अब जबकि मनुस्मृति के विरुद्ध युद्ध छेड़ ही दिया गया है और उसे संविधान के द्वैत में खड़ा कर ही दिया गया है तो अब यह उतना ही जरूरी हो गया है कि चुनौती स्वीकार ही कर ली जाये और उन बंदों को भी आईना दिखाया जाये जो बड़े आधुनिक, जातिप्रथा विरोधी और समतावादी समाज के होने का दावा करते हैं।
ये लोग तो तभी हार गये थे जब इन्होंने एक पुस्तक को जलाया था। भारत में तर्क-वितर्क की, खंडन-मंडन की, शास्त्रार्थ की इतनी लंबी परम्परा चली आई है। ध्यान यह भी दें कि चाहे मनुस्मृति को जलाया जाये चाहे रामचरितमानस को जलाया जाये या गीता को- कभी भी उस समाज ने जो इनका आदर करता है, कोई फतवा जारी नहीं किया, कोई सर तन से जुदा का आह्वान नहीं किया, किसी को ‘खुदा का दुश्मन’ नहीं घोषित किया। भारत की संस्कृति में वैसा कोई Index Librorum Prohibitorum (Index of Forbidden Books) नहीं रहा जैसा चर्च के इतिहास में रहा? 1242 में पेरिस में पोप नवम ग्रेगरी ने तालमुद और यहूदी पुस्तकों को जलाने के आदेश दिये थे। 1244 में पूरे यूरोप में ये पुस्तकें चर्च के आदेश से जलाई गईं। Impia Judaeorum Perfidia (1244) इसकी पुष्टि करता है। बाद में पोप इनोसेंट चतुर्थ के समय भी यही हुआ। 1121 में Theologia Summi Boni पुस्तक चर्च के आदेश से जलाई गईं। जॉन वाइक्लिफ की किताब De Civili Dominio सहित उसका बाइबिल अनुवाद जला दिया गया। सन 1520 में पोप लियो दशम् की धर्माज्ञा Exsurge Domine के द्वारा मार्टिन लूथर किंग की पुस्तकें On the Babylonian Captivity of the Church और The Freedom of a Christian सहित बहुत सी पुस्तकें जलवाई गईं। टिंडेल की अनूदित बाइबिल से लेकर गैलीलियो की डॉयलॉग तक कितनी ही पुस्तकों को जलाया गया। मैं पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों को जलाने की असंख्य औपनिवेशिक घटनाओं का कोई उल्लेख नहीं कर रहा हूँ।
तो जब मनुस्मृति को जलाया गया वह कोई क्रांतिकारी काम नहीं था। वह औपनिवेशिक तौरतरीकों का अनुसरण था। भारत में असहमति पर शास्त्रार्थ और संवाद होता था। याज्ञवल्क्य का किन किन से नहीं हुआ। कभी उषस्ति चाक्रायण से। कभी गार्गी वाचक्नवी से। कभी मैत्रेयी से।प्रह्लाद की बहस इन्द्र से होती थी। ढेरों उदाहरण हैं।
सभ्यता यही है और असल असभ्यता बुक बर्निंग है। आज तो मैं ऐसे ऐसे मूर्खों को मनुस्मृति के विरुद्ध बोलते देखता हूँ जिन्होंने मनुस्मृति को पढ़ा भी नहीं है पर उसके विरुद्ध नित्य टी वी चैनलों पर जहर उगलना उनके लिए जरूरी बन गया है।
जॉर्ज बुहलर (सैक्रेड बुक्स ऑफ ईस्ट सीरीज) और पांडुरंग वामन काणे (हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र) ने मनुस्मृति के प्रक्षेपों का विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने सुझाया कि मूल मनुस्मृति संभवतः एक संक्षिप्त “मानव धर्मसूत्र” पर आधारित थी, जिसे बाद में विस्तारित और संशोधित किया गया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने “सत्यार्थ प्रकाश” में मनुस्मृति के कई अंशों को प्रक्षिप्त बताया, खासकर वे जो वेदों से असंगत हैं। उन्होंने सिद्ध किया कि मूल मनुस्मृति वैदिक सिद्धांतों पर आधारित थी। डॉ. सुरेंद्र कुमार ने “विशुद्ध मनुस्मृति” नामक ग्रंथ में प्रक्षिप्त श्लोकों को हटाकर मूल ग्रंथ को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। लेकिन ध्यान देने की बात है कि प्रक्षेपों के निष्कासन की जगह सम्पूर्ण मनुस्मृति को जलाया जा रहा है और एक आदिग्रंथ के विरुद्ध मूर्ख घृणा का एक माहौल बनाया जा रहा है।
