Sunday, 7 June 2015

तुलसी के राम

"करई बिचारु कुबुद्धि कुजाती
होइ अकाज कबन बिधि राती
देखि लागि मधु कुटिल किराती
जिमिगवँ तकई लेऊँकिमिभाँती "(रा0च0मा0अयो013 )

मन्थरा के बारे मेँ तुलसी बाबा कहते हैँ कि घर से बाहर निकलते ही सजी संवरी वन्दनवारोँ से सजी अयोध्या को देख कर बह सोचने लगी कि ऐसा क्या करुँ कि यह काम ( राम को युवराज बनाये जाने ) रात ही रात मेँ यानि कि सुवह होने के पहले बिगड़ जाये जिस तरह कोई भीलनी शहद के छत्ते को देख कर घात लगाती है कि इसे कैसे टोड़ लूँ ?


क्या कर सकती थी
मरी मंथरा दासी,
मेरा ही मन रह सका न
निज विश्वासी ।

क्योंकि
मंथरा के ये शब्द कैकेयी के कानों में रस में विष घोलने वाले -

भरत से सुत पर ही संदेह?
बुलाया तक न उसे जो गेह ?

ने चिंगारी का काम किया । परन्तु चित्रकूट की सभा में जब श्रीराम कहते हैं कि भरत- पिता ने हमें वन का राज्य सौपा है और तुम्हें युद्ध न देने वाली परम शांति की प्रतीक अयोध्या दी है । समस्त झगडे टंटे की जड संपत्ति होती है । उसकी चाह न तुम्हें है और न हमें है । हम लोग क्यों न आपस में संपत्ति की जगह विपत्ति का बंटवारा कर लें जिससे १४ साल बाद स्टेटलैस सोसायटी के आधार पर बिना डंडे वाला सबके मन में रमा न्याय और समता आधारित रामराज्य स्थापित हो सके । पर इसके लिए सोचें कि यदि मंथरा और कैकेयी की नकारोन्मुखी सकारात्मकता न होती तो यह कैसे संभव था ।

दीन कहे धनवान सुखी
धनवान कहे सुख राजा को भारी
राजा कहे महाराजा सुखी
महाराजा कहे सुख इन्द्र को भारी
इन्द्र कहे ब्रह्मा सुखी
ब्रह्मा कहे सुख विष्णु को भारी
ऋषि मुनि विचार करे
बिन राम भजन सब जीव दुखारी

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