Thursday, 26 February 2015

बुंदेलखंड:-3 बेतवा, लोकगीत

मदन चतुर्वेदी:-

बुंदेलखंड की गंगा है वेतवा नदी
वेतवा का उल्लेख कालिदास ने
मेघदूत में किया है-

तेषां दिक्षु प्रथित विदिशा लक्षणां राजधानीं
गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा।
तीरोपांत स्तनित सुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात्स
भ्रूभंगं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।

कालिदास का प्रवासी यक्ष अपने संदेशवाहक मित्र मेघ को रास्ते की जानकारी देते हुए कहता है - हे मित्र! जब तू इस दशार्ण देश की राजधानी विदिशा में पहुँचेगा, तो तुझे वहाँ विलास की सब सामग्री मिल जाएगी। जब तू वहाँ सुहानी और मनभावनी नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती के तट पर गर्जन करके उसका मीठा जल पीएगा, तब तुझे ऐसा लगेगा कि मानो तू किसी कँटीली भौहों वाली कामिनी के ओठों का रस पी रहा है।

बेतवा का ही पुराना नाम है 'वेत्रवती' और संस्कृत में 'वेत्र' का अर्थ बेंत है। कालिदास का यह वर्णन किसी हद तक आज भी सही लगता है। प्रदूषण का दानव अभी बेतवा पर वैसा कब्जा नहीं जमा सका है, जैसा उसने अपने किनारे महानगर बसा चुकी नदियों पर जमा लिया है। इसके सौंदर्य की प्रशंसा बाणभट्ट ने भी कादंबरी में की है। वैसे वराह पुराण में इसी वेत्रवती को वरुण की पत्नी और राक्षस वेत्रासुर की माँ बताया गया है। शायद इसीलिए इसमें दैवी और दानवीय दोनों शक्तियाँ समाहित हैं। गंगा, यमुना, मंदाकिनी आदि पवित्र नदियों की तरह बेतवा के तट पर भी रोज शाम को आरती होती है

शिशुपाल चंदेरी का राजा था जिसकी मोत पर यहाँ के ठाकुर कृष्न से बैर बांध गए थे
चूँकि उनका बिगाड़ तो कुछ नहीं सकते थे तो उनको बेज्जित्त करने को उनका सर की पहचान मोरपंख को जूतों की नोक पर लगाने लगे थे कालान्तर मे ये फेसन बसन गया

इस सम्बन्ध मे एक लोकगीत सुनो

इतै कृष्ण रणछोड़ कहाए ढुकत फिरै ओली में।
 मिश्री सी है घुरै इतै की बुन्देली बोली में।।
त्रेता को औतार डांग में पर्ण कुटी सिंगारै।
वीर भूमि बुन्देलखण्ड को सबरो देश निहारे।।
चन्देरी शिशुपाल से कृष्णचन्द्र की ठनी रही,
 भले प्रान की हानि हो गयी। आन शान की बनी रही,
झब्बूदार पनइया देखों जिसकी मुकुट निशानी में,
बुन्देलों की सुनो कहानी, बुन्देलों की बानी में,

पानी दार यहां का पानी, आग यहां के पानी में
 बुन्देलों की सुनो कहानी...

चम्बल केन यमुना के तीर, नर्मदा वेत्रवती के नीर।
विन्ध्य घाटी की स्वस्थ समीर, हमें ई जान से प्यारी है।
मातृभूमि बुन्देलखण्ड भगवान से प्यारी है।
धूल इन खोरन की,
है काजल कोरन की

बुंदेलखंड:-2 मातृकाएँ ,हरदौल

मदन चतुर्वेदी :-
मातृका-पूजन
शास्रों में गौर्यादि षोडशमात्रिका, सप्तधृत मातृका का उल्लेख आता है, मांगलिक असर पर इनके आवाहन पूजन के मन्त्र भी हैं जिनसे इनकी पूजा की जाती है। बुन्देलखण्ड में स्रियाँ किसी भी स्थान पर पुतलियों के चित्र बनाकर इनकी पूजा करती है। इसे माय पूजा कहा जाता है। माँगलिक अवसर पर कल्याण प्राप्ति और कार्य की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए कहीं गोबर तो कहीं मिट्टी अथवा शक्कर की पुतलियां बनाकर उनकी प्रतिष्ठा और पूजा की जाती है। विवाह आदि कार्य सम्पन्न हो जाने पर इन्हें विदा किया जाता है। कुल देवता और मातृका को मिला कर माय -बाबू की पूजा कहा जाता है अथवा निषेधपरक अर्थ में देवी-बाबू भी कहा जाता है। सहयोग के लिए कहा जाता है - हमारे उनके माय-बाबू एक ही है। असहयोग के लिए कहा जाता है - हमारे उनके देवी-बाबू अलग अलग हैं।
इस प्रकार बुन्देलखण्ड में आस्था और विश्वास के प्रतीक पशुपति कारसदेव के रुप में पूजित हैं तो कुल देवता और मातृका मायंबाबू के रुप में पूज्य है।
हरदौल
ओरछा नरेश वीरसिंह देव बुंदेला के सबसे छोटे पुत्र हरदौल का जन्म सावन शुक्ल पूर्णिमा सम्बत १६६५ दिनांक २७ जुलाई १६०८ को दतिया में हुआ था। जिस समय हरदौल का जन्म हुआ था उस समय दतिया में पुराना महल, किला आदि इमारतों का निर्माण नहीं हुआ था। रामशाह के शासन काल में बडोनी की जागीर वीरसिंह देव की थी तथा दतिया का इलाका रामशाह के बड़े लड़के संग्रामसिंह की जागीर में शामिल था। सन १५९५ में संग्रामसिंह की मृत्यु हो जाने के बाद उनका लड़का भरतशाह दतिया का जागीरदार हुआ। उसने दतिया नगर के उत्तर में स्थित एक पहाडी पर भरतगढ़ का निर्माण कराया जिसे बाद में वीरसिंह देव ने हस्तगत कर अपना निवास बना लिया था, इसी भरतगढ़ में हरदौल का जन्म हुआ था। हरदौल की माता का नाम गुमान कुंअरी था, जो वीरसिंह देव की दूसरी रानी थीं। हरदौल के जन्म कुछ दिनों के बाद उनकी माता का स्वर्गवास हो गया था। उनका पालन पोषण वीरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र जुझारसिंह की पत्नी चम्पावती ने किया। सन १६२८ में हरदौल का विवाह दुर्गापुर (दतिया) के दिमान लाखनसिंह परमार की बेटी हिमांचलकुंअरी के साथ हुआ। सन १६३० में उनके एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम विजयसिंह था।सन १६०७ में ओरछा के तत्कालीन राजा रामशाह आगरा में जहांगीर की कैद में थे । सन १६०८ में जहांगीर ने उन्हें इस शर्त पर आजाद किया था कि वे ओरछा का राज्य वीरसिंह को देकर चंदेरी-बानपुर चले जायेंगे।
ओरछा का राज्य मिल जाने पर वीरसिंह देव ने हरदौल को एक सनद दी जिसमें उन्हें एरच का जागीरदार बनाया गया था। यह सनद राजा के रूप में उनकी पहली सनद थी। इस घटना की स्मृति में बुंदेलखंड की महिलायें आज भी यह लोकगीत गातीं हैं:-
दतिया के लला हरदौल, बुन्देला राजा एरच के।