मनुस्मृति की 50 से अधिक पांडुलिपियां उपलब्ध हैं, और इनमें श्लोकों की संख्या (2684 से 2964 तक) और सामग्री में भिन्नताएं हैं।
और भारत में कई पब्लिकेशन हैं जो भारतीय ग्रंथों में मनमाना कुछ भी घुसेड़ कर अपना एजेंडा पूरा कर रहे हैं। 2016 और 2023 में ऐसे पब्लिशर्स के विरुद्ध कार्रवाई भी हुई।
शताब्दियों से यह स्ट्रेटेजी चली आई है। होमर की इलियड और ओडेसी में 15 से 20% का प्रक्षेप माना जाता है। स्वयं बाइबिल में ये प्रक्षेप माने जाते हैं। शैतानी छंदों पर विवाद अलग हो चुका है।
लेकिन जो बुद्धिमान होते हैं वे गेहूँ को भूसी से अलग कर लेते हैं। उन्हें दूध का दूध पानी का पानी करना आता है। वे नीर-क्षीर विवेक से सम्पन्न होते हैं। हंसो हि क्षीरं क्षिपन्ति जलं च त्यजन्ति। प्रक्षेपों को पहचानना कठिन नहीं है। पाठ्यगत असंगतियों ( textual inconsistencies) और अंतर्विरोधों ( contradictions) से समझ आ जाता है। छंदों के और छंदक्रम के उचित निर्वहन न होने से समझ आ जाता है। भाषाशास्त्रीय और शैलीगत विरोधों से समझ आ जाता है। अलग अलग पांडुलिपियाँ भेद खोलती हैं। cross-textual तुलनाएँ बता देती हैं। सैद्धान्तिक या विचारधारात्मक प्रदूषण ( doctrinal and ideological anomalies) बता देते हैं। टीकाएँ बताती हैं। बाहरी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं।
पर यह सब पढ़े लि़खों का नसीब। अनपढ़ों और अर्धसाक्षरों का समय पुस्तकों का अपमान करता ही है।
पर ये लोग कभी बताएँगे कि जब संविधान भी एक पुस्तक है, तब उसके प्रावधानों पर बहस से इतना कतराते क्यों हैं?
बौद्धिकता से डर लगता है तो अपने बौद्धिक आलस्य के चलते किसी पुस्तक की रक्षा करते हैं और उसी आलस्य के चलते किसी दूसरी पुस्तक को पढ़े और समझे बिना जलाते भी हैं।
मनुस्मृति (२)
मनुस्मृति की कोई स्पर्धा संविधान से नहीं है। जब मनुस्मृति बनी तब संविधान का अस्तित्व ही नहीं था।
मनुस्मृति की कोई स्पर्धा संविधान से हो भी नहीं सकती। संविधान भारत के लिए है, मनुस्मृति मानवता के लिए है। वह सभी वर्णों के लिए है और वह धर्म बताने के लिए है। जैसे वेद भारत ही के लिए नहीं है, वेदाधृत मनुस्मृति भी भारत भर के लिए नहीं है। मनु वेद को मनुष्य का शाश्वत नेत्र कहते हैं - पितृदेवमनुष्यमाणां वेदश्चक्षु: सनातनम्। संविधान ‘हम भारत के लोग’ के लिए है, मनुस्मृति नहीं। उसमें धर्म की परिभाषा ही इतनी व्यापक है-
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
एक अन्य स्थान पर मनु धर्म यह बताते हैं -:
वेदाभ्यास:, तपः, ज्ञानम्, इन्द्रियाणां च संयम: । धर्मक्रिया, आत्मचिन्ता च नि: श्रेयसकरं परम्॥
मनु नहीं कहते In God we trust. वो अल्लाह की कल्पना को भी धर्म के लिए आवश्यक नहीं बताते।
संविधान भारत को राज्यों का संघ कहता है-इस तरह वह भारत की उत्पत्ति कथा का आधार बताता है। India that is Bharat में इस देश की सांस्कृतिक जड़ों का संकेत है।
पर मनुस्मृति इस जगत् की उत्पत्ति की बात करती है:
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्यमविज्ञेय॑ प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥
