खामखा पुरुष सत्ता , पितृसत्ता को गरियाना वामपंथी बीमारी है l वामपंथियों ने औरतों को भोगने के लिए यह शब्दावली थमा दी l और औरतें इसे ले उड़ीं l पितृ सत्ता न हो तो , अराजक , बीमार और कुंठित मर्द औरत को भून कर खा जाएं l
पितृसत्ता के नाम पर विमर्श करने वाली स्त्रियां एक बार अपने पिता , भाई , पति और पुत्र के बिना अपने को रख कर देख लें न !
समाज कहां जाएगा , और औरतें कहां जाएंगी , अकल्पनीय है यह कह पाना l पिता, पति, पुत्र का कवच-कुंडल हटते ही स्त्री , बिना पतवार की नाव सरीखी हो जाती है l जो जब चाहता है , जिधर चाहता है , बहा ले जाता है l कभी फुसला कर , कभी जबरिया l
तो पितृसत्तात्मक समाज को कोसना बंद करना चाहिए l चाहे पौराणिक काल हो , आज का समय हो , हर बार स्त्रियों की रक्षा , यही पितृ सत्ता करती आई है l राम ने रावण से युद्ध किया तो सीता के लिए ही , राजगद्दी के लिए नहीं l कृष्ण ने द्रौपदी को चीर हरण से बचाया तो स्त्री की लाज के लिए ही l ऐसे अनेक प्रसंग आज भी उपस्थित हैं l रहेंगे l स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं तो यह पितृ सत्ता के कारण हैं l
जाइए कभी शिलांग l कभी गौहाटी l कभी थाईलैंड l मातृसत्तात्मक समाज है वहाँ l देखिए कि कितनी अराजकता , असभ्यता और हिंसा है l कितना बिखराव है , समाज और परिवार में l
बाक़ी स्त्रियों का अपना विवेक है l अपनी समझ और राय है l अपनी बात कहने के लिए कोई मनाही तो है नहीं l लेकिन पत्थर पर कुदाल चलाने से चोट अपने ही पांव पर लगती है l घायल अपना ही पांव होता है l
(एक मित्र की पोस्ट पर मेरा यह कमेंट l)
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