बुंदेलखंड:-1 विप्र शाखा, हरदौल, कुलदेवता

मदन चतुर्वेदी की कलम से :-
दोस्तों कुछ अपने बुंदेलखंड के बारे में भी जाने
भारत में और खास तोर पर बुंदेलखंड में मुसलमानों के अत्याचार से एक ऐसा समय आया की हिन्दु वर्णाश्रम में ब्राह्मणों की व्यवस्था प्राय: अपदस्थ हो गई। समस्त ब्राह्मणों के दो वर्ग सारे देश में हो गए - उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के लिए पंच गौड़ और दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के निमित्त पंच द्रविड़ वर्ग। पंच गौड़ - सास्वत, गोर, कान्यकुब्ज, मैथिल और उत्कल; पंच द्रविड़   - महाराष्ट्र, तैलंग या आंध्र, द्रविड़ या तमिल, कर्नाटक तथा  बीच की विभाजन रेखा नर्मदा नदी मानी जाती है। पंच गौड़ के अन्दर अनेक उपजातियाँ भी मानी जाती हैं जिनमें एक दूसरे से श्रेष्ठता की प्रतिस्पर्धा अभी तक बनी हुई है। बुंदेलखंड में अधिकांशत: जिझौतिया ब्राह्मण ही मुख्य रहै हैं।
कान्यकुब्ज, सरयूपारीण सना और अन्य ब्राह्मण के वर्ग एक शताब्दी से पूर्व यहाँ नहीं थे। प्रारंभ में इनका कार्य मंदीरों में पूजा करना और शासकों का मंत्री होना था बाद में इन्हें जागीर और सनदें मिली तो ये कृषि, नौकरी आदि में भी प्रवृत हो गए। ब्राह्मणों को मूलस्थान के आधार पर संज्ञायें दी गई हैं। बुंदेलखंड में इनकी उपजातियाँ अहिवासी, जिझोतिया, कनौजिया, खेड़ावाल, मालवी, नागर, नार्मदेव, सनाढ्य, सरबरिया और उत्कल की पाई जाती है। विप्र, द्विज, बाँमन श्रोत्रिय महाराज आदि विशेषण इनके साथ जोड़े जाते हैं। पूर्व और उत्तर में ब्राह्मण मास भक्षण करते हैं पश्चिम में वे मसक का पानी पीते हैं परंतु बुंदेलखंड में इसका चलन नहीं है। एक ब्राह्मण दूसरे के यहाँ पक्की रसोई खाता है। इनके कुछ गुणों की जहाँ प्रशंसा होती है वहीं पर इनके संबंध मे जनश्रुतियां भी है –

(१)     विप्र परौसी अजय धन, बिटियन कौ दरबार। एते पै धन न घटे पीपर राखौ दुआर।।

(२)     विप्र वैद नाऊ नृपति स्वान सौत  मंजार। जहाँ जहाँ जे जुरत है तहँ तहँ राखौ बिगार।।
(३)     करिया वामन, गोर चमार, इनके साथ न उतरियो पाऱ

कुलदेवता
बुन्देलखण्ड में कुलदेवता की पूजा को बाबू की पूजा कहा जाता है। यहां प्रत्येक जाति और वर्ग में भिन्न-भिन्न तिथियों में बाबू की पूजा की जाती है। किसी के यहां माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यह पूजा संपन्न होती है तो किसी के यहां मार्गशीर्ष द्वितीया अथवा फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वितीया को। परिवार में किसी पुरुष का विवाह होने पर जब नव वधू घर में जाती है तो उस अवसर पर बिना किसी तिथी का विचार किए बाबू की पूजा की जाती है। यह एक प्रकार से अन्य कुल से आने वाली वधू का स्वकुल में लेना कहा जा सकता है। इस पूजा में केवल वही लोग सम्मिलित किए जाते हैं जो स्वगोत्र होते हैं, यहाँ यहाँ तक की अपनी लड़की तक को इसमें सम्मिलित नहीं करते, न बाबू की पूजा का प्रसाद ही किसी अन्य को दिया जाता है।