यानी यह सब दृश्यमान जगत् सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयकाल में तम अर्थात् मूल प्रकृति रूप में एवं अन्धकार से आच्छादित था, स्पष्ट-प्रकट रूप में जाना जाने योग्य कुछ नहीं था, सृष्टि का कोई लक्षण-चिह्न उस समय नहीं था, न कुछ अनुमान करने योग्य था, सब कुछ अज्ञात था, मानो सब ओर, सब कुछ सोया-सा पड़ा था॥
मनुस्मृति मानवता का टेक्स्ट है, संविधान का वृत्त सीमित है। उसे सृष्टि की व्युत्पत्ति से मतलब नहीं। दोनों का contextual template ही अलग अलग है।
फिर मनुस्मृति आत्मार्पित नहीं है। वह तो महर्षियों के द्वारा मनु से जिज्ञासा करने का परिणाम है। संविधान एक आलोड़न की स्थिति में लिखा गया है। देश विकट परिवर्तनों, उद्विग्नताओं और उथलपुथल से गुजर रहा था तब हमारा संविधान बन रहा था। पर मनुस्मृति एक अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्ति की एकाग्रता, अविचलितता और ध्यानस्थता के कारण संभव हुई, यह मनुस्मृति के पहले शब्द ‘मनुमेकाग्रमासीनभिगम्य’ से स्पष्ट है।
संविधान अधिनियमित है, मनुस्मृति नहीं है। इसलिए संविधान को सुविधा है कि उसमें कोई भी संशोधन एक औपचारिक सामूहिक प्रक्रिया के माध्यम से हो। मनुस्मृति में तो जैसा हम देख चुके हैं कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा आकर कुछ भी जोड़ जाता है। और सिर्फ जोड़ने की बात नहीं, टीका की भी बात है।टीका अर्थविस्तार करे तो समझ आता है पर वह अर्थ-संकुचन करे तो मुश्किल होती है। सायण ने वेद का यज्ञपरक अन्वय किया तो वही काम मेधातिथि ने मनुस्मृति के साथ किया। लेकिन न तो वेद अनुष्ठानमूलक थे और न वेदाश्रित मनुस्मृति। यज्ञ के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक अभिप्राय थे। जब वेद का अर्थ ही ज्ञानमूलक है तो उनके यज्ञ कर्मकांडमूलक कैसे हो सकते थे? जो मनु यह कह रहे थे कि चारों वर्णों, चारों आश्रमों, तीनों लोकों और तीनों कालों का ज्ञान वेद से है -:
चातुवर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमा: पृथक्।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात् प्रसिद्धयति ॥
जो समस्त व्यवहारों का साधक वेद को बता रहे थे:
बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम् । तस्मादेतत् परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्॥
उनकी मनुस्मृति के सर्वशुद्ध पाठ के लिए वेदानुकूलता एक बड़ा आधार है। इसलिए जो लोग मनुस्मृति पर किये गये कटाक्षों की उपेक्षा यह मान करते हैं कि वे तो मात्र एक स्मृति पर ही हैं, वे नहीं समझते कि ऐसे लोगों को यदि यहीं स्तंभित नहीं किया गया तो एक दिन ये वेद पर भी आयेंगे। उनका निशाना मनुस्मृति नहीं है, हिन्दुत्व है। आपकी पवित्र पुस्तकें आपके किले हैं। आप यह सोचकर असावधान रहेंगे कि यह तो सिर्फ एक किला गया और ‘दिल्ली दूर अस्त’ तो एक दिन आप कहीं के नहीं रहेंगे। आप सोचते हैं कि दूसरों के पास एक एक पुस्तक है और आपके पास पूरी एक लाइब्रेरी है तो आप एक दो तीन पुस्तकों का जलना अफोर्ड कर सकते हो, एक दिन आपका विद्या के प्रति यही लापरवाह नज़रिया आपके सामने वह स्थिति लायेगा जब इस लाइब्रेरी की पुस्तकें दीमकें खा चुकी होंगी।
अब मध्यकाल की तरह पुस्तकालय जलाये नहीं जाते। अब वही काम एक क्रमिक तरह से दीमकें करती हैं।
(क्रमशः)
मनुस्मृति (३)
