Sunday, 7 June 2015

पीपल का पेड़

घर के सामने का पीपल
अब धीरे धीरे मर रहा है,
ऐसा होता हुआ देख कर
मेरा मन बहुत डर रहा है.
बचपन में यह पेड़ बहुत बड़ा था,
तन कर बहुत ऊँचा खड़ा था,
इसमे बड़े-बड़े कोटर थे,
वे गिलहरियों के घर थे,
कई चिड़ियों के घोसले थे,
जिनमे उनके बच्चे पले थे.
पक्षियों के कई झुण्ड आते थे,
वे दिन भर चहचहाते थे.
बच्चे इसकी छाँव में खेलते थे,
पहलवान इसके नीचे दण्ड पेलते थे,
कभी यहाँ चौपाल लगती थी,
बारातों की साज सजती थी.
अब सब कुछ सूना-सूना है,
इसे देख मेरा दुख दूना है,
अब यह ठूँठ में बदल गया है,
मेरा बचपन भी ढल गया है.
इसके मरते ही मेरे बचपन की
यादें भी गुजर जाएँगी,
मेरे यादों में बसी खुशियाँ
हमेशा के लिए मर जाएंगी.
साभार अनजान कवि
मदन चतुर्वेदी

तुलसी के राम


यह श्लोक वेदव्यास विरचित पद्मपुराण का है। इसकी कथा इस प्रकार है—

एक बार भगवान् शंकर ने अपनी
 पार्वती जी से अपने ही साथ भोजन करने का अनुरोध किया। भगवती पार्वती जी ने यह कहकर टाला कि वे विष्णुसहस्रनाम का पाठ कर रही हैं। थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करके शिवजी ने जब पुनः पार्वती जी को बुलाया तब भी पार्वती जी ने यही उत्तर दिया कि वे विष्णुसहस्रनाम के पाठ के विश्राम के पश्चात् ही आ सकेंगी। शिव जी को शीघ्रता थी। भोजन ठण्डा हो रहा था। अतः भगवान् भूतभावन ने कहा- पार्वति! राम राम कहो। एक बार राम कहने से विष्णुसहस्रनाम का सम्पूर्ण फल मिल जाता है। क्योंकि श्रीराम नाम ही विष्णु सहस्रनाम के तुल्य है।

इस प्रकार शिवजी के मुख से ‘राम’ इस दो अक्षर के नाम का विष्णुसहस्रनाम के समान सुनकर ‘राम’ इस द्व्यक्षर नाम का जप करके पार्वती जी ने प्रसन्न होकर शिवजी के साथ भोजन किया।
सहस नाम सम सुनि शिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥
– मानस १-१९-६

यहाँ जेई शब्द का अर्थ है भोजन करना। अर्थात् शिवजी की वाणी से राम नाम को सहस्रनाम के समान सुनकर तथा उसे ही जपकर पार्वती जी ने अपने प्रियतम भगवान् शंकर के साथ जीमन किया।
अब्दुरर्हीमखानखाना की दीनता भरी प्रार्थना हृदय को विगलित कर भगवान् श्री राम का ध्यान साकार करती है

“अहल्यापाषाणःप्रकृतिपशुरासीत्कपिचमूर्गुहोऽभूच्चण्डालस्त्रितयमपिनीतंनिजपदम्।
अहंचित्तेनाश्मापशुरपितवार्चादिकरणेक्रियाभिश्चाण्डालोरघुवरनमामुद्धरसिकिम्॥“

(अर्थात् अहल्या पत्थर की शिला थी और वानर सेना स्वभाव से पशु समूह था। गुह (निषादराज) चाण्डाल था। इन तीनों को आपने अपने पद मे ले गये। मैं चित्त से पत्थर, आपके पुण्यराशि से विमुख निरापशु और अपने कर्मों से चाण्डाल हूँ। क्या मेरा उद्धार नहीं करोगे?)
मदन चतुर्वेदी

दहेज़ की बारात(काका हाथरसी)

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हास्य रचना
दहेज की बारात (काका हाथरसी)
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जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र,
फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र,
यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी,
बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी,
कहं 'काका' कविराय, लार म्हौंड़े सौं टपके,
कर लड़ुअन की याद, जीभ स्यांपन सी लपके...

