Wednesday, 18 February 2015

कबीर के राम

बिनु हरी कृपा मिलहि नहि संता।।

एक कथा बरबस याद आ गयी: पंडित सर्वजीत काशी पधारे थे, कबीर को शास्त्रार्थ में पछा़ड़ने का संकल्प लेकर। बैल पर लदी पुस्तकों के रूप में अपना ज्ञान  साथ लेकर। कबीर की पुत्री कमाली से ही पूछ बैठे रास्ता कबीर के घर का। कमाली ने रास्ता तो बता दिया, लेकिन चुटकी लेने से न चूकी -

“ जन कबीर का सिखरि घर, बाट सलैली गैल; पाव न टिकै पिपीलिका, लोगन लादै बैल”।

सलैली गैल- रपटीली राह- की याद ठीक ही दिलाई कमाली ने। जहां चींटी तक के पांव टिकना मुश्किल हो, ऐसी राह पर अहंकार को बैल की पीठ पर लाद कर जो चले, उस ज्ञानी के लिए, कबीर के  ‘घर’— उनके भीतर-बाहर के अनभय अनुभव—की  राह रपटीली ही है। लेकिन जो इंसान ज्ञान का नाता अपने आस-पास, भीतर-बाहर के साथ जोड़ सके, ‘जग बौराना’ की खबर लेने के साथ-साथ ही, कुछ ‘आतमखबर’ भी रख सके,उसके लिए कबीर का तो क्या, कबीर के राम का घर भी सहज प्राप्य हो जाता है-‘सहज सुभाय मिले रामराइ’।
दोस्तों आपको बताऊ कबीर पहले शाक्त धर्म मे थे उनका एक पद इसकी पुष्टी करता है

थे वे जुलाहे परिवार के, शिष्य-संवादी बने वैष्णव साधक रामानंद के। शाक्तों से कबीर की चिढ़ शाक्त साधना से उनके गहरे परिचय का संकेत  करती है। ‘कबीर-परिचई’ (1590 के आस-पास) में स्पष्ट  हैं कि कबीर शुरू में शाक्त रहे थे-‘बहुत दिन साकत मैं गइया, अब हरि के गुन लै निरबहिया’।

मदन चतुर्वेदी

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