे 2585 रह गये। सर जोन्स मेधातिथि, गोविंदराज, कुल्लुकभट्ट और धरणीधर की टीकाओं का उल्लेख भी करते हैं। सर जोन्स स्वयं भी कहते हैं कि जिस पंडित के साथ उन्होंने इसे पढ़ा उसने अपना नामोल्लेख न किये जाने की प्रार्थना की। वे पंडितों के द्वारा किये गये असहयोग का भी उल्लेख करते हैं और यह बताते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक के फारसी अनुवाद को बनारस के चीफ़ नेटिव मजिस्ट्रेट से प्राप्त किया। वे स्वयं यह कहते हैं कि फारसी अनुवाद बहुत ही rude और loosely rendered है। कि यह त्रुटियों से भरपूर है जो संभवतः जल्दबाज़ी और अज्ञान का परिणाम है। 

हमने मनु की एकाग्रता का उल्लेख किया है। मनुमेकाग्रमासीनभिगम्य। इस एकाग्रता में कहीं ईश्वर का उल्लेख नहीं है। पर सर विलियम जोन्स जब इसका अनुवाद करते हैं तो कहते हैं कि: ‘With his attention fixed on one object, the Supreme God’. अब एकाग्रता के लिए सुप्रीम गॉड को सोचे बिना ईसाई दिमाग आगे बढ़ ही नहीं सकता था, इसलिए जब जोन्स के उस अनाम पंडित से पूछा गया होगा तो उसने कह दिया होगा- सर्वोच्च ईश्वर। क्योंकि इन्हें लगा होगा कि बहुदेववाद से एकाग्रता कहाँ आ सकती है। मनु तो धर्म तक की गुणमूलक परिभाषा देते हैं जिसमें सुप्रीम गॉड का होना भी अनिवार्य नहीं। पर जोन्स की मनोरचना में वह बात आ ही नहीं सकती थी। 

यों इस पहले शब्द से त्रुटिपूर्ण अनुवाद की एक श्रृंखला शुरू होती है तो वह चलती ही जाती है।

तो जो इंग्लैंड 🏴󠁧󠁢󠁥󠁮󠁧󠁿 से शिक्षित होकर लौटे सज्जन मनुस्मृति की प्रतियाँ जलाये, वे कौन से अनुवाद को पढ़े थे? क्या उन्हें संस्कृत और विशेषतः क्लासिकल संस्कृत का ज्ञान था? 

या जो अब misinformation और disinformation का अभियान चलाये हुए हैं, उनकी संस्कृत के संस्कारों से कितनी अभिज्ञता है। क्या सेलेक्टिव quoting के उनके खेल को हम नहीं जानते? हमने कैरेक्टर एसेसिनेशन के बारे में खूब सुना है पर किसी पुस्तक के ऐसे एसेसिनेशन को देखिए।ये एक आम सनातनी हिन्दू के मन में Guilt by association भरने की वैसी ही कोशिश है जैसे कभी स्वस्तिक और आर्य के नाम से हिटलर और फासिज्म और नाजिज्म सब हिन्दुओं पर मढ़ दिये गये थे। हिटलर स्वयं अपनी क्रिश्चियन प्रेरणाओं पर गर्व करता रहा पर हमारे एजेंडेबाजों को तो यह ज़्यादा पुसाया कि सनातन की लिंक कैसे तो भी उससे स्थापित की जाये। 

आम भारतीय के मन का मनु के विरुद्ध ही मैनिपुलेशन करना और मनुस्मृति के खिलाफ एक तरह की outrage baiting करना और दलितों के विक्टिमहुड नैरेटिव को मनुस्मृति के कारण बताना निरक्षरता के चलते नहीं हुआ, नीयत के चलते हुआ। इसके ज़रिए भारत की सामाजिक एकता को फ्रेक्चर करने कोशिश औपनिवेशिक समय में भी की गई और अभी भी उसी एकता से भयभीत होकर ये हरकतें हो रही हैं। जो मनु धर्म में अपरिग्रह देखता हो, उसे शोषणकर्ता बताओ। एक मूवी 2012 में आई थी- शूद्रा। उसमें मनु को बाहर से आया आक्रमणकारी बताया था। उसमें वही atrocity porn था कि जिसमें ऊँ नम: शिवाय का उच्चारण करने पर एक पाँच वर्ष के दलित बच्चे को सजा दी जाती है और जो देखा जाये तो भक्ति आंदोलन की उपलब्धियों को झुठलाने की बेहूदा कोशिश भर थी। 