मारग में जब है गई अपनी मोटर फेल,
दौरे स्टेशन लई तीन बजे की रेल,
तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का,
दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का,
कहं 'काका' कविराय, पटक दूल्हा ने खाई,
पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई...

नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ
मुर्गा बनि बैठे हमहुं, मिली न कोऊ सीट,
मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता,
फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता,
कहँ 'काका' कविराय, परिस्थिति विकट हमारी,
पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे 'टिकस' हमारी...

फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय,
एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुं खोय,
एक गई कहुं खोय, तबहिं घुसि आयौ टी-टी,
मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी,
कहं 'काका' समझायौ, पर नहिं मान्यौ भैया,
छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया...

जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर,
मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर,
सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़,
स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़,
कहं 'काका' कविराय, पेट है गयौ नगाड़ौ,
निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ...

बेटा वारे ने कही, यही हमारी टेक,
दरबज्जे पे ले लऊं, नगद पांच सौ एक,
नगद पांच सौ एक, परेंगी तब ही भांवर,
दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं सांकर,
कहं 'काका' कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे,
अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे...

बेटी वारे ने बहुत, जोरे उनके हाथ,
पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात,
सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे,
पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हूँ मिले न सूखे,
कहं 'काका' कविराय, जान आफत में आई,
जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई...

समधी-समधी लड़ि परै, तय न भई कछु बात,
चलै घरात-बरात में थप्पड़-घूंसा-लात,
थप्पड़-घूंसा-लात, तमासौ देखें नारी,
देख जंग को दृश्य, कंपकंपी बंधी हमारी,
कहं 'काका' कवि बांध बिस्तरा भाजे घर को,
पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को...

मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात,
बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात,
आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी,
दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं,
कहं काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ,
बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ...

हाथ जोरि मांगी क्षमा, नीची करकें मोंछ,
काकी ने पुचकारिकें, आंसू दीन्हें पोंछ,
आंसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई,
जब तक जीऊं, बरात न जाऊं रामदुहाई,
कहं 'काका' कविराय, अरे वो बेटा वारे,
अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे..

अमीर खुसरो

अमीर ख़ुसरो का एक टप्पा पढ़ रहा था बहुत सुन्दर लगा
आदमी जब संसार से जाता है उस समय का प्यारा चिंतन

बहुत रही बाबुल घर दुलहन, चल तोरे पी ने बुलाई

बहुत खेल खेली सखियन से, अन्त करी लरिकाई

बिदा करन को कुटुम्ब सब आए, सगरे लोग लुगाई

चार कहार मिलि डोलिया उठाई संग परोहत और भाई

चले ही बनेगी होत कहां है,नैनन नीर बहाई

अन्त बिदा हो चलिहै दुलहिन काहू की कुछ न बनी आई

मैजे खुसी सब देखत रहि गए मात पिता और भाई

मोरी कौन संग लगन धराई धन धन तेरी है खुदाई

बिन मांगे मेरी मंगनी जो कीन्हीं नेह की मिसरी खिलाई

एक के नाम करि दीन्हीं सजनी पर घर की जो ठहराई

गुण नहि एक औगुन बहुतेरे कैसे नौशा रिझाई

खुसरो चले ससुरारी सजनी संग कोई नहि आई
मदन चतुर्वेदी

गंगा लहरी

गंगा लहरी का इतिहास

यह बात तब की है जब मुगल शासक शाहजहां के दौर में संस्कृति और विज्ञान से जुड़ी बहस काफी तेज हुआ करती थी। हिन्दुओं का कहना था कि इस क्षेत्र में वो ज्यादा जानकारी रखते हैं वहीं मुसलमान इस मामले में खुद को ज्ञानी कहते थे। इस समस्या का हल करने के लिए शाहजहां ने अपने महल में शास्त्रार्थ का आयोजन करवाया, जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों को बहस के लिए आमंत्रित किया।