बुन्देलखण्ड में सर्वाध्कि समावृत और पूज्य हरदौल का स्मरण यहाँ के प्रत्येक परिवार में विवाह के अवसर पर अवश्य किया जाता है, उन्हें आमंत्रित किया जाता है। गांव-गांव में उनके चबूतरे बने हुए हैं। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। यहां उस दिन सभी देवी-देवताओं को पूजने का प्रचलन बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है। उस दिन हरदौल की भी पूजा की जाती है। हरदौल औरछा नरेश वीरसिंह देव बुन्देला के पुत्र थे। इनके बड़े भाई जुझार सिंह जब ओरछा की गद्दी पर आसीन हुए तो राज्य का सारा काम उनके छोटे भाई हरदौल ही देखा करते थे। वे उस समय के अप्रतिम वीर, सच्चरित्र तथा न्यायपरायण व्यक्ति थे। बुन्देलखण्ड में राजा के छोटे भाई को दीवान कहा जाता है। दीवान हरदौल की इस कीर्ति से जलकर किसी चुगलखोर ने राजा जुझार सिंह से शिकायत की कि दीवान हरदौल के रानी से अनुचित सम्बन्ध हैं। राजा को चुगलखोर की यह बात सच प्रतीत हुई। वास्तव में विनाशकाले विपरीत बुद्धि हो ही जाती है। इन्होंने अपनी रानी को आदेश दिया कि वह अपने को निर्दोष प्रमाणित करने के लिए हरदौल को अपने हाथ से विषाक्त भोजन का थाल प्रस्तुत करे। नारी के सतीत्व और गरिमा के कोमल तन्तु कितने क्षीण होते हैं कि सन्देह के श्वास से ही छिन्न-भिन्न होने लगते हैं पर हरदौल तो लक्ष्मण के समान अपनी मातृ स्वरुपा भावज के लिए सदा से ही नित्य पादाभिवन्दन के समय नूपुरों से ऊपर कभी उनकी दृष्टि गई ही नहीं, उठी ही नहीं। अतः उन्होंने अपनी भावज को निर्दोष प्रमाणित करने के लिए हलाहल का पान कर प्राणोत्सर्ग किया। वे मानव की कोटि से ऊपर उठकर देवकोटि में प्रतिष्ठित हुए। उनके साथ उनके अनुचर मेहतर ने भी प्रतिदिन की भांति उस दिन भी उनके जूठे प्रसाद को पाकर अमरत्व और देवत्व प्राप्त किया। जहाँ जहाँ हरदौल के चबूतरे बने हैं, उसके समीप ही मेहतर बाबा का छोटा चबूतरा भी पूज्य बन गया है। इस प्रकार बुन्देलखण्ड में ही समता का वह चरम उत्कर्ष देखने को मलता है कि जहां श्वपच भी वन्दनीय हैं, देवत्य को प्राप्त हैं। यहां कहा जाता है कि हरदौल ने अपनी बहिन कुंजाबाई की पुत्री के विवाह के समय अदृष्ट रहकर भात दिया था। विवाह के समय मामा की ओर से जो सामग्री अन्न-वस्र आदि दिये जाते हैं। उन्हें यहाँ लोकभाषा में "भात' देना कहते हैं। यह किंवदन्ती कहाँ तक सच है, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर आज से चालीस वर्ष पूर्व जब सेंवढ़ा से लेकर दतिया तक महामारी का प्रचण्ड प्रकोप हुआ था जिसमें प्रतिदिन र्तृकड़ों व्यक्ति मर रहे थें, परिवार के परिवार उजड़ गये थे, लाशों को ठिकाने लगाने के लिए लोग नहीं मिलते थे, उस समय सेंवढ़ा के अनेक परिवार उस विनाश लीला से बचने के लिए सेंवढ़ा से जाकर महल-बाग के पास बने हरदौल के चबूतरे के आस-पास खुले आसमान के नीचे बिताने को विवश हो गये थे। विज्ञान का यह सत्य उस समय धूमिल पड़ गया था कि हैजा संक्रामक रोग है। हरदौल के चबूतरे के आसपास शरण लेने वाले एक भी व्यक्ति को हैजा नहीं हुआ जबकि अन्य मुहल्ले के लोग मरते रहे और उन्हीं में से भागकर लोग वहां शरण ले रहे थे।

Friday, 20 February 2015

हिंदी हैं हम वतन है

हिन्दी क्यों
अक्सर जब हम देशप्रेम या साहित्य सेवा की बात करते है तो अंग्रेजी में बोलते हैं और समझते हैं कि बहुत अच्छा और बडा काम कर रहे हैं। हमारे देश के बुध्दिजीवी कहते हैं कि हिन्दी भाषा विचारों को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं है और इसलिये इसका व्यापक उपयोग नहीं हो सकता। इस बयान से उनकी हीनभावना और अशिक्षा ही झलकती है। किसी भी भाषा का कितना अच्छा और व्यापक प्रयोग हो सकता है यह उस भाषा पर नही उस भाषा के जानने वाले पर निर्भर करता है। अगर हम अपनी राष्ट्रभाषा पढ लिख समझ कर उसका व्यापक उपयोग नहीं कर सकते तो यह भाषा का नहीं हमारा दोष है।

विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी तीसरे स्थान पर है फ़िर भी साहित्यिक और शैक्षिक के महत्व में इसका स्थान फ्रेंच ज़र्मन और जापानी भाषाओं से बहुत नीचे है जिनके बोलने वाले हिन्दी की तुलना में बहुत कम हैं।

हिन्दी भारत नेपाल इन्डोनेशिया मलेशिया सूरीनाम फ़िज़ी ग़ुयाना मारिशस ट्रिनिडाड टोबेगो और अरब अमीरात जैसे अनेक देशों में बोली जाती है फिर भी विडम्बना यह है कि आज तक इसे अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है।इसका प्रमुख कारण भारतीयों में संकल्प की कमी है। अगर हम अपनी भाषा को अपने ही घर में नहीं बोल सकते तो इसे विश्व भाषा का दर्जा क्या दिलवायेंगे।

इस संदर्भ में हम फ्रांसीसी लोगों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। वे अपनी मातृभाषा से प्रेम करते हैं और बडी मेहनत से विश्व भर में उसका प्रचार करते हैं। उनके यहां फ्रेंच के विकास के लिये एक मंत्री अलग से होता है जिसे फ्रांकोफान मिनिस्टर कहते हैं।

अंग्रेजी क़ो ही लीजिये लगभग हर देश में अंग्रेजी दूतावास के साथ अग्रेजी शिक्षा का प्रचार विभाग होता है। हमारे विदेशी दूतावासों में ऐसे कितने हिन्दी प्रचार विभाग हैंॠ क्यों हम अपनी भाषा के विकास में उनका अनुकरण नहीं करते ॠ

हम इजराइल जैसे छोटे और नये देश को देखें। 1948 में जब वह स्वतंत्र हुआ था वहां उनकी मातृभाषा हीब्रू के जानने वाले बहुत कम थे। उन्होंने एक सुनियोजित कार्यक्रम के तहत काम करना शुरू किया और 1995 तक उन्होंने अपनी भाषा का इतना विकास कर लिया कि उच्च शिक्षा तक में इसका प्रयोग हो सके।

इसी प्रकार 1960 में रूस में दो भाषा सम्प्रदाय थे। एक पर पाश्चत्य प्रभाव था और दूसरी पर स्थानीय स्लोवानिक शब्दों और भाषा रचना का। स्लोवानिक सम्प्रदाय की संरचना कठिन थी और उसका प्रयोग कम होने के कारण उसके जानने वाले कम थे। लेकिन रूस ने एक शिक्षा आन्दोलन चला कर इस समस्या को सुलझा लिया। हमें इससे सीख लेनी चाहिये।

आज तक हम अपने देश में हिन्दी में उच्च शिक्षा का प्रबन्ध नही कर सके हैं।हमारे गांवों के बच्चे आज भी मेडिकल कालेजों और इंजिनियरिंग कालेजों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना नहीं देख सकते हैं क्यों इनमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है।इस प्रकार न केवल हम अपने देश की जनता के एक बडे वर्ग को उच्च शिक्षित होने से रोकते हैं बल्कि अपने देश की उन्नति में बाधा भी खडी क़रते हैं। चीन फ़्रांस ज़र्मनी आदि देशों के विकास का करण यह है कि उनके देश में शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषा है।उनके देश के विद्यार्थियों को अपना बहुमूल्य समय और मानसिक शक्ति एक विदेशी भाषा सीखने में व्यय नहीं करनी पडती।