मनुस्मृति एक ऐसी पुस्तक है जिसके विरुद्ध औपनिवेशिक काल में एक smear campaign चला। हम उसकी चर्चा बाद में करेंगे पर यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ही थी जिसने सबसे पहले मनुस्मृति के पृष्ठों पर से धूल झाड़ी और उसे हिन्दू विधि संहिता के एकमात्र आधार के रूप में प्रयुक्त करना शुरू किया।
इस कंपनी के द्वारा कमीशन की गई और जॉन बेकन द्वारा बनाई सर विलियम जोंस की एक विशालकाय प्रतिमा लंदन के सेंट पॉल कैथेड्रल में है। इसमें उसका हाथ जिस पुस्तक पर टिका बताया गया है, वह Menu’s Institutes के नाम से यह मनुस्मृति ही है।हालाँकि मनु का नाम देवनागरी में लिखा गया है।
सर जोन्स ने मनुस्मृति का सन 1776 में अनुवाद किया था और उसे पढ़कर ही समझ आता है कि क्यों किसी समय बाइबिल के अंग्रेज़ी में अनुवाद का चर्च इतना विरोध करता था।मनुस्मृति को आर्डिनेंस के रूप में बताना ही बहुत बड़ी त्रुटि थी। स्मृति मेमोरी थी, पर अध्यादेश कभी नहीं थी। सर जोन्स कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे और उनकी मन:निर्मिति ने मनुस्मृति के एतदनुसार प्रयोग में बड़ी भूमिका अदा की। वे मनु को भारत के जस्टिनियन की तरह देखते थे।
उन्होंने कहा कि मनु ने ब्रह्मा के द्वारा सिखाये गये एक लाख छंदों के कानूनों को primitive world को समझाया। हालाँकि मनुस्मृति का एक सहज पाठ ही बताता है कि यह प्रिमिटिव संसार की नहीं, एक विकसित समाज की रचना है। और जब मनुस्मृति लिखी गई तब यूरोप सहित शेष विश्व में कानून/व्यवस्था नामक किसी चीज का अता पता न था। बहरहाल जोन्स बताते हैं कि नारद और भृगुपुत्र सुमति ने उसका संक्षिप्तीकरण किया। फिर वे 2585 रह गये। सर जोन्स मेधातिथि, गोविंदराज, कुल्लुकभट्ट और धरणीधर की टीकाओं का उल्लेख भी करते हैं। सर जोन्स स्वयं भी कहते हैं कि जिस पंडित के साथ उन्होंने इसे पढ़ा उसने अपना नामोल्लेख न किये जाने की प्रार्थना की। वे पंडितों के द्वारा किये गये असहयोग का भी उल्लेख करते हैं और यह बताते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक के फारसी अनुवाद को बनारस के चीफ़ नेटिव मजिस्ट्रेट से प्राप्त किया। वे स्वयं यह कहते हैं कि फारसी अनुवाद बहुत ही rude और loosely rendered है। कि यह त्रुटियों से भरपूर है जो संभवतः जल्दबाज़ी और अज्ञान का परिणाम है।
हमने मनु की एकाग्रता का उल्लेख किया है। मनुमेकाग्रमासीनभिगम्य। इस एकाग्रता में कहीं ईश्वर का उल्लेख नहीं है। पर सर विलियम जोन्स जब इसका अनुवाद करते हैं तो कहते हैं कि: ‘With his attention fixed on one object, the Supreme God’. अब एकाग्रता के लिए सुप्रीम गॉड को सोचे बिना ईसाई दिमाग आगे बढ़ ही नहीं सकता था, इसलिए जब जोन्स के उस अनाम पंडित से पूछा गया होगा तो उसने कह दिया होगा- सर्वोच्च ईश्वर। क्योंकि इन्हें लगा होगा कि बहुदेववाद से एकाग्रता कहाँ आ सकती है। मनु तो धर्म तक की गुणमूलक परिभाषा देते हैं जिसमें सुप्रीम गॉड का होना भी अनिवार्य नहीं। पर जोन्स की मनोरचना में वह बात आ ही नहीं सकती थी।
यों इस पहले शब्द से त्रुटिपूर्ण अनुवाद की एक श्रृंखला शुरू होती है तो वह चलती ही जाती है।
तो जो इंग्लैंड 🏴 से शिक्षित होकर लौटे सज्जन मनुस्मृति की प्रतियाँ जलाये, वे कौन से अनुवाद को पढ़े थे? क्या उन्हें संस्कृत और विशेषतः क्लासिकल संस्कृत का ज्ञान था?