शाहजहां ने यह घोषणा कर दी थी कि भले ही इस बहस में कितने ही दिन क्यों ना गुजर जाएं लेकिन बिना किसी निर्णय पर पहुंचे, शास्त्रार्थ को समाप्त नहीं किया जाएगा।

साथ ही साथ बादशाह ने यह शर्त भी रख दी कि जो भी इस शास्त्रार्थ में जीतेगा उसे पुरस्कृत किया जाएगा और हारने वाले को जेल की सजा काटनी होगी, इसलिए जो भी इसमें शामिल हो वो पहले से अच्छी तरह तैयार रहे।

शास्त्रार्थ में शामिल होने के लिए देश के अलग-अलग कोने से पंडित, मौलवी और विद्वान आए। कई दिनों तक उनके बीच यह शास्त्रार्थ चला, जिसमें पंडितों को हर बार हार का सामना करना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप उन सभी को सजा के तौर पर जेल भेजा गया।

एक दिन की मोहलत पर शाहजहां ने यह घोषणा कर दी कि अगर कोई हिन्दू विद्वान बचा है तो वह सामने आए अन्यथा मुसलमानों को विजयी घोषित कर दिया जाएगा।

उस समय काशी में महापंडित, महाज्ञानी जगन्नाथ मिश्र रहा करते थे। जब उन्हें शाहजहां के इस कदम की सूचना मिली तो उन्होंने भी शास्त्रार्थ में शामिल होने की बात कही। वह शाहजहां के महल पहुंचे और उनसे शास्त्रार्थ को आगे बढ़ाने को कहा।

समस्त मुसलमान मौलवियों और विद्वानों के बीच बैठकर जगन्न्नाथ मिश्र ने शास्त्रार्थ आरंभ किया। यह शास्त्रार्थ निरंतर 3 दिन और 3 रातों तक चला और देखते ही देखते सभी मुसलमान विद्वान इसमें परास्त होते चले गए।

इस शास्त्रार्थ को झरोखे में बैठी शाहजहां की बेटी ‘लवंगी’ भी देख रही थी। बादशाह जगन्नाथ मिश्र की विद्वता से काफी प्रसन्न थे, उन्हें विजेता घोषित कर दिया गया। शाहजहां ने मिश्र से कहा कि वे जो चाहे मांग सकते हैं, वही उनका पुरस्कार होगा।

जगन्नाथ मिश्र ने कहा कि जितने भी पंडितों को शाहजहां द्वारा बंदी बनाया गया है उन्हें मुक्त कर दिया जाए। इस पर बादशाह ने उन्हें अपने लिए कुछ मांगने को कहा।

जगन्नाथ, शाहजहां के महल में खड़े थे, वे अपनी नजर इधर-उधर दौड़ा रहे थे, इतने में ही उनकी नजर बादशाह की बेटी लवंगी पर जा पड़ी।जगन्नाथ मिश्र बोले ‘राजन, धन और राजसुख की मुझे कोई कामना नहीं है। देना ही है तो वो स्त्री मुझे दे दें’। पंडित जगन्नाथ मिश्र की बात सुनकर बादशह सन्न रह गए लेकिन उन्हें अपने वचन का पालन तो करना ही था। उन्होंने अपनी बेटी लवंगी, जगन्नाथ मिश्र को सौंप दी।

दरबार से विजयी होकर पंडित जगन्नाथ मिश्र बादशाह की बेटी लवंगी के साथ काशी आ गए। मिश्र ने शास्त्रीय विधि के साथ सर्वप्रथम को शुद्ध किया और उसके साथ रहने लगे।

लवंगी मुसलमान कन्या थी और जगन्नाथ मिश्र ब्राह्मण, उनका यह मेल किसी को रास नहीं आया और सभी ने मिलकर पंडित जगन्नाथ मिश्र को जाति से बाहर कर उनका बहिष्कार कर दिया।

