Sunday, 7 June 2015

गंगा लहरी

गंगा लहरी का इतिहास

यह बात तब की है जब मुगल शासक शाहजहां के दौर में संस्कृति और विज्ञान से जुड़ी बहस काफी तेज हुआ करती थी। हिन्दुओं का कहना था कि इस क्षेत्र में वो ज्यादा जानकारी रखते हैं वहीं मुसलमान इस मामले में खुद को ज्ञानी कहते थे। इस समस्या का हल करने के लिए शाहजहां ने अपने महल में शास्त्रार्थ का आयोजन करवाया, जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों को बहस के लिए आमंत्रित किया।

शाहजहां ने यह घोषणा कर दी थी कि भले ही इस बहस में कितने ही दिन क्यों ना गुजर जाएं लेकिन बिना किसी निर्णय पर पहुंचे, शास्त्रार्थ को समाप्त नहीं किया जाएगा।

साथ ही साथ बादशाह ने यह शर्त भी रख दी कि जो भी इस शास्त्रार्थ में जीतेगा उसे पुरस्कृत किया जाएगा और हारने वाले को जेल की सजा काटनी होगी, इसलिए जो भी इसमें शामिल हो वो पहले से अच्छी तरह तैयार रहे।

शास्त्रार्थ में शामिल होने के लिए देश के अलग-अलग कोने से पंडित, मौलवी और विद्वान आए। कई दिनों तक उनके बीच यह शास्त्रार्थ चला, जिसमें पंडितों को हर बार हार का सामना करना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप उन सभी को सजा के तौर पर जेल भेजा गया।

एक दिन की मोहलत पर शाहजहां ने यह घोषणा कर दी कि अगर कोई हिन्दू विद्वान बचा है तो वह सामने आए अन्यथा मुसलमानों को विजयी घोषित कर दिया जाएगा।

उस समय काशी में महापंडित, महाज्ञानी जगन्नाथ मिश्र रहा करते थे। जब उन्हें शाहजहां के इस कदम की सूचना मिली तो उन्होंने भी शास्त्रार्थ में शामिल होने की बात कही। वह शाहजहां के महल पहुंचे और उनसे शास्त्रार्थ को आगे बढ़ाने को कहा।

समस्त मुसलमान मौलवियों और विद्वानों के बीच बैठकर जगन्न्नाथ मिश्र ने शास्त्रार्थ आरंभ किया। यह शास्त्रार्थ निरंतर 3 दिन और 3 रातों तक चला और देखते ही देखते सभी मुसलमान विद्वान इसमें परास्त होते चले गए।

इस शास्त्रार्थ को झरोखे में बैठी शाहजहां की बेटी ‘लवंगी’ भी देख रही थी। बादशाह जगन्नाथ मिश्र की विद्वता से काफी प्रसन्न थे, उन्हें विजेता घोषित कर दिया गया। शाहजहां ने मिश्र से कहा कि वे जो चाहे मांग सकते हैं, वही उनका पुरस्कार होगा।

जगन्नाथ मिश्र ने कहा कि जितने भी पंडितों को शाहजहां द्वारा बंदी बनाया गया है उन्हें मुक्त कर दिया जाए। इस पर बादशाह ने उन्हें अपने लिए कुछ मांगने को कहा।

जगन्नाथ, शाहजहां के महल में खड़े थे, वे अपनी नजर इधर-उधर दौड़ा रहे थे, इतने में ही उनकी नजर बादशाह की बेटी लवंगी पर जा पड़ी।जगन्नाथ मिश्र बोले ‘राजन, धन और राजसुख की मुझे कोई कामना नहीं है। देना ही है तो वो स्त्री मुझे दे दें’। पंडित जगन्नाथ मिश्र की बात सुनकर बादशह सन्न रह गए लेकिन उन्हें अपने वचन का पालन तो करना ही था। उन्होंने अपनी बेटी लवंगी, जगन्नाथ मिश्र को सौंप दी।

दरबार से विजयी होकर पंडित जगन्नाथ मिश्र बादशाह की बेटी लवंगी के साथ काशी आ गए। मिश्र ने शास्त्रीय विधि के साथ सर्वप्रथम को शुद्ध किया और उसके साथ रहने लगे।

लवंगी मुसलमान कन्या थी और जगन्नाथ मिश्र ब्राह्मण, उनका यह मेल किसी को रास नहीं आया और सभी ने मिलकर पंडित जगन्नाथ मिश्र को जाति से बाहर कर उनका बहिष्कार कर दिया।

जगन्नाथ मिश्र, लवंगी के साथ खुश थे लेकिन अपने साथ हुआ यह व्यवहार उन्हें मन ही मन कचोटता रहता था। वह भीतरी तौर पर बेहद दुखी रहने लगे। इस दुख से छुटकारा पाने के लिए एक दिन उन्होंने ऐसा निर्णय किया, जिसके बाद रचना हुई गंगा के श्रेष्ठतम काव्य गंगा लहरी की। लेकिन इस ग्रंथ की रचना करने के लिए उन्हें अपने और लवंगी के प्राणों की आहुति देनी पड़ी।

जाति से बहिष्कृत हो जाने की वजह से उन्हें सामाजिक असम्मान झेलना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप एक दिन पंडित जगन्नाथ मिश्र लवंगी को लेकर काशी के दश्वाश्वमेध घाट पर जा बैठे जहां 52 सीढ़ियां हैं।

लवंगी को अपने साथ बैठाकर वे गंगा की स्तुति करने लगे। ऐसा कहा जाता है कि जैसे ही जगन्नाथ मिश्र एक पद रचते, गंगा का पानी और ऊपर होने लगता। 52वें पद का गान करते ही गंगा ने उन्हें अपनी गोद में समा लिया। लवंगी और जगन्नाथ मिश्र दोनों ही जलधार में बहने लगे।

तब जगन्नाथ मिश्र ने मां गंगा से यह आग्रह किया कि जब उन्हें अपनी गोद में ले ही लिया है तो फिर अब उन्हें अलग ना करें। जगन्नाथ मिश्र इस संसार रूपी कीचड़ से निकलकर गंगा की पावन गोद में समाना चाहते थे। मां गंगा ने उनका अनुरोध स्वीकार किया और लवंगी समेत मिश्र जी को अपने आगोश में समेट लिया।

पंडित जगन्नाथ मिश्र द्वारा उस समय की गई गंगा की स्तुति को गंगा लहरी के नाम से जाना जाता है, जोकि गंगा की आराधना करने का श्रेष्ठतम ग्रंथ है।

ऐसा कहा जाता है कि अगर आज भी कांसे के पात्र में गंगाजल भरकर पूरी तन्मयता के साथ गंगा स्तुति की जाए तो उस पात्र में रखे जल में से लहरें उठने लगती हैं।
मदन चतुर्वेदी

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