विख्यात वैज्ञानिक जयन्त नारलीकर जिन्होंने हिन्दी में अनेक उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं का मानना है कि ''वैज्ञानिक शोध में एक स्थिति वह आती है जब विदेशी भाषा अपर्याप्त साबित होती है। तब हमें मातृभाषा को ही अपनाना पडता है।'' सच तो यह है कि ऐसे समाज में जहां भाषा और विज्ञान का आपसी संबंध प्रगाढ न हो विज्ञान में मौलिकता का विकास हो ही नहीं सकता।रूस चीन ज़ापान फ़्रांस और जर्मनी आदि देशों ने अपनी मातृभाषा और वैज्ञानिक विकास के बीच एक क्रमबध्द तालमेल विकसित किया जिसके कारण इन देशों का तेजी से विकास हुआ।हिन्दी में हमें इसी तरह के एक विकास आन्दोलन की आवश्यकता है।

हिन्दी के सिर पर पैर रख कर अंग्रेजी क़ी वकालत करने में हमें शर्म आनी चाहिये।टी वी फ़िल्म रेडियो और समाचार पत्रों से हिन्दी को विश्व में अच्छा सम्मान मिला है लेकिन यह देख कर दुख होता है कि इन प्रचार माध्यमों के लोकप्रिय सितारे साक्षात्कार के समय अक्सर अंग्रजी ही बोलते हैं।

कुछ लोगों का तर्क है कि नौकरी के लिये अंग्रेजी ज़ानना बहुत जरूरी है और इसलिये इसे बिहार में दूसरी अनिवार्य भाषा का दर्जा दे दिया गया है। यह एक हास्यास्पद बात है। एक आकलन के अनुसार 5 प्रतिशत पहले दर्जे की नौकरियों और 15 प्रतिशत दूसरे दर्जे की नौकरियों को छोड दें तो तीसरे और चौथे दर्जे की 80 प्रतिशत नौकरियों के लिये के लिये अंग्रेजी जानने की कोई जरूरत नहीं है। यहां यह गंभीरता से सोचने की बात है कि अंग्रेजी क़े कारण सेकेन्ड्री परीक्षा में फेल होने वाले सभी छात्र इन तीसरे और चौथे दर्जे की नौकरियों के लिये भी अनुपयुक्त हो जायेंगे। इनके लिये हम नौकरियां कहां से लायेंगे। क्या अंग्रेजी को इतना महत्व देकर हम अपने देश में बेरोजग़ारी नहीं बढा रहे हैं।

भाषा केवल शिक्षा का माध्यम ही नहीं होती यह संस्कृति का माध्यम भी होती है। अंग्रेजी क़ा अंधानुकरण हमें असंगत जीवन शैली और मूल्यों की ओर ले जाता है । इस प्रकार हम सांस्कृतिक सम्राज्यवाद का सीधा शिकार होते हैं।जिन भारतीय मूल्यों के लिये शहीदों ने प्राणों की बाजी लगा कर स्वराज हमे सौपा था आज विदेशी भाषा और संस्कृति के प्रेम में वे भारतीय मूल्य हम फिर खतरे में डाल रहे हैं।

हमें कीनिया के उपन्यासकार नागुगी वा थवांगो का अनुकरण करना चाहिये जिन्होने अंग्रेजी में लिखना बंद कर के गिकुमु और स्वाहिली जैसी अफ्रीकी भाषाओं में लिखना शुरू कर दिया है। उनका कहना है ''एक लेखक का यह मानना कि यूरोपीय भाषा के बिना अफ्रीका नहीं चल सकता उसी प्रकार है जैसे एक राजनीतिज्ञ कहे कि बिना विदेशी शासन के अफ्रीक़ा नहीं चल सकता।''

हिन्दी हर प्रकार से एक सशक्त और सम्पन्न भाषा है। हमे भारत के विकास के लिये भारतीय संस्कृति के विकास के लिये और हमारे सांस्कृतिक मूल्यों के विकास के लिये हिन्दी बोलने लिखने पढने और इसका प्रत्येक क्षेत्र में विकास करने की आवश्यकता है।

अक्सर जब हम देशप्रेम या साहित्य सेवा की बात करते है तो अंग्रेजी में बोलते हैं और समझते हैं कि बहुत अच्छा और बडा काम कर रहे हैं। हमारे देश के बुध्दिजीवी कहते हैं कि हिन्दी भाषा विचारों को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं है और इसलिये इसका व्यापक उपयोग नहीं हो सकता। इस बयान से उनकी हीनभावना और अशिक्षा ही झलकती है। किसी भी भाषा का कितना अच्छा और व्यापक प्रयोग हो सकता है यह उस भाषा पर नही उस भाषा के जानने वाले पर निर्भर करता है। अगर हम अपनी राष्ट्रभाषा पढ लिख समझ कर उसका व्यापक उपयोग नहीं कर सकते तो यह भाषा का नहीं हमारा दोष है।

विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी तीसरे स्थान पर है फ़िर भी साहित्यिक और शैक्षिक के महत्व में इसका स्थान फ्रेंच ज़र्मन और जापानी भाषाओं से बहुत नीचे है जिनके बोलने वाले हिन्दी की तुलना में बहुत कम हैं।

हिन्दी भारत नेपाल इन्डोनेशिया मलेशिया सूरीनाम फ़िज़ी ग़ुयाना मारिशस ट्रिनिडाड टोबेगो और अरब अमीरात जैसे अनेक देशों में बोली जाती है फिर भी विडम्बना यह है कि आज तक इसे अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है।इसका प्रमुख कारण भारतीयों में संकल्प की कमी है। अगर हम अपनी भाषा को अपने ही घर में नहीं बोल सकते तो इसे विश्व भाषा का दर्जा क्या दिलवायेंगे।

इस संदर्भ में हम फ्रांसीसी लोगों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। वे अपनी मातृभाषा से प्रेम करते हैं और बडी मेहनत से विश्व भर में उसका प्रचार करते हैं। उनके यहां फ्रेंच के विकास के लिये एक मंत्री अलग से होता है जिसे फ्रांकोफान मिनिस्टर कहते हैं।

अंग्रेजी क़ो ही लीजिये लगभग हर देश में अंग्रेजी दूतावास के साथ अग्रेजी शिक्षा का प्रचार विभाग होता है। हमारे विदेशी दूतावासों में ऐसे कितने हिन्दी प्रचार विभाग हैंॠ क्यों हम अपनी भाषा के विकास में उनका अनुकरण नहीं करते ॠ

हम इजराइल जैसे छोटे और नये देश को देखें। 1948 में जब वह स्वतंत्र हुआ था वहां उनकी मातृभाषा हीब्रू के जानने वाले बहुत कम थे। उन्होंने एक सुनियोजित कार्यक्रम के तहत काम करना शुरू किया और 1995 तक उन्होंने अपनी भाषा का इतना विकास कर लिया कि उच्च शिक्षा तक में इसका प्रयोग हो सके।