जगन्नाथ मिश्र, लवंगी के साथ खुश थे लेकिन अपने साथ हुआ यह व्यवहार उन्हें मन ही मन कचोटता रहता था। वह भीतरी तौर पर बेहद दुखी रहने लगे। इस दुख से छुटकारा पाने के लिए एक दिन उन्होंने ऐसा निर्णय किया, जिसके बाद रचना हुई गंगा के श्रेष्ठतम काव्य गंगा लहरी की। लेकिन इस ग्रंथ की रचना करने के लिए उन्हें अपने और लवंगी के प्राणों की आहुति देनी पड़ी।

जाति से बहिष्कृत हो जाने की वजह से उन्हें सामाजिक असम्मान झेलना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप एक दिन पंडित जगन्नाथ मिश्र लवंगी को लेकर काशी के दश्वाश्वमेध घाट पर जा बैठे जहां 52 सीढ़ियां हैं।

लवंगी को अपने साथ बैठाकर वे गंगा की स्तुति करने लगे। ऐसा कहा जाता है कि जैसे ही जगन्नाथ मिश्र एक पद रचते, गंगा का पानी और ऊपर होने लगता। 52वें पद का गान करते ही गंगा ने उन्हें अपनी गोद में समा लिया। लवंगी और जगन्नाथ मिश्र दोनों ही जलधार में बहने लगे।

तब जगन्नाथ मिश्र ने मां गंगा से यह आग्रह किया कि जब उन्हें अपनी गोद में ले ही लिया है तो फिर अब उन्हें अलग ना करें। जगन्नाथ मिश्र इस संसार रूपी कीचड़ से निकलकर गंगा की पावन गोद में समाना चाहते थे। मां गंगा ने उनका अनुरोध स्वीकार किया और लवंगी समेत मिश्र जी को अपने आगोश में समेट लिया।

पंडित जगन्नाथ मिश्र द्वारा उस समय की गई गंगा की स्तुति को गंगा लहरी के नाम से जाना जाता है, जोकि गंगा की आराधना करने का श्रेष्ठतम ग्रंथ है।

ऐसा कहा जाता है कि अगर आज भी कांसे के पात्र में गंगाजल भरकर पूरी तन्मयता के साथ गंगा स्तुति की जाए तो उस पात्र में रखे जल में से लहरें उठने लगती हैं।
मदन चतुर्वेदी

गोरा

रविन्द्र नाथ टैगोर ने एक उपन्यास लिखा है
गोरा
एक ब्राह्मण दंपत्ति के पुत्र का नाम है गोरा 7 फिट की लंबाई केरी आँखे गौरवर्ण वलिष्ठ शरीर

गोरा अपने हिन्दू धर्म पर बहुत गर्व करता है और ईसाई धर्म से बहुत चिढ़ता है उसकी कमियां निकालता अपने अकाट्य तर्क से  वादविवाद करता है
ये समय था जब बंगाल में ब्राह्मण वर्ग नष्टप्राय हो गया था और नया धर्म चला था #ब्रह्म समाज धर्म#
 इसमें ईसाई धर्म की अच्छी अच्छी बातें ड़ाल एक तरह से खिचड़ी धर्म बना लिया था
राजा राम मोहन राय
ईश्वरचंद विद्यासागर आदि सब इसी धर्म की थे

गोरा इनकी मीटिंग में जाता और तर्क के साथ आलोचना करता धीरे धीरे उसमे हिन्दू धर्म के प्रति एक कट्टरता आ गई समाज मे उसे हिन्दू धर्म का मुखिया बना दिया
एक ब्रह्म समाजी घर में उसका आना जाना था जहाँ वह एक लड़की से प्रेम करने लगता है पर लड़की की ब्रह्म समाजी मान्यताये उसे रास नहीं आती और दोनों में विरोध हो जाता है
इधर गोरा देखता है की उसका पिता उसके पूजा गृह या खाने के समय पहुचने पर अजीव से संकोच में पड़ जाता है पर गोरा इसे बुड्ढी सनक जान ध्यान नहीं देता
समय की बात गोरे का बाप एक बार बहुत बीमार पड़ता है और अपना अंत समय जान गोरे को एक राज बताता है की जब 1957 की ग़दर में अग्रेज भागे तो एक अंग्रेजन जो गर्भवती थी उसे छोड़ गए जो हमारे घर के सामने तुझे जन्म देकर मर गई और हम ने तुझे पाला तू हम लोगों का पुत्र नहीं है
बस गोरे की दुनिया बदल गई उसको सब धर्म उसके सब विचार धर्म की मान्यताये सब जमीं पर तिनका तिनका होती दिखी
और बस टैगोर उपन्यास समात कर देते है आप लोगों को सोचने को की धर्म क्या है
मदन चतुर्वेदी