या जो अब misinformation और disinformation का अभियान चलाये हुए हैं, उनकी संस्कृत के संस्कारों से कितनी अभिज्ञता है। क्या सेलेक्टिव quoting के उनके खेल को हम नहीं जानते? हमने कैरेक्टर एसेसिनेशन के बारे में खूब सुना है पर किसी पुस्तक के ऐसे एसेसिनेशन को देखिए।ये एक आम सनातनी हिन्दू के मन में Guilt by association भरने की वैसी ही कोशिश है जैसे कभी स्वस्तिक और आर्य के नाम से हिटलर और फासिज्म और नाजिज्म सब हिन्दुओं पर मढ़ दिये गये थे। हिटलर स्वयं अपनी क्रिश्चियन प्रेरणाओं पर गर्व करता रहा पर हमारे एजेंडेबाजों को तो यह ज़्यादा पुसाया कि सनातन की लिंक कैसे तो भी उससे स्थापित की जाये।
आम भारतीय के मन का मनु के विरुद्ध ही मैनिपुलेशन करना और मनुस्मृति के खिलाफ एक तरह की outrage baiting करना और दलितों के विक्टिमहुड नैरेटिव को मनुस्मृति के कारण बताना निरक्षरता के चलते नहीं हुआ, नीयत के चलते हुआ। इसके ज़रिए भारत की सामाजिक एकता को फ्रेक्चर करने कोशिश औपनिवेशिक समय में भी की गई और अभी भी उसी एकता से भयभीत होकर ये हरकतें हो रही हैं। जो मनु धर्म में अपरिग्रह देखता हो, उसे शोषणकर्ता बताओ। एक मूवी 2012 में आई थी- शूद्रा। उसमें मनु को बाहर से आया आक्रमणकारी बताया था। उसमें वही atrocity porn था कि जिसमें ऊँ नम: शिवाय का उच्चारण करने पर एक पाँच वर्ष के दलित बच्चे को सजा दी जाती है और जो देखा जाये तो भक्ति आंदोलन की उपलब्धियों को झुठलाने की बेहूदा कोशिश भर थी।
और ये भी पता करें कि वे कौन थे जिन्होंने महिलाओं को संपत्ति के अधिकार के मामले में प्रिवी कौंसिल की आलोचना इस बात पर की थी कि उसने मनुस्मृति या याज्ञवल्क्यस्मृति की जगह प्रथा को महत्व दिया। उन्होंने कहा था :
“प्रिवी काउंसिल ने जो निर्णय दिया है, उसके लिए मैं बहुत खेद व्यक्त करता हूँ। इसने हमारे कानून में सुधार का मार्ग अवरुद्ध कर दिया है। प्रिवी काउंसिल ने पहले के एक मामले में कहा था कि प्रथा कानून पर हावी होगी, जिसके परिणामस्वरूप हमारी न्यायपालिका के लिए हमारे प्राचीन संहिताओं की जांच करना और यह पता लगाना असंभव हो गया कि हमारे ऋषियों और स्मृतिकारों ने कौन से कानून बनाए थे। मुझे इस बारे में जरा भी संदेह नहीं है कि यदि प्रिवी काउंसिल ने यह निर्णय नहीं दिया होता कि प्रथा पाठ पर हावी होगी, तो कोई वकील, कोई न्यायाधीश याज्ञवल्क्य और मनुस्मृति के इस पाठ को खोज निकालना बहुत संभव पाता और महिलाएँ आज लाभ ले रही होतीं। “
ये वही थे जिन्होंने उसे जलाया था। जब हिंदू कोड बिल उन्होंने बनाया तो बहुत हद तक मनुस्मृति ही उनके काम आई थी।
(क्रमशः)
मनुस्मृति इन दिनों चर्चा में है। इस संबंध में एक पुरानी पोस्ट साझा कर रही हूँ:
शब्दों के जाल में फंसे हिन्दू ग्रन्थ
अंग्रेजों ने भाषांतरण के द्वारा हिन्दू धर्म की अवधारणाओं को संकुचित करने का कार्य किया है तथा दुर्भाग्य से उसी भाषांतरण के आधार पर आगे के कार्य हुए या कहें यही अंग्रेजी भाषांतरण ही सन्दर्भ ग्रन्थ बन गए एवं संस्कृत ग्रन्थ नेपथ्य में चले गए.
