गोकुल पहुँच अक्रूर जी ने देखा कि श्री कृष्णचन्द्र जी गौओं के दोहन स्थान पर बछड़ों के साथ विराजमान हैं. वहां उनका हासयुक्त मुखारविंद पूरी दिव्यता के साथ सुशोभित हो रहा है.
अक्रूर जी ने वहां पहुँच गोविन्द के चरणों में झुक किंचित झिझक के साथ अपना परिचय दिया. किंतु यह यह क्या.. ब्रजेंद्र ने अक्रूर जी को प्रीति पूर्वक खींचकर गाढ़ आलिंगन किया. गोपीजन वल्लभ की यह जादू भरी झप्पी सारे भेद, संशय, संकोच मिटा देती है. सुदामा हो या अक्रूर उन्हें इसी गाढ़ आलिंगन में ही अलभ्य खजाने मिल गये.
"अक्रूर: पेशलो दक्षो दक्षिण: क्षमिणां वर:"
भगवान "अक्रूर" ही नहीं "पेशल "भी हैं. भाष्यकार श्री शंकराचार्य जी के अनुसार जो कर्म, मन, वाणी और शरीर से सुन्दर हो, उसे "पेशल" कहते हैं.
ऐसे " पेशल" भगवान कृष्ण और दाऊ भैया बलराम को अक्रूर जी जब अपने रथ में गोकुल से मथुरा जाते हैं, तो रास्ते में मध्याह्न के समय अक्रूर जी भगवान की आज्ञा लेकर यमुना स्नान और संध्या करते हैं. उस समय उन्हें यमुना नदी के भीतर भगवान कृष्ण के एक अद्भुत और विलक्षण दर्शन होते हैं. यह बड़ा ही मनोरम प्रसंग है.इसके बाद अक्रूर जी भगवान की स्तुति करते हैं. अक्रूर जी द्वारा की गयी स्तुति को भागवत की रसपूर्ण स्तुतियों में एक माना जाता है.
अब जरा कथा का गियर बदल देते हैं. द्वापर से त्रेता में चलते हैं. अक्रूर जी यहाँ भगवान को ला रहे है. वहाँ सुमंत्र जी भगवान को छोड़ने जा रहे है. भगवान तो पूर्णब्रह्म है.सुख दुःख से सर्वथा परे. पर पता नहीं क्यों अक्रूर जी का प्रसंग पढ़ कर जितना आनंद आता है, उतना ही सुमंत्र जी वाला प्रसंग पढ़ एक अनकहा अवसाद खड़ा हो जाता है.
यानी भगवान के आने का प्रसंग बहुत ही सुखद और जाने का प्रसंग निश्चय ही अप्रिय होता है. खैर, छोड़िए यह सब...परेशान होने की बात नहीं है. एक जुलाई को सबको मौका मिलने वाला है. अक्रूर जी की तरह जो चाहे भगवान जगन्नाथ का रथ खींच सकता है. चाहे तो अक्रूर जी की स्तुति भी दोहरा सकता है:-
"" ऊँ नमो वासुदेवाय नमस्संकर्षणाय च.
प्रद्युम्नाय नमस्तुभ्यमनिरुद्धाय ते नम:""
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