इसी प्रकार 1960 में रूस में दो भाषा सम्प्रदाय थे। एक पर पाश्चत्य प्रभाव था और दूसरी पर स्थानीय स्लोवानिक शब्दों और भाषा रचना का। स्लोवानिक सम्प्रदाय की संरचना कठिन थी और उसका प्रयोग कम होने के कारण उसके जानने वाले कम थे। लेकिन रूस ने एक शिक्षा आन्दोलन चला कर इस समस्या को सुलझा लिया। हमें इससे सीख लेनी चाहिये।

आज तक हम अपने देश में हिन्दी में उच्च शिक्षा का प्रबन्ध नही कर सके हैं।हमारे गांवों के बच्चे आज भी मेडिकल कालेजों और इंजिनियरिंग कालेजों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना नहीं देख सकते हैं क्यों इनमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है।इस प्रकार न केवल हम अपने देश की जनता के एक बडे वर्ग को उच्च शिक्षित होने से रोकते हैं बल्कि अपने देश की उन्नति में बाधा भी खडी क़रते हैं। चीन फ़्रांस ज़र्मनी आदि देशों के विकास का करण यह है कि उनके देश में शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषा है।उनके देश के विद्यार्थियों को अपना बहुमूल्य समय और मानसिक शक्ति एक विदेशी भाषा सीखने में व्यय नहीं करनी पडती।

विख्यात वैज्ञानिक जयन्त नारलीकर जिन्होंने हिन्दी में अनेक उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं का मानना है कि ''वैज्ञानिक शोध में एक स्थिति वह आती है जब विदेशी भाषा अपर्याप्त साबित होती है। तब हमें मातृभाषा को ही अपनाना पडता है।'' सच तो यह है कि ऐसे समाज में जहां भाषा और विज्ञान का आपसी संबंध प्रगाढ न हो विज्ञान में मौलिकता का विकास हो ही नहीं सकता।रूस चीन ज़ापान फ़्रांस और जर्मनी आदि देशों ने अपनी मातृभाषा और वैज्ञानिक विकास के बीच एक क्रमबध्द तालमेल विकसित किया जिसके कारण इन देशों का तेजी से विकास हुआ।हिन्दी में हमें इसी तरह के एक विकास आन्दोलन की आवश्यकता है।

हिन्दी के सिर पर पैर रख कर अंग्रेजी क़ी वकालत करने में हमें शर्म आनी चाहिये।टी वी फ़िल्म रेडियो और समाचार पत्रों से हिन्दी को विश्व में अच्छा सम्मान मिला है लेकिन यह देख कर दुख होता है कि इन प्रचार माध्यमों के लोकप्रिय सितारे साक्षात्कार के समय अक्सर अंग्रजी ही बोलते हैं।

कुछ लोगों का तर्क है कि नौकरी के लिये अंग्रेजी ज़ानना बहुत जरूरी है और इसलिये इसे बिहार में दूसरी अनिवार्य भाषा का दर्जा दे दिया गया है। यह एक हास्यास्पद बात है। एक आकलन के अनुसार 5 प्रतिशत पहले दर्जे की नौकरियों और 15 प्रतिशत दूसरे दर्जे की नौकरियों को छोड दें तो तीसरे और चौथे दर्जे की 80 प्रतिशत नौकरियों के लिये के लिये अंग्रेजी जानने की कोई जरूरत नहीं है। यहां यह गंभीरता से सोचने की बात है कि अंग्रेजी क़े कारण सेकेन्ड्री परीक्षा में फेल होने वाले सभी छात्र इन तीसरे और चौथे दर्जे की नौकरियों के लिये भी अनुपयुक्त हो जायेंगे। इनके लिये हम नौकरियां कहां से लायेंगे। क्या अंग्रेजी को इतना महत्व देकर हम अपने देश में बेरोजग़ारी नहीं बढा रहे हैं।

भाषा केवल शिक्षा का माध्यम ही नहीं होती यह संस्कृति का माध्यम भी होती है। अंग्रेजी क़ा अंधानुकरण हमें असंगत जीवन शैली और मूल्यों की ओर ले जाता है । इस प्रकार हम सांस्कृतिक सम्राज्यवाद का सीधा शिकार होते हैं।जिन भारतीय मूल्यों के लिये शहीदों ने प्राणों की बाजी लगा कर स्वराज हमे सौपा था आज विदेशी भाषा और संस्कृति के प्रेम में वे भारतीय मूल्य हम फिर खतरे में डाल रहे हैं।

हमें कीनिया के उपन्यासकार नागुगी वा थवांगो का अनुकरण करना चाहिये जिन्होने अंग्रेजी में लिखना बंद कर के गिकुमु और स्वाहिली जैसी अफ्रीकी भाषाओं में लिखना शुरू कर दिया है। उनका कहना है ''एक लेखक का यह मानना कि यूरोपीय भाषा के बिना अफ्रीका नहीं चल सकता उसी प्रकार है जैसे एक राजनीतिज्ञ कहे कि बिना विदेशी शासन के अफ्रीक़ा नहीं चल सकता।''

हिन्दी हर प्रकार से एक सशक्त और सम्पन्न भाषा है। हमे भारत के विकास के लिये भारतीय संस्कृति के विकास के लिये और हमारे सांस्कृतिक मूल्यों के विकास के लिये हिन्दी बोलने लिखने पढने और इसका प्रत्येक क्षेत्र में विकास करने की आवश्यकता है।

Wednesday, 18 February 2015

कबीर के राम

बिनु हरी कृपा मिलहि नहि संता।।

एक कथा बरबस याद आ गयी: पंडित सर्वजीत काशी पधारे थे, कबीर को शास्त्रार्थ में पछा़ड़ने का संकल्प लेकर। बैल पर लदी पुस्तकों के रूप में अपना ज्ञान  साथ लेकर। कबीर की पुत्री कमाली से ही पूछ बैठे रास्ता कबीर के घर का। कमाली ने रास्ता तो बता दिया, लेकिन चुटकी लेने से न चूकी -

“ जन कबीर का सिखरि घर, बाट सलैली गैल; पाव न टिकै पिपीलिका, लोगन लादै बैल”।

सलैली गैल- रपटीली राह- की याद ठीक ही दिलाई कमाली ने। जहां चींटी तक के पांव टिकना मुश्किल हो, ऐसी राह पर अहंकार को बैल की पीठ पर लाद कर जो चले, उस ज्ञानी के लिए, कबीर के  ‘घर’— उनके भीतर-बाहर के अनभय अनुभव—की  राह रपटीली ही है। लेकिन जो इंसान ज्ञान का नाता अपने आस-पास, भीतर-बाहर के साथ जोड़ सके, ‘जग बौराना’ की खबर लेने के साथ-साथ ही, कुछ ‘आतमखबर’ भी रख सके,उसके लिए कबीर का तो क्या, कबीर के राम का घर भी सहज प्राप्य हो जाता है-‘सहज सुभाय मिले रामराइ’।
दोस्तों आपको बताऊ कबीर पहले शाक्त धर्म मे थे उनका एक पद इसकी पुष्टी करता है

