मदन चतुर्वेदी की कलम से :-
गोस्वामी जी की साहित्यिक जीवनी के आधार पर कहा जा सकता है कि वे आजन्म वही रामगुण -गायक बने रहे जो वे बाल्यकाल में थे। इस रामगुण गान का सर्वोत्कृष्ट रुप में अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें संस्कृत-साहित्य का अगाध पांडित्य प्राप्त करना पड़ा। रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी और रामाज्ञा-प्रश्न इत्यादि रचनाएं उनकी प्रतिभा के प्रभातकाल की सूचना देती हैं। इसके अनंतर उनकी प्रतिभा रामचरितमानस के रचनाकाल तक पूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त कर ज्योतिर्मान हो उठी। उनके जीवन का वह व्यावहारिक ज्ञान, उनका वह कला-प्रदर्शन का पांडित्य जो मानस, गीतावली, कवितावली, दोहावली और विनयपत्रिका आदि में परिलक्षित होता है, वह अविकसित काल की रचनाओं में नहीं है।
उनके चरित्र की सर्वप्रधान विशेषता है उनकी रामोपासना।
धरम के सेतु जग मंगल के हेतु भूमि ।
भार हरिबो को अवतार लियो नर को ।
नीति और प्रतीत-प्रीति-पाल चालि प्रभु मान,
लोक-वेद राखिबे को पन रघुबर को ।।
(कवितावली, उत्तर, छंद० ११२)
काशी-वासियों के तरह-तरह के उत्पीड़न को सहते हुए भी वे अपने लक्ष्य से भ्रष्ट नहीं हुए। उन्होंने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए अपनी निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता का संबल लेकर वे कालांतर में एक सिद्ध साधक का स्थान प्राप्त किया।
गोस्वामी तुलसीदास प्रकृत्या एक क्रांतदर्शी कवि थे। उन्हें युग-द्रष्टा की उपाधि से भी विभूषित किया जाना चाहिए था। उन्होंने तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश को खुली आंखों देखा था और अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर उसके संबंध में अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। वे सूरदास, नन्ददास आदि कृष्णभक्तों की भांति जन-सामान्य से संबंध-विच्छेद करके एकमात्र आराध्य में ही लौलीन रहने वाले व्यक्ति नहीं कहे जा सकते बल्कि उन्होंने देखा कि तत्कालीन समाज प्राचीन सनातन परंपराओं को भंग करके पतन की ओर बढ़ा जा रहा है। शासकों द्वारा सतत शोषित दुर्भिक्ष की ज्वाला से दग्ध प्रजा की आर्थिक और सामाजिक स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में पहुंच गई है -
खेती न किसान को,
भिखारी को न भीख, बलि,
वनिक को बनिज न,
चाकर को चाकरी ।
जीविका विहीन लोग
सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों
कहाँ जाई, का करी ।।
समाज के सभी वर्गअपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़कर आजीविका-विहीन हो गए हैं। शासकीय शोषण के अतिरिक्त भीषण महामारी, अकाल, दुर्भिक्ष आदि का प्रकोप भी अत्यंत उपद्रवकारी है। काशीवासियों की तत्कालीन समस्या को लेकर यह लिखा -
संकर-सहर-सर, नारि-नर बारि बर,
विकल सकल महामारी मांजामई है ।
उछरत उतरात हहरात मरि जात,
भभरि भगात, थल-जल मीचुमई है ।।
उन्होंने तत्कालीन राजा को चोर और लुटेरा कहा -
गोड़ गँवार नृपाल महि,
यमन महा महिपाल ।
साम न दाम न भेद कलि,
केवल दंड कराल ।।
साधुओं का उत्पीड़न और खलों का उत्कर्ष बड़ा ही विडंबनामूलक था -
वेद धर्म दूरि गये,
भूमि चोर भूप भये,
साधु सीद्यमान,
जान रीति पाप पीन की।
उस समय की सामाजिक अस्त-व्यस्तता का यदि संक्षिप्ततम चित्र -
प्रजा पतित पाखंड पाप रत,
अपने अपने रंग रई है ।
साहिति सत्य सुरीति गई घटि,
बढ़ी कुरीति कपट कलई है।
सीदति साधु, साधुता सोचति,
खल बिलसत हुलसत खलई है ।।
उन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से लोकाराधन, लोकरंजन और लोकसुधार का प्रयास किया और रामलीला का सूत्रपात करके इस दिशा में अपेक्षाकृत और भी ठोस कदम उठाया। गोस्वामी जी का सम्मान उनके जीवन-काल में इतना व्यापक हुआ कि अब्दुर्रहीम खानखाना एवं टोडरमल जैसे अकबरी दरबार के नवरत्न, मधुसूदन सरस्वती जैसे अग्रगण्य शैव साधक, नाभादास जैसे भक्त कवि आदि अनेक समसामयिक विभूतियों ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उनके द्वारा प्रचारित राम और हनुमान की भक्ति भावना का भी व्यापक प्रचार उनके जीवन-काल