और ये भी पता करें कि वे कौन थे जिन्होंने महिलाओं को संपत्ति के अधिकार के मामले में प्रिवी कौंसिल की आलोचना इस बात पर की थी कि उसने मनुस्मृति या याज्ञवल्क्यस्मृति की जगह प्रथा को महत्व दिया। उन्होंने कहा था :

“प्रिवी काउंसिल ने जो निर्णय दिया है, उसके लिए मैं बहुत खेद व्यक्त करता हूँ। इसने हमारे कानून में सुधार का मार्ग अवरुद्ध कर दिया है। प्रिवी काउंसिल ने पहले के एक मामले में कहा था कि प्रथा कानून पर हावी होगी, जिसके परिणामस्वरूप हमारी न्यायपालिका के लिए हमारे प्राचीन संहिताओं की जांच करना और यह पता लगाना असंभव हो गया कि हमारे ऋषियों और स्मृतिकारों ने कौन से कानून बनाए थे। मुझे इस बारे में जरा भी संदेह नहीं है कि यदि प्रिवी काउंसिल ने यह निर्णय नहीं दिया होता कि प्रथा पाठ पर हावी होगी, तो कोई वकील, कोई न्यायाधीश याज्ञवल्क्य और मनुस्मृति के इस पाठ को खोज निकालना बहुत संभव पाता और महिलाएँ आज लाभ ले रही होतीं। “

ये वही थे जिन्होंने उसे जलाया था। जब हिंदू कोड बिल उन्होंने बनाया तो बहुत हद तक मनुस्मृति ही उनके काम आई थी। 

(क्रमशः)

मनुस्मृति इन दिनों चर्चा में है। इस संबंध में एक पुरानी पोस्ट साझा कर रही हूँ: 

शब्दों के जाल में फंसे हिन्दू ग्रन्थ 

अंग्रेजों ने भाषांतरण के द्वारा हिन्दू धर्म की अवधारणाओं को संकुचित करने का कार्य किया है तथा दुर्भाग्य से उसी भाषांतरण के आधार पर आगे के कार्य हुए या कहें यही अंग्रेजी भाषांतरण ही सन्दर्भ ग्रन्थ बन गए एवं संस्कृत ग्रन्थ नेपथ्य में चले गए. 
मनुस्मृति के श्लोकों एवं उनके अंग्रेजी भाषांतरण से इसे और अच्छी तरह से समझा जा सकता है. प्रथम भाग में श्लोक संख्या 7, जो जगत की उत्पत्ति के विषय में है, उसमें लिखा है कि 
योऽसावतीन्द्रियग्राह्य: सूक्ष्मोऽव्यक्त: सनातन:
सर्वभूतमयोऽचिन्त्य: स एव स्वयमुद्बभौ 
जो व्यक्ति संस्कृत नहीं भी समझता है वह भी इसमें अतीन्द्रिय शब्द से यह समझ जाएगा कि यह इन्द्रियों से सम्बन्धित है. अर्थात हमारे भावों/senses/अनुभूतियों से सम्बन्धित है, अर्थात यहाँ अनुभूतियों से सम्बन्धित कुछ है. इसका हिन्दी में अर्थ चौखम्बा प्रकाशन से प्रकाशित मनुस्मृति में इस प्रकार दिया गया है 
जो भगवान (परमात्मा) अतीन्द्रिय (नेत्र आदि इन्द्रियों से अग्राह्य एवं योग से ग्राह्य), सूक्ष्मरूप, अव्यक्त, नित्य और सब प्राणियों की आत्मा (अतएव) अचिन्त्य हैं; वे ही परमात्मा स्वयं प्रकट हुए. 
विलियम जोन्स इसके भाषांतरण में लिखते हैं 
HE, whom the mind alone can perceive, whose essence eludes the external organs, who has no visible parts, who exists from eternity, even He, the soul of all beings, whom no being can comprehended, shone forth in person. 
इन्होनें इन्द्रियों को external organs कहा है. बाहरी अंग और इन्द्रियों में अंतर है. बाहरी अंग होते हैं हाथ, पैर, उंगली आदि अंग होते हैं, तो वहीं नेत्र, नाक, जीभ, कान और त्वचा इन्द्रियाँ होती हैं. इन्द्रियों को अंग्रेजी में sence-organs लिखा जा सकता है, परन्तु external organs इन्द्रियों के अर्थ को मात्र बाहरी अंगों तक सीमित कर रहा है. 
वहीं बहलर ने इसका भाषांतरण किया है:
He who can be perceived by the internal organ (alone), who is subtle, indiscernible, and eternal, who contains all created beings and is inconceivable, shone forth of his own (will). 
बह्लर ने लिखा है कि जो मात्र आतंरिक अंग से ही अनुभव किया जा सकता है. आतंरिक अंग क्या होते हैं? या इन्द्रियाँ आंतरिक अंग हैं? 
मनुस्मृति की और विस्तार से व्याख्या करने वाली पुस्तक Manusmriti Explanation में अतीन्द्रिय का अर्थ दिया गया है “unperceivable by external senses” तथा सूक्ष्म का अर्थ लिखा है कि “who is perceivable by subtle understanding only” 
परन्तु बहलर और विलियम जोन्स ने इन्द्रियों का अर्थ समझे बिना “अंग अर्थात organs” के रूप में भाषांतरित कर दिया है. 
हिन्दू धर्मग्रंथ बहुत अधिक शब्दजाल का शिकार हुए हैं. यदि भाषांतरण किसी भी हिन्दू ग्रन्थ का आप अंग्रेजी में पढ़ रहे हैं, तो उसका संस्कृत भी साथ में पढ़ना अनिवार्य है, एवं साथ ही किसी योग्य गुरु से ही उनका अर्थ समझा जाए तो ही बेहतर होगा. क्योंकि ऐसे भाषांतरण को पढ़कर ही लोग हिंदूधर्म पर किताबें लिखकर भाषांतरित पुस्तकों का संदर्भ देते हैं और अर्थ का अनर्थ और विस्तारित करते हैं!
*विश्लेषण भाषांतरण और शब्दों के आधार पर है