थे वे जुलाहे परिवार के, शिष्य-संवादी बने वैष्णव साधक रामानंद के। शाक्तों से कबीर की चिढ़ शाक्त साधना से उनके गहरे परिचय का संकेत  करती है। ‘कबीर-परिचई’ (1590 के आस-पास) में स्पष्ट  हैं कि कबीर शुरू में शाक्त रहे थे-‘बहुत दिन साकत मैं गइया, अब हरि के गुन लै निरबहिया’।

मदन चतुर्वेदी

Tuesday, 17 February 2015

शिव रूप

मदन चतुर्वेदी की कलम से:-
गुल्लू भेया
भगवान शंकर को कैलाश वासी माना गया है
आप लोगों ने तिब्बती लोगों का रहन सहन देखा होगा तिब्बत में एक जानवर होता है याक ये लोग आज उसी जानवर पर पूरी तरह से आश्रित है याक गाय का दूध ये लोग उपयोग करते है उसकी खाल को कपडे के रूप में प्रयोग लाते है उसके ऊन से रस्सी बनाते है जो वेहद गठीली होती है उसको माल वाहक के रूप में भी उपयोग करते है उसी पर वैठकर ये लोग आवगमन करते है। चारों तरफ वर्फ होने से चेहरा एसा हो जाता है जैसे राख मसली हो चलने के लिये एक या दो नोक वाली लकडी लेना पडती है जिसको रोप रोप कर आगे चलना पडता है नही ंतो कहीं भी वर्फ मंे दव या फिसल सकते है पर्वतारोही की पहली जीवन रेखा होती है रस्सी ये लोग उसको आज भी गले में डाले रहते है।
अब आओ भगवान शंकर के पास जिसके भयंकर रूपक गुल्लू ने निकाल रखे है।
याक की वालो बाली खाल वाघम्बर हो गयी लकडी त्रिशूल हो गयी गले में लटकी रस्सी नाग हो गयी और याक वैल नंदी वैल हो गया और हां रस्सी फिसले नही इसलिये पर्वतारोही रस्सी में वीच वीच में गांठ लगा लेते थे जिससे उसके सहारे चढने पर एक गांठ में पैर फसा कर सहारा देते थे और हाथ के पास वाली गांठ मजबूती देती थी उसे गले में डालने की कल्पना करो तो ये मुण्डमाल लगेगी शंकर कोई अंगुली मार नहीं थे जो मुण्डमाल गले में डालें तो गुल्लू भगवान शिव का यही रूप था उसको गहराई से जैसे चाहे समझते रहो और एक वात ़िऋषकेश  को आज भी शिव की ससुराल माना जाता है और भइया गुल्लू भगवान शिव एवं पार्वती की शादी पहली लव मैरिज थी जिसका प्रजापति दक्ष ने पुरजोर विरोध किया था पर पार्वती द्वारा खाना पीना छोडने से मैना ने जो उनकी मां थी मना लिया था ये फिर कभी ये बहुत रोचक एवं लम्बी कहानी है।

एकांत

भगवान रजनीश_----
जब भी एकांत होता है, तो हम अकेलेपन को एकांत समझ लेते हैं। और तब हम तत्काल अपने अकेलेपन को भरने के लिए कोई उपाय कर लेते हैं। पिक्चर देखने चले जाते हैं, कि रेडियो खोल लेते हैं, कि अखबार पढ़ने लगते हैं। कुछ नहीं सूझता, तो सो जाते हैं, सपने देखने लगते हैं। मगर अपने अकेलेपन को जल्दी से भर लेते हैं। ध्यान रहे, अकेलापन सदा उदासी लाता है, एकांत आनंद लाता है। वे उनके लक्षण हैं। अगर आप घड़ीभर एकांत में रह जाएं, तो आपका रोआं-रोआं आनंद की पुलक से भर जाएगा। और आप घड़ी भर अकेलेपन में रह जाएं, तो आपका रोआं-रोआं थका और उदास, और कुम्हलाए हुए पत्तों की तरह आप झुक जाएंगे। अकेलेपन में उदासी पकड़ती है, क्योंकि अकेलेपन में दूसरों की याद आती है। और एकांत में आनंद आ जाता है, क्योंकि एकांत में प्रभु से मिलन होता है। वही आनंद है, और कोई आनंद नहीं है।
मदन चतुर्वेदी

Monday, 16 February 2015

तुलसीदास के राम

मदन चतुर्वेदी की कलम से :-
गोस्वामी जी की साहित्यिक जीवनी के आधार पर कहा जा सकता है कि वे आजन्म वही रामगुण -गायक बने रहे जो वे बाल्यकाल में थे। इस रामगुण गान का सर्वोत्कृष्ट रुप में अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें संस्कृत-साहित्य का अगाध पांडित्य प्राप्त करना पड़ा। रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी और रामाज्ञा-प्रश्न इत्यादि रचनाएं उनकी प्रतिभा के प्रभातकाल की सूचना देती हैं। इसके अनंतर उनकी प्रतिभा रामचरितमानस के रचनाकाल तक पूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त कर ज्योतिर्मान हो उठी। उनके जीवन का वह व्यावहारिक ज्ञान, उनका वह कला-प्रदर्शन का पांडित्य जो मानस, गीतावली, कवितावली, दोहावली और विनयपत्रिका आदि में परिलक्षित होता है, वह अविकसित काल की रचनाओं में नहीं है।

उनके चरित्र की सर्वप्रधान विशेषता है उनकी रामोपासना।

    धरम के सेतु जग मंगल के हेतु भूमि ।
    भार हरिबो को अवतार लियो नर को ।
    नीति और प्रतीत-प्रीति-पाल चालि प्रभु मान,
    लोक-वेद राखिबे को पन रघुबर को ।।

            (कवितावली, उत्तर, छंद० ११२)

काशी-वासियों के तरह-तरह के उत्पीड़न को सहते हुए भी वे अपने लक्ष्य से भ्रष्ट नहीं हुए। उन्होंने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए अपनी निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता का संबल लेकर वे कालांतर में एक सिद्ध साधक का स्थान प्राप्त किया।