में ही हो चुका था।
गोस्वामी जी की साहित्यिक जीवनी के आधार पर कहा जा सकता है कि वे आजन्म वही रामगुण -गायक बने रहे जो वे बाल्यकाल में थे। इस रामगुण गान का सर्वोत्कृष्ट रुप में अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें संस्कृत-साहित्य का अगाध पांडित्य प्राप्त करना पड़ा। रामललानहछू, वैराग्य-संदीपनी और रामाज्ञा-प्रश्न इत्यादि रचनाएं उनकी प्रतिभा के प्रभातकाल की सूचना देती हैं। इसके अनंतर उनकी प्रतिभा रामचरितमानस के रचनाकाल तक पूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त कर ज्योतिर्मान हो उठी। उनके जीवन का वह व्यावहारिक ज्ञान, उनका वह कला-प्रदर्शन का पांडित्य जो मानस, गीतावली, कवितावली, दोहावली और विनयपत्रिका आदि में परिलक्षित होता है, वह अविकसित काल की रचनाओं में नहीं है।
उनके चरित्र की सर्वप्रधान विशेषता है उनकी रामोपासना।
धरम के सेतु जग मंगल के हेतु भूमि ।
भार हरिबो को अवतार लियो नर को ।
नीति और प्रतीत-प्रीति-पाल चालि प्रभु मान,
लोक-वेद राखिबे को पन रघुबर को ।।
(कवितावली, उत्तर, छंद० ११२)
काशी-वासियों के तरह-तरह के उत्पीड़न को सहते हुए भी वे अपने लक्ष्य से भ्रष्ट नहीं हुए। उन्होंने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए अपनी निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता का संबल लेकर वे कालांतर में एक सिद्ध साधक का स्थान प्राप्त किया।
गोस्वामी तुलसीदास प्रकृत्या एक क्रांतदर्शी कवि थे। उन्हें युग-द्रष्टा की उपाधि से भी विभूषित किया जाना चाहिए था। उन्होंने तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश को खुली आंखों देखा था और अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर उसके संबंध में अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। वे सूरदास, नन्ददास आदि कृष्णभक्तों की भांति जन-सामान्य से संबंध-विच्छेद करके एकमात्र आराध्य में ही लौलीन रहने वाले व्यक्ति नहीं कहे जा सकते बल्कि उन्होंने देखा कि तत्कालीन समाज प्राचीन सनातन परंपराओं को भंग करके पतन की ओर बढ़ा जा रहा है। शासकों द्वारा सतत शोषित दुर्भिक्ष की ज्वाला से दग्ध प्रजा की आर्थिक और सामाजिक स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में पहुंच गई है -
खेती न किसान को,
भिखारी को न भीख, बलि,
वनिक को बनिज न,
चाकर को चाकरी ।
जीविका विहीन लोग
सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों
कहाँ जाई, का करी ।।
समाज के सभी वर्गअपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़कर आजीविका-विहीन हो गए हैं। शासकीय शोषण के अतिरिक्त भीषण महामारी, अकाल, दुर्भिक्ष आदि का प्रकोप भी अत्यंत उपद्रवकारी है। काशीवासियों की तत्कालीन समस्या को लेकर यह लिखा -
संकर-सहर-सर, नारि-नर बारि बर,
विकल सकल महामारी मांजामई है ।
उछरत उतरात हहरात मरि जात,
भभरि भगात, थल-जल मीचुमई है ।।
उन्होंने तत्कालीन राजा को चोर और लुटेरा कहा -
गोड़ गँवार नृपाल महि,
यमन महा महिपाल ।
साम न दाम न भेद कलि,
केवल दंड कराल ।।
साधुओं का उत्पीड़न और खलों का उत्कर्ष बड़ा ही विडंबनामूलक था -
वेद धर्म दूरि गये,
भूमि चोर भूप भये,
साधु सीद्यमान,
जान रीति पाप पीन की।
उस समय की सामाजिक अस्त-व्यस्तता का यदि संक्षिप्ततम चित्र -
प्रजा पतित पाखंड पाप रत,
अपने अपने रंग रई है ।
साहिति सत्य सुरीति गई घटि,
बढ़ी कुरीति कपट कलई है।
सीदति साधु, साधुता सोचति,
खल बिलसत हुलसत खलई है ।।
उन्होंने अपनी कृतियों के माध्यम से लोकाराधन, लोकरंजन और लोकसुधार का प्रयास किया और रामलीला का सूत्रपात करके इस दिशा में अपेक्षाकृत और भी ठोस कदम उठाया। गोस्वामी जी का सम्मान उनके जीवन-काल में इतना व्यापक हुआ कि अब्दुर्रहीम खानखाना एवं टोडरमल जैसे अकबरी दरबार के नवरत्न, मधुसूदन सरस्वती जैसे अग्रगण्य शैव साधक, नाभादास जैसे भक्त कवि आदि अनेक समसामयिक विभूतियों ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उनके द्वारा प्रचारित राम और हनुमान की भक्ति भावना का भी व्यापक प्रचार उनके जीवन-काल
में ही हो चुका था।
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