तंज

कोई टोपी तो कोई अपनी पगड़ी बेच देता है..
मिले अगर भाव अच्छा, जज भी कुर्सी बेच देता है,

तवायफ फिर भी अच्छी, के वो सीमित है कोठे तक..
पुलिस वाला तो चौराहे पर वर्दी बेच देता है,

जला दी जाती है ससुराल में अक्सर वही बेटी..
के जिस बेटी की खातिर बाप किडनी बेच देता है,

कोई मासूम लड़की प्यार में कुर्बान है जिस पर..
बनाकर वीडियो उसका, वो प्रेमी बेच देता है,

ये कलयुग है, कोई भी चीज़ नामुमकिन नहीं इसमें..
कली, फल फूल, पेड़ पौधे सब माली बेच देता है,

किसी ने प्यार में दिल हारा तो क्यूँ हैरत है लोगों को..
युद्धिष्ठिर तो जुए में अपनी पत्नी बेच देता है...!!

धन से बेशक गरीब रहो
पर दिल से रहना धनवान
अक्सर झोपडी पे लिखा होता है "सुस्वागतम"
और महल वाले लिखते है "कुत्ते से सावधान"
साभार अनजान कवि

हिप्पी और आचार्य प्रभुपाद

सन् 77 मे अमेरका मे ब्रटेन मे एक भयानक मंदी आई और यूवाओं मे एक अजीव वेचैनी और निराशा का वातावरण व्याप्त था उसी समय एक धर्म चला था ^हिप्पी धर्म ^ जो कुछ कुछ अपने यहाँ के ^चार्वाक^ धर्म जैसा था
#खाओ पियो मोज करो कोई पाप नहीं कोई पुण्य नही#
उसी के साथ उभरा था ^ पॉप संगीत ^
वीटल इसके सितारे थे समूह के समूह युवा नशे में मस्त वीटल की पॉप धुन में झूमते थे

परिवार नष्ट हो रहे थे
इसी समय अपने भारत से ^हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे^ की धुन गाते हुए पहुंचे ^ आचार्य प्रभुपाद^ इनकी एक तरह से भिड़ंत हुई वीटल और उसके निरंकुश ग्रुप के साथ

प्रभुपाद ने वीटल के अनेक ब्यङ्ग को झेलते हुए एक बार अपने सितार पर ^हरे रामा ^की घुन बजाने का अनुरोध किया
नशे मे धुत वीटल ने धुन बजाई और फिर ऐसी बजाई की उनका पूरा ग्रुप आचार्य का भग्त हो गया

वीटल ने बाद मे अपने अनुभव मे कहा की जैसे ही मेने ये धुन अपने गिटार से निकाली ऐसा लगा जैसे कोई चेतना मेरे सिर की और जा रही है मुझे बिलकुल उसी प्रकार का अनुभव हुआ जैसा मुझे हैरोइन के नशे के बाद होता था लेकिन एक अंतर था जब में हेरोइन के नशे से बाहर् निकलता तो अनंत विषाद मेरे मन को घेर लेता था जिसके कारण मुझे फिर नशे मे जाना पड़ता था
किन्तु इस धुन से जो नशा चढ़ता उसके उतरने के बाद एक चरम विश्रान्त मन होता था
वीटल फिर कई बार मथुरा आया उसका नशा अपने आप सदा के लिए छूट गया और अमेरका मे हिप्पी वाद समाप्त हुआ
मदन चतुर्वेदी