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मनुस्मृति के विरोधी एक दिन इतना मनुस्मृति-मनुस्मृति कर देंगे कि लोग इसे पढ़कर चर्चा करने लगेंगे, जो कि करनी भी चाहिए! जितना डराया जा रहा है, जब उसमें से डरने वाला बहुत कुछ नहीं निकलेगा, तो कई दुकानें बंद होंगी! 
ग्रंथ से डरना कैसे, चर्चा होनी चाहिए!

Tuesday, 24 June 2025

अक्रूर

विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम आता है, "अक्रूर". इसका अर्थ सरल है. व्याख्या की आवश्यकता नहीं. किंतु यह शब्द सुनते ही भागवत के एक चरित्र की बरबस ही याद आ जाती है. अक्रूर जी भगवान कृष्ण को मथुरा ले जाने गोकुल पहुंचते हैं. परम भागवत अक्रूर जी के मन मे यह धुकधुकी थी कि नंदलाल भला उनको स्वीकार करेंगे कि नहीं? अथवा कंस के संसर्ग से उत्पन्न दोष से उन्हें कहीं विमुख तो ना कर देगे.
गोकुल पहुँच अक्रूर जी ने देखा कि श्री कृष्णचन्द्र जी गौओं के दोहन स्थान पर बछड़ों के साथ विराजमान हैं. वहां उनका हासयुक्त मुखारविंद पूरी दिव्यता के साथ सुशोभित हो रहा है.
अक्रूर जी ने वहां पहुँच गोविन्द के चरणों में झुक किंचित झिझक के साथ अपना परिचय दिया. किंतु यह यह क्या.. ब्रजेंद्र ने अक्रूर जी को प्रीति पूर्वक खींचकर गाढ़ आलिंगन किया. गोपीजन वल्लभ की यह जादू भरी झप्पी सारे भेद, संशय, संकोच मिटा देती है. सुदामा हो या अक्रूर उन्हें इसी गाढ़ आलिंगन में ही अलभ्य खजाने मिल गये.
"अक्रूर: पेशलो दक्षो दक्षिण: क्षमिणां वर:"
भगवान "अक्रूर" ही नहीं "पेशल "भी हैं. भाष्यकार श्री शंकराचार्य जी के अनुसार जो कर्म, मन, वाणी और शरीर से सुन्दर हो, उसे "पेशल" कहते हैं.
ऐसे " पेशल" भगवान कृष्ण और दाऊ भैया बलराम को अक्रूर जी जब अपने रथ में गोकुल से मथुरा जाते हैं, तो रास्ते में मध्याह्न के समय अक्रूर जी भगवान की आज्ञा लेकर यमुना स्नान और संध्या करते हैं. उस समय उन्हें यमुना नदी के भीतर भगवान कृष्ण के एक अद्भुत और विलक्षण दर्शन होते हैं. यह बड़ा ही मनोरम प्रसंग है.इसके बाद अक्रूर जी भगवान की स्तुति करते हैं. अक्रूर जी द्वारा की गयी स्तुति को भागवत की रसपूर्ण स्तुतियों में एक माना जाता है.