मनुस्मृति के श्लोकों एवं उनके अंग्रेजी भाषांतरण से इसे और अच्छी तरह से समझा जा सकता है. प्रथम भाग में श्लोक संख्या 7, जो जगत की उत्पत्ति के विषय में है, उसमें लिखा है कि
योऽसावतीन्द्रियग्राह्य: सूक्ष्मोऽव्यक्त: सनातन:
सर्वभूतमयोऽचिन्त्य: स एव स्वयमुद्बभौ
जो व्यक्ति संस्कृत नहीं भी समझता है वह भी इसमें अतीन्द्रिय शब्द से यह समझ जाएगा कि यह इन्द्रियों से सम्बन्धित है. अर्थात हमारे भावों/senses/अनुभूतियों से सम्बन्धित है, अर्थात यहाँ अनुभूतियों से सम्बन्धित कुछ है. इसका हिन्दी में अर्थ चौखम्बा प्रकाशन से प्रकाशित मनुस्मृति में इस प्रकार दिया गया है
जो भगवान (परमात्मा) अतीन्द्रिय (नेत्र आदि इन्द्रियों से अग्राह्य एवं योग से ग्राह्य), सूक्ष्मरूप, अव्यक्त, नित्य और सब प्राणियों की आत्मा (अतएव) अचिन्त्य हैं; वे ही परमात्मा स्वयं प्रकट हुए.
विलियम जोन्स इसके भाषांतरण में लिखते हैं
HE, whom the mind alone can perceive, whose essence eludes the external organs, who has no visible parts, who exists from eternity, even He, the soul of all beings, whom no being can comprehended, shone forth in person.
इन्होनें इन्द्रियों को external organs कहा है. बाहरी अंग और इन्द्रियों में अंतर है. बाहरी अंग होते हैं हाथ, पैर, उंगली आदि अंग होते हैं, तो वहीं नेत्र, नाक, जीभ, कान और त्वचा इन्द्रियाँ होती हैं. इन्द्रियों को अंग्रेजी में sence-organs लिखा जा सकता है, परन्तु external organs इन्द्रियों के अर्थ को मात्र बाहरी अंगों तक सीमित कर रहा है.
वहीं बहलर ने इसका भाषांतरण किया है:
He who can be perceived by the internal organ (alone), who is subtle, indiscernible, and eternal, who contains all created beings and is inconceivable, shone forth of his own (will).
बह्लर ने लिखा है कि जो मात्र आतंरिक अंग से ही अनुभव किया जा सकता है. आतंरिक अंग क्या होते हैं? या इन्द्रियाँ आंतरिक अंग हैं?
मनुस्मृति की और विस्तार से व्याख्या करने वाली पुस्तक Manusmriti Explanation में अतीन्द्रिय का अर्थ दिया गया है “unperceivable by external senses” तथा सूक्ष्म का अर्थ लिखा है कि “who is perceivable by subtle understanding only”
परन्तु बहलर और विलियम जोन्स ने इन्द्रियों का अर्थ समझे बिना “अंग अर्थात organs” के रूप में भाषांतरित कर दिया है.
हिन्दू धर्मग्रंथ बहुत अधिक शब्दजाल का शिकार हुए हैं. यदि भाषांतरण किसी भी हिन्दू ग्रन्थ का आप अंग्रेजी में पढ़ रहे हैं, तो उसका संस्कृत भी साथ में पढ़ना अनिवार्य है, एवं साथ ही किसी योग्य गुरु से ही उनका अर्थ समझा जाए तो ही बेहतर होगा. क्योंकि ऐसे भाषांतरण को पढ़कर ही लोग हिंदूधर्म पर किताबें लिखकर भाषांतरित पुस्तकों का संदर्भ देते हैं और अर्थ का अनर्थ और विस्तारित करते हैं!
*विश्लेषण भाषांतरण और शब्दों के आधार पर है
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मनुस्मृति के विरोधी एक दिन इतना मनुस्मृति-मनुस्मृति कर देंगे कि लोग इसे पढ़कर चर्चा करने लगेंगे, जो कि करनी भी चाहिए! जितना डराया जा रहा है, जब उसमें से डरने वाला बहुत कुछ नहीं निकलेगा, तो कई दुकानें बंद होंगी!
ग्रंथ से डरना कैसे, चर्चा होनी चाहिए!
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