राजा भर्तृहरि

पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे।
उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं। भर्तृहरि ने स्त्री के
सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक
लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।
उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने
अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया।
देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए
कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे।
ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं,
मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है।
हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे
समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी।
वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह
फल उन्हें दे आया।
राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन
सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह
ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके
साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह
मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं
भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे
दिया।
लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह
अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल
उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम
लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे।
फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने
लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ
ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं
भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज
नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात
नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह
सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह
फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।
राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर
फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने
सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन
लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है,
उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने
किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत
में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और
कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।
राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया।
पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य
हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया।
वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य
शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। यही इस संसार
की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम
करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे
उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह
दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है।
इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण
हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर पूर्ण है। एक
वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है,
जितना जीव उससे करता है। बस हमीं उसे सच्चा प्रेम
नहीं करते। गीता में कृष्ण ने यही समझाया है कि जो मुझ
से प्रेम करता है, मैं उसका योगक्षेम वहन करता हूं -
अर्थात उनके पास जिस वस्तु की कमी है, वह देता हूं और
हर प्रकार से उसकी रक्षा करता हूं।
मदन चतुर्वेदी

तुलसी के राम

"करई बिचारु कुबुद्धि कुजाती
होइ अकाज कबन बिधि राती
देखि लागि मधु कुटिल किराती
जिमिगवँ तकई लेऊँकिमिभाँती "(रा0च0मा0अयो013 )

मन्थरा के बारे मेँ तुलसी बाबा कहते हैँ कि घर से बाहर निकलते ही सजी संवरी वन्दनवारोँ से सजी अयोध्या को देख कर बह सोचने लगी कि ऐसा क्या करुँ कि यह काम ( राम को युवराज बनाये जाने ) रात ही रात मेँ यानि कि सुवह होने के पहले बिगड़ जाये जिस तरह कोई भीलनी शहद के छत्ते को देख कर घात लगाती है कि इसे कैसे टोड़ लूँ ?


क्या कर सकती थी
मरी मंथरा दासी,
मेरा ही मन रह सका न
निज विश्वासी ।

क्योंकि
मंथरा के ये शब्द कैकेयी के कानों में रस में विष घोलने वाले -

भरत से सुत पर ही संदेह?
बुलाया तक न उसे जो गेह ?

ने चिंगारी का काम किया । परन्तु चित्रकूट की सभा में जब श्रीराम कहते हैं कि भरत- पिता ने हमें वन का राज्य सौपा है और तुम्हें युद्ध न देने वाली परम शांति की प्रतीक अयोध्या दी है । समस्त झगडे टंटे की जड संपत्ति होती है । उसकी चाह न तुम्हें है और न हमें है । हम लोग क्यों न आपस में संपत्ति की जगह विपत्ति का बंटवारा कर लें जिससे १४ साल बाद स्टेटलैस सोसायटी के आधार पर बिना डंडे वाला सबके मन में रमा न्याय और समता आधारित रामराज्य स्थापित हो सके । पर इसके लिए सोचें कि यदि मंथरा और कैकेयी की नकारोन्मुखी सकारात्मकता न होती तो यह कैसे संभव था ।

दीन कहे धनवान सुखी
धनवान कहे सुख राजा को भारी
राजा कहे महाराजा सुखी
महाराजा कहे सुख इन्द्र को भारी
इन्द्र कहे ब्रह्मा सुखी
ब्रह्मा कहे सुख विष्णु को भारी
ऋषि मुनि विचार करे
बिन राम भजन सब जीव दुखारी