गोस्वामी तुलसीदास प्रकृत्या एक क्रांतदर्शी कवि थे। उन्हें युग-द्रष्टा की उपाधि से भी विभूषित किया जाना चाहिए था। उन्होंने तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश को खुली आंखों देखा था और अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर उसके संबंध में अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। वे सूरदास, नन्ददास आदि कृष्णभक्तों की भांति जन-सामान्य से संबंध-विच्छेद करके एकमात्र आराध्य में ही लौलीन रहने वाले व्यक्ति नहीं कहे जा सकते बल्कि उन्होंने देखा कि तत्कालीन समाज प्राचीन सनातन परंपराओं को भंग करके पतन की ओर बढ़ा जा रहा है। शासकों द्वारा सतत शोषित दुर्भिक्ष की ज्वाला से दग्ध प्रजा की आर्थिक और सामाजिक स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में पहुंच गई है -

    खेती न किसान को,
    भिखारी को न भीख, बलि,
    वनिक को बनिज न,
    चाकर को चाकरी ।
    जीविका विहीन लोग
    सीद्यमान सोच बस,
    कहैं एक एकन सों
    कहाँ जाई, का करी ।।

समाज के सभी वर्गअपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़कर आजीविका-विहीन हो गए हैं। शासकीय शोषण के अतिरिक्त भीषण महामारी, अकाल, दुर्भिक्ष आदि का प्रकोप भी अत्यंत उपद्रवकारी है। काशीवासियों की तत्कालीन समस्या को लेकर यह लिखा -

    संकर-सहर-सर, नारि-नर बारि बर,
    विकल सकल महामारी मांजामई है ।
    उछरत उतरात हहरात मरि जात,
    भभरि भगात, थल-जल मीचुमई है ।।

उन्होंने तत्कालीन राजा को चोर और लुटेरा कहा -

    गोड़ गँवार नृपाल महि,
    यमन महा महिपाल ।
    साम न दाम न भेद कलि,
    केवल दंड कराल ।।

साधुओं का उत्पीड़न और खलों का उत्कर्ष बड़ा ही विडंबनामूलक था -

    वेद धर्म दूरि गये,
    भूमि चोर भूप भये,
    साधु सीद्यमान,
    जान रीति पाप पीन की।

उस समय की सामाजिक अस्त-व्यस्तता का यदि संक्षिप्ततम चित्र -

    प्रजा पतित पाखंड पाप रत,
    अपने अपने रंग रई है ।
    साहिति सत्य सुरीति गई घटि,
    बढ़ी कुरीति कपट कलई है।
    सीदति साधु, साधुता सोचति,
    खल बिलसत हुलसत खलई है ।।

उन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से लोकाराधन, लोकरंजन और लोकसुधार का प्रयास किया और रामलीला का सूत्रपात करके इस दिशा में अपेक्षाकृत और भी ठोस कदम उठाया। गोस्वामी जी का सम्मान उनके जीवन-काल में इतना व्यापक हुआ कि अब्दुर्रहीम खानखाना एवं टोडरमल जैसे अकबरी दरबार के नवरत्न, मधुसूदन सरस्वती जैसे अग्रगण्य शैव साधक, नाभादास जैसे भक्त कवि आदि अनेक समसामयिक विभूतियों ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उनके द्वारा प्रचारित राम और हनुमान की भक्ति भावना का भी व्यापक प्रचार उनके जीवन-काल
में ही हो चुका था।

स्वर्ग और नर्क

यूरोप का एक बहुत बड़ा विचारक हुआ, एडमंड बर्क। वह रोज सुनने जाता था एक पादरी को। पादरी ने एक दिन चर्च में कहा कि जो लोग पुण्यात्मा हैं और परमात्मा में भरोसा करते हैं, वे स्वर्ग जाते हैं। एडमंड बर्क खड़ा हो गया। उसने कहा, मुझे एक बात पूछनी है। आपने दो बातें कहीं, कि जो लोग पुण्यात्मा हैं, और परमात्मा में भरोसा करते हैं, वे स्वर्ग जाते हैं। मैं पूछता हूं कि जो लोग पुण्यात्मा हैं और परमात्मा में भरोसा नहीं करते, वे कहा जाते हैं? और मैं यह भी पूछना चाहता हूं कि जो परमात्मा में भरोसा करते हैं और पुण्यात्मा नहीं हैं, वे कहा जाते हैं?

एडमंड बर्क की जिज्ञासा एकदम प्रामाणिक थी। पादरी भी ठगा सा रह गया। अब क्या कहे? उसे बड़ी उलझन हो गयी। अगर वह कहे कि जो लोग पुण्यात्मा हैं और परमात्मा में भरोसा नहीं करते, वे भी स्वर्ग जाते हैं; तो स्वभावत: बर्क कहेगा, फिर परमात्मा में भरोसे की जरूरत क्या है? पुण्य ही काफी है। और अगर मैं कहूं कि जो लोग पुण्यात्मा हैं और परमात्मा में भरोसा नहीं करते, वे स्वर्ग नहीं जाते; तो बर्क कहेगा, तो फिर पुण्य की झंझट में पड़ने की क्या जरूरत? परमात्मा’ में भरोसा काफी है। पादरी ने कहा, मुझे तुमने उलझन में डाल दिया। थोड़ा मुझे सोचने का समय दो; कल।

रातभर पादरी सो न सका। आदमी निष्ठावान रहा होगा। चालाक नहीं, बुद्धिमान रहा होगा। बहुत सोचा, लेकिन उलझन न हल हुई। सुबह-सुबह, भोर होते-होते, रातभर का जागा सोचता-सोचता नींद लग गयी। नींद में उसने एक सपना देखा कि वह एक ट्रेन में बैठा है। उसने लोगों से पूछा, यह ट्रेन कहा जा रही है? उन्होंने कहा, यह स्वर्ग जा रही है। उसने कहा, चलो अच्छा हुआ! यही तो मुझे पूछना था। यह अच्छा ही हुआ, आख से ही देख लूंगा। तो उसने सोच रखे नाम मन में-जैसे सुकरात; परमात्मा में भरोसा नहीं करता था, आदमी पुण्यात्मा था। जैसे बुद्ध; इससे और पुण्य की ‘साकार प्रतिमा कहा पाओगे? लेकिन आदमी परमात्मा में भरोसा नहीं करता था। तो उसने कहा, ठीक है, अगर ये बुद्ध और ये सुकरात स्वर्ग में मिल गए तो उत्तर साफ हो जाता है, कि परमात्मा में भरोसे की जरूरत नहीं। अगर ये स्वर्ग में न मिले, तो भी उत्तर साफ हो जाता है कि पुण्य से कुछ भी न होगा, असली चीज परमात्मा में भरोसा है।

