यह श्लोक वेदव्यास विरचित पद्मपुराण का है। इसकी कथा इस प्रकार है—
एक बार भगवान् शंकर ने अपनी
पार्वती जी से अपने ही साथ भोजन करने का अनुरोध किया। भगवती पार्वती जी ने यह कहकर टाला कि वे विष्णुसहस्रनाम का पाठ कर रही हैं। थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करके शिवजी ने जब पुनः पार्वती जी को बुलाया तब भी पार्वती जी ने यही उत्तर दिया कि वे विष्णुसहस्रनाम के पाठ के विश्राम के पश्चात् ही आ सकेंगी। शिव जी को शीघ्रता थी। भोजन ठण्डा हो रहा था। अतः भगवान् भूतभावन ने कहा- पार्वति! राम राम कहो। एक बार राम कहने से विष्णुसहस्रनाम का सम्पूर्ण फल मिल जाता है। क्योंकि श्रीराम नाम ही विष्णु सहस्रनाम के तुल्य है।
इस प्रकार शिवजी के मुख से ‘राम’ इस दो अक्षर के नाम का विष्णुसहस्रनाम के समान सुनकर ‘राम’ इस द्व्यक्षर नाम का जप करके पार्वती जी ने प्रसन्न होकर शिवजी के साथ भोजन किया।
सहस नाम सम सुनि शिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥
– मानस १-१९-६
यहाँ जेई शब्द का अर्थ है भोजन करना। अर्थात् शिवजी की वाणी से राम नाम को सहस्रनाम के समान सुनकर तथा उसे ही जपकर पार्वती जी ने अपने प्रियतम भगवान् शंकर के साथ जीमन किया।
अब्दुरर्हीमखानखाना की दीनता भरी प्रार्थना हृदय को विगलित कर भगवान् श्री राम का ध्यान साकार करती है
“अहल्यापाषाणःप्रकृतिपशुरासीत्कपिचमूर्गुहोऽभूच्चण्डालस्त्रितयमपिनीतंनिजपदम्।
अहंचित्तेनाश्मापशुरपितवार्चादिकरणेक्रियाभिश्चाण्डालोरघुवरनमामुद्धरसिकिम्॥“
(अर्थात् अहल्या पत्थर की शिला थी और वानर सेना स्वभाव से पशु समूह था। गुह (निषादराज) चाण्डाल था। इन तीनों को आपने अपने पद मे ले गये। मैं चित्त से पत्थर, आपके पुण्यराशि से विमुख निरापशु और अपने कर्मों से चाण्डाल हूँ। क्या मेरा उद्धार नहीं करोगे?)
मदन चतुर्वेदी
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