अब जरा कथा का गियर बदल देते हैं. द्वापर से त्रेता में चलते हैं. अक्रूर जी यहाँ भगवान को ला रहे है. वहाँ सुमंत्र जी भगवान को छोड़ने जा रहे है. भगवान तो पूर्णब्रह्म है.सुख दुःख से सर्वथा परे. पर पता नहीं क्यों अक्रूर जी का प्रसंग पढ़ कर जितना आनंद आता है, उतना ही सुमंत्र जी वाला प्रसंग पढ़ एक अनकहा अवसाद खड़ा हो जाता है.
यानी भगवान के आने का प्रसंग बहुत ही सुखद और जाने का प्रसंग निश्चय ही अप्रिय होता है. खैर, छोड़िए यह सब...परेशान होने की बात नहीं है. एक जुलाई को सबको मौका मिलने वाला है. अक्रूर जी की तरह जो चाहे भगवान जगन्नाथ का रथ खींच सकता है. चाहे तो अक्रूर जी की स्तुति भी दोहरा सकता है:-
"" ऊँ नमो वासुदेवाय नमस्संकर्षणाय च. 
प्रद्युम्नाय नमस्तुभ्यमनिरुद्धाय ते नम:""


गायत्री का अर्थ सूर्य भी नहीं है

गायत्री का अर्थ सूर्य भी नहीं है। सविता का अर्थ है, उत्पन्न करने वाला, या जन्म देने वाला। पृथ्वी के लिये यह सविता सूर्य ही है, किन्तु तत् (वह) सविता सूर्य के जनक का भी जनक परब्रह्म है। सूर्य प्रसंग में गायत्री का प्रथम पाद सूर्य, द्वितीय पाद उसका तेज, तथा तृतीय पाद उसका हमारी चेतना पर प्रभाव। नाभि चक्र से सूर्य तक हमारा सम्बन्ध ब्रह्मरन्ध्र तक अणु पथ से, उसके बाद महापथ से है (छान्दोग्य तथा बृहदारण्यक उपनिषद) यह मुहूर्त में प्रकाश गति से तीन बार जा कर लौट आता है (ऋग्वेद, ३/५३/८)।
सामान्यतः गायत्री के तीन पाद ब्रह्मा, विष्णु, शिव का निर्देश करते हैं। शक्ति रूप में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती हैं। राम का परब्रह्म रूप प्रथम पाद है, विश्व में प्रसारित प्राण शक्ति रं द्वितीय पाद है (प्राणो वै रम्), उससे हमारी जीवन क्रिया तृतीय पाद है।
केवल ब्रह्मा रूप में सृष्टि का मूल पदार्थ रस प्रथम पाद, आकर्षण द्वारा सृष्टि क्रिया द्वितीय पाद, सृष्टि तथा शब्द वेद तृतीय पाद है।
विष्णु रूप में प्रथम पाद है-एकोऽहं बहु स्याम, द्वितीय पाद सूर्य रूप में शक्ति केन्द्र तथा तृतीय पाद मनुष्य की चेतना है। 
शिव रूप में प्रथम पाद श्वोवसीयस मन है, द्वितीय पाद रुद्र तेज है, तृतीय पाद मस्तिष्क में ज्ञान की प्रेरणा है।
हनुमान रूप में स्रष्टा रूप वृषाकपि, तेज रूप मारुति तथा ज्ञान रूप मनोजव है। इनके विस्तृत सन्दर्भ हैं।