गऊ प्रेम

.
महाराष्ट्र राज्यके सातारा जिलें में एक
तालुका है कराड,
.
जिसके गाँव सिरम्बा गांव में एक
गोभक्त रहते थे । नाम था गोविन्द
दास जी महाराज ।
.
गायों की सेवा करने में उन्हें बड़ा आनन्द
मिलता था ।
.
उनका मठ गायों से भरा हुआ था ।
.
हर गाय का उन्होने नाम रखा हुआ था ।
और वे उन्हें उसी नाम से पुकारते थे ।
.
एक सुबह जब वे उठे उन्होंने देखा कि
उनकी गाएं चोरी हो गयी हैं ।
.
वे बड़े दुखी हो गए । खाना पीना सब छूट
गया ।
.
उन्होंने तालुका के तहसीलदार से फरियाद
की ।
.
थाने में रिपोर्ट भी लिखवाई ।
.
उन्होंने भाई गोविन्ददास को आश्वासन
दिया कि उनकी गायें ढूंढी जांएगी मगर
गोविन्द दास जी को संतोष नहीं हुआ ।
.
वे स्वयं गाँव गाँव भटकते रहे और लोगों से अपनी
गाय के बारे में पूछते रहे मगर उनकी गायों का
कुछ पता नहीं चला किन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं
हारी ।
.
अचानक एक दिन वे बेलवड़ नामक गाँव
के हाट में घूम रहे थे,
.
तभी उन्हें एक जगह अपनी गायें दिखाई
दी, जो खूंटे से बंधी थी ।
.
उनकी आंखो से आंसू निकलने लगे ।
गाय भी उन्हें देखकर रंभाने लगीं ।
.
वे दौड़े दौड़े तहसीलदार के पास पहुँचे
और कहा मेरी गाये मिल गयी हैं पर वे
चोरों के कब्जे में हैं ।
.
तहसीलदार ने तुरन्त पुलिस भेजकर गायों
को मुक्त करवाया और चोरों को गिरफ्तार
किया ,
.
मगर चोरों ने दावा किया कि ये गायें उन्हीं
की हैं ।
.
उन्होंने कागज पुर्जे पेश किए ।
.
तहसीलदार ने गोविन्ददास जी से कहा
कि क्या इस बात का कोई प्रमाण है कि
गायें उन्हीं की हैं ?
.
अब गोविन्ददास जी के पास कोई कागज
आदि तो थे नहीं सो उन्होंने कहा कि गाएँ
स्वयं प्रमाण देंगी ।
.
उनका मुझ पर प्रेम और स्नेह देखकर
आप स्वयं ही समझ जाएंगें ।
.
तहसीलदार ने इसे साबित करने के लिए
कहा,
.
तब गोविन्ददास जी ने अपनी गायों को
पुकारा,
.
अरे ओ गंगा, जमना, कृष्णा,सावित्री
अनुसूया ।
.
अरे ओ मेरी गोमाताओं मेरे पास आओ ।
.
तभी सारी गाएं जो बाहर खड़ी थी दौड़कर
कचहरी में घुस आयी और गोविन्ददास जी
से चिपटकर उन्हें चाटने लगीं।
.
यह देखकर सभी आष्चर्यचकित रह गए ।
.
तब गोविन्ददास जी ने कहा कि आप
सब मेरे घर चलें और इन गायों का मुझ
पर मातृप्रेम देखें ।
.
तहसीदार, पुलिस और चोर वगैरह सभी
उनके साथ घर की ओर चले ।
.
घर पहुँचते ही बाहर खड़े होकर गोविन्ददास
जी ने फिर गायों को पुकारा
.
अरे ओ मेरी माताओं सब अपनी जगह
चली जाओ ।
.
तभी चामत्कारिक रूप से सभी गायें
दौड़कर घर में घुस गयीं और अपने
अपने खूंटे के पास जाकर खड़ी हो गयीं ।
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यह देखकर चोर उनके चरणों में गिर पड़े
और अपना अपराध स्वीकार करते हुए
गोविन्ददास जी से क्षमा माँगने लगे ।
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तहसीलदार महोदय यह दृष्य देखकर
पुलकित हो उठे और अपने निर्णय में
उन्होंने लिखा कि ऐसा स्वतः न्याय और
गोमाता का अदभुत प्रमाण मैंने आजतक
नहीं देखा ।
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जिस बेलवड़ गाँव के हाट बाजार में
गोविन्ददास जी को अपनी खोयी हुई
गांये मिली थीं, वहाँ आज भी यह कथा
प्रचलित है
मदन चतुर्वेदी