स्वर्ग के स्टेशन पर उतरा, बड़ी हैरानी हुई। स्टेशन बड़ा उदास था। जैसे कई जमानों की धूल जमी हो, किसी ने साफ न की हो। थोड़ा हैरान हुआ। जाकर गौर से देखा तख्ती पर, तो स्वर्ग ही लिखा है। गांव में प्रविष्ट हुआ, बड़ी बेरौनक थी बस्ती। कहीं फूल खिलते न मालूम पड़ते थे। और किसी घर से वीणा के स्वर न उठते थे। कहीं कोई नाचता न मिला। मिले भी ऐसे-धर्मगुरु, पादरी, मुनि ; मगर कोई रौनक न मिली। ऐसे जैसे मुर्दे चल रहे हों। कहीं कोई महोत्सव न मिला। जिंदगी ऐसी लगी जैसे एक बोझ हो वहा। उसने पूछा कई से कि सुकरात, गौतम बुद्ध? लोगों ने कहा, नाम सुने नहीं। यहां नहीं हैं। दूसरी जगह, नर्क में खोजो।

भागा स्टेशन आया। पूछा कि नर्क की गाड़ी? भाग्य से खड़ी थी, जा ही रही थी। वह बैठ गया। नर्क पहुंचा तो बड़ा हैरान होने लगा। जैसे किसी महोत्सव में प्रवेश हो रहा हो। बड़ा स्वच्छ था स्टेशन। जीवन मालूम पड़ता था। फूल खिले थे, गीत बजते थे, लोग चलते थे तो उनके पैरों में गति थी, रौनक थी, रंग-बिरंगापन था, जीवन का इंद्रधनुष जैसे खिला था। वह बड़ा हैरान हुआ कि यह तो कुछ गड़बड़ है। नाम में, तख्ती में कुछ भूल-चूक हो गयी। इसको स्वर्ग होना चाहिए। उसने पूछा कि सुकरात और बुद्ध? उन्होंने कहा कि ही, वे यहां हैं। और नाम में कोई गलती नहीं हुई है। उनके आने से ही यह नर्क स्वर्ग हो गया।

नींद खुल गयी उसकी। घबड़ाहट में नींद खुल गयी कि यह क्या-मामला है? सपना तो खो गया। जब वह सुबह चर्च गया, उसने कहा कि भई, मैं कुछ और न कह सकूंगा, लेकिन रात एक सपना आया है वह मैं दोहरा देता हूं उत्तर में। सपने में मुझे ऐसा दिखायी पड़ा; कहा तक सही है, कहा तक झूठ है, कुछ कह नहीं सकता। मेरी कोई सामर्थ्य भी नहीं इसका निर्णय लेने की। इतना मुझे दिखायी पड़ा और वह यह कि जहां भी पुण्यात्मा पुरुष पहुंच जाते हैं, वहीं स्वर्ग है।

जहा पापी पहुंच जाते हैं, वही नर्क है। पापी नर्क जाते हैं, ऐसा नहीं। पापी अपना नर्क अपने साथ लेकर चलते हैं। और पुण्यात्मा स्वर्ग जाते हैं, ऐसा नहीं। पुण्यात्मा अपना स्वर्ग अपने साथ लेकर चलते हैं। तुम उन्हें कहीं भी फेंक दो।

मदन चतुर्वेदी

राम नाम

मदन चतुर्वेदी की कलम से :-
गोस्वामी जी कहते हैं‒‘जीह जसोमति हरि हलधर से’‒माता यशोदा की गोद में कन्हैया और बलदाऊ‒दोनों खेलते हैं । भगवान्‌ के भक्तों की जो जीभ है, वह यशोदाजी के समान है । उनकी गोद में ‘रा’ और ‘म’ रूपी कन्हैया और दाऊ भैया खेल रहे हैं । बालक को माँ की गोद में खेलने में आनन्द आता है । मनमें ‘भँवरे’ रूपसे ‘राम’ नाम है, जीभ पर राम-नाम ‘हरि हलधर से’ हैं । इसलिये भक्तलोग मन से भी ‘राम’ नाम और जीभ से भी ‘राम’ नाम जपते रहते हैं । मनसे, वाणी से, इन दोनों अक्षरों में तल्लीन होकर रात-दिन भजन करते हैं । किसी तरह की कोई इच्छा,तृष्णा और वासना उनमें रहती ही नहीं । इस प्रकार इन ‘र’ और ‘म’ अक्षरों की महिमा कहाँ तक कही जाय ! इनको लेने से ही इनका रस अनुभवमें आता है । इसलिये हर समय भगवन्नाम-जप करते ही रहना चाहिये ।

भजन करने में लगे हुए को भोजन करने में समय लगाना ठीक नहीं लगता है । अब स्वाद तो ले ही कौन ? क्या बढ़िया देखे और क्या घटिया ? प्राणों को रखना है, इसलिये अन्न की खुराक दे दो‒

कबीर छुधा है कूकरी तन सों दई लगाय ।
याको टुकड़ा डालकर पीछे हरि गुण गाय ॥
राम ! राम !! राम !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे

महाशिवरात्रि

साभार मदन चतुर्वेदी:-

दोस्तों कल शिव रात्रि है
ज्योतिषीय गणित के अनुसार चतुर्दशी तिथि को चंद्रमा अपनी क्षीणस्थ अवस्था में पहुंच जाते हैं। जिस कारण बलहीन चंद्रमा सृष्टि को ऊर्जा देने में असमर्थ हो जाते हैं। चंद्रमा का सीधा संबंध मन से कहा गया है। मन कमजोर होने पर भौतिक संताप प्राणी को घेर लेते हैं तथा विषाद की स्थिति उत्पन्न होती है। इससे कष्टों का सामना करना पड़ता है।

चंद्रमा शिव के मस्तक पर सुशोभित है। अत: चंद्रदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का आश्रय लिया जाता है। महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है। अत: प्राय: ज्योतिषी शिवरात्रि को शिव आराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं। शिव आदि-अनादि है। सृष्टि के विनाश व पुन:स्थापन के बीच की कड़ी है।

मध्यप्रदेश के आगर मालवा नगर में श्रीबैजनाथ महादेव का एक ऎसा ऎतिहासिक मंदिर हैं जिसका जीर्णोद्धार  तत्कालीन अंग्रेज सेना के एक अधिकारी ने करवाया था। प्रदेश के नवगठित एवं 51 वे जिले के रूप में गत वर्ष अस्तित्व में आए आगर मालवा के इतिहास में उल्लेख है कि बैजनाथ महादेव के मंदिर का जीर्णोद्धार कर्नल मार्टिन ने वर्ष 1883 में 15 हजार रूपये का चंदा कर करवाया था। इस बात का शिलालेख भी मंदिर के अग्रभाग में लगा है। उत्तर एवं दक्षिण भारतीय कलात्मक शिल्प में निर्मित श्रीबैजनाथ महादेव को चमत्कारी देव माना जाता है। इसका ज्वलंत उदाहरण उस समय दिखाई दिया जब अफगानिस्तान में 130 वर्ष पहले पठानी सेना से घिरे कर्नल मार्टिन की प्राणरक्षा भगवान शिव ने की और वे सही सलामत घर लौटे।