राम कृष्ण परमहंस

कल बात चली थी दक्षणेश्वर मंदिर की

रामकृष्ण परमहंस का बचपन का नाम गदाधर था

जब रानी रासमणि ने इन्हें काली मंदिर का पुजारी रख लिया तो ये भाव दशा में आ जाते थे और भक्त और भगवान् एक रूप एकाकार हो जाते थे
इस मंदिर परिसर मे और देवताओ के भी भव्य मंदिर है इन्ही मे एक बगल के मंदिर में विष्णु मंदिर है जहाँ उस समय इनके बड़े भाई को पूजा का दायत्व दिया गया

काली मंदिर में रोज बकरो की बलि दी जाती थी गदाधर के बड़े भाई जिन्हें वो दादा कहते थे का मन कभी कभी बलि देख कर वितृष्णा से भर जाता था घृणा होती थी उन्हे
एक बार उन्होंने ये बात गदाधर से कही और कहा की तू ब्राह्मण है इसलिए काली मंदिर की पूजा छोड़ दे

परमहंस बोले दादा कैसी बात करते हो ये तो माँ को प्रसाद का अर्पण है

दादा क्रोधित हो बोले गदाधर तू बहुत समझदार हो गया अपने दादा से जवान लड़ाता है में तुझे श्राप देता हु की तेरे इसी मुँह से खून टपकेगा दादा को वाचा सिद्धि थी अतः बात पूरी होनी ही थी

गदाधर सत्र रह गए और माँ की इच्छा सोच चुप लगा गए

एक रोज माँ काली दादा के सपने में आई और बोली तू मेरे खाने को घिन लाता है और तूने गदा को श्राप भी दिया तू ये मंदिर छोड़ कर चला जा नहीं तो निर्वंश हो जायेगा दादा ने सपने पर कोई ध्यान नहीं दिया और एक एक कर उनके  चारों वच्चे काल कवलित हो गए जब तक ध्यान आता देर हो चुकी थी

इधर गदा की साधना ऊंचाई छू रही थी और श्राप का समय भी आना था तो माँ की कृपा
एक रोज ध्यान मैं प्राण वृह्मरंध्र में चले गए इतने मे गदा का ध्यान भंग हो गया और प्राण ने लौट कर तालु को छेद दिया और बस गदाधर के तालु से टपकते खून से उनका मुह भर गया
कुछ न समझ पाने पर गदा दादा के पास भागे रोते बोले दादा देखो आपने कहा था तो मेरे मुह से खून आ रहा है दादा भी घबरा कर रोने लगे
थोड़ी देर बाद खून आना बंद हो गया और गदाधर की कुण्डलिनी जाग्रत हो कर वो रामकृष्ण परमहंस हो गए

इतहास के अभी अभी के वो ऐसे जीवित संत थे जो कुण्डलनी शक्ति को अपने मन हिसाब से घुमाते थे
मदन चतुर्वेदी

Yaden ( यादें )

खिड़कियों से झांकते
वे अतीत के सुखद क्षण

जब दिन अमलताश की तरह पीले होते थे
और शामेँ गुलमोहर सी लाल

तब हम रात मेँ तारों की छांव तले
चन्दा को लेकर रोज एक कहानी गड़ लेते  थे

और उन दिनों की अन्दर तक भरी चांदनी
आज तक मेरे दिल को रोशन करती रहती है
जब आप तनाव के दौर से गुजर रहे हों तो सकारात्मक यादों से अच्छा कुछ नही ।
अपनी स्मृतियों के पन्ने उलट- पुलट कर देखेंगे तो कुछ न कुछ ऐसा अवश्य मिल जायेगा जो आपके चेहरे पर मुस्कान विखेर दे ।
दुष्यंत कुमार कहते हैं .............
चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम अज् कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा ।