Monday, 30 June 2025

अरंडी और तंबाकू

एक अरंडी का बीज लेकर छिलका निकाल कर अच्छी तरह से चबाकर 300ml चाय के जैसे गर्म पानी के साथ पहले दिन एक बीज, दूसरे दिन दो बीज इसी प्रकार 7 दिन लगातार एक बीज बढ़ाते हुए खाना है फिर आठवें दिन से 6 बीज नॉर्वे दिन 5 बीज यानी की 7 दिन क्रम अनुसार बढ़ाते हुए खाना है फिर 7 दिन क्रम अनुसार घटाना है। यह नुकसा आजमाइसी है, लगभग बहुत से लोगों को लाभ हुआ है।
  अरंडी के बीजों में ओलिक एसिड, रिकिनोइलिक एसिड, लिनोलिक एसिड और अन्य फैटी एसिड प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, गठिया, जोड़ों के दर्द वात रोग दाद खाज खुजली तथा अगर बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में रुकावट हो दूर होती है , कब्ज की हर प्रकार की बीमारी का दुश्मन है। मासिक धर्म संबंधित दोष तथा दर्द दूर होते हैं। परंतु जिन स्त्रियों को अभी और संतान की इच्छा हो ऐसी स्त्रियां लेने से बच्चे मेरे निजी सुझाव के अनुसार यह एक गर्भनिरोधक का कार्य करता है - स्त्रियों के द्वारा सेवन करने से संतान उत्पत्ति बाधा उत्पन्न कर सकता है।
  जोड़ों के दर्द तथा वात रोग के लिए तथा चमड़े की बीमारी और बालों में लगे कीड़े या बाल झड़ना संबंधित बीमारियों के लिए बहुत ही उपयोगी आजमायसी तम्बाकू का तेल
  ढाई किलो तंबाकू के पत्ते लेकर या तंबाकू लेकर साढ़े 7 लीटर पानी में शाम के समय आधा घंटा पीकर छोड़ दे और सुबह में पानी में अच्छी तरह से तंबाकू के पत्तों को मलकर पानी को निचोड़ लें किसी कपड़े की मदद से तत्पश्चात 1 लीटर तिल का तेल लेकर हल्की-हल्की मीठी आज में तेल और तंबाकू के पानी को पकाएं जब पानी खत्म हो जाए तेल को किसी मिट्टी के बर्तन में या कांच के बर्तन में स्टोर करके रख ले यह तेल गठिया वात चर्मरोग तथा तथा बाल झड़ने जैसे इत्यादि रोगों में बहुत ही लाभदायक है। हालांकि मेरे धर्म रीति अनुसार मैं इसका स्वप्रयोग तो नहीं किया परंतु अन्य को प्रयोग करवाया है ✍️🙏

ब्राह्मण

रावण को सीता का हरण करना था उसने वेष बनाया ब्राह्मण का। हनुमानजी को राम का भेद लेना हुआ उन्होंने वेष बनाया ब्राह्मण का। कालनेमी को हनुमानजी को उनसे मार्ग से भटकाना हुआ उसने वेष बनाया ब्राह्मण का। कर्ण को परशुराम जी से धनुर्वेद का ज्ञान लेना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। श्रीकृष्ण को कर्ण को छलना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। श्रीकृष्ण सहित भीमादि पांडवों को छल से जरासंध का वध करना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। वरुण को राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। विश्वामित्र को राजा हरिश्चंद्र को छलना को हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। विष्णु को राजा बलि को छलना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। अश्विनी कुमारों को च्यवन ऋषि की पत्नी सत्यवती की परीक्षा लेना हुआ वेश बनाया ब्राह्मण का। अपने अज्ञातवास के दौरान पांडव सहित कुंती तथा द्रौपदी ने कई बार ब्राह्मण का वेश धारण किया।

जब जब किसी को कोई समाजवर्धी , राष्ट्रविरोधी पाप और क्रूर कर्म करना हुआ तो उसने ब्राह्मण का वेश ही धारण किया। 
क्यों? क्योंकि ब्राह्मण नाम है एक भरोसे का। ब्राह्मण नाम है एक विश्वास का। ब्राह्मण नाम है सत्य का। ब्राह्मण नाम है धर्म का। ब्राह्मण नाम है सबका कल्याण चाहने वाला,सबको सुखी देखने वाला,सबको साथ लेकर सन्मार्ग पर चलने वाला,राष्ट्रभक्ति , दूरदर्शिता,अध्ययन,लगन, ज्ञान, त्याग, तप, बलिदान ,शील,धैर्य,निष्पक्षता,
संतोष और संयम का।
 इसलिए ब्राह्मण के नाम, ब्राह्मण की प्रतिष्ठा का लाभ उठाना बहुत आसान था। उसके वेश से, उसके नाम से लोगों को मूर्ख बनाना आसान था। उसके नाम से लोगों को ठगना आसान था। आज भी यही हो रहा है। हालांकि अब ब्राह्मण नाम ब्रांड नहीं एक धब्बे जैसा लगता है। ब्राह्मण होना पाप जैसा लगता है। 

आखिर ब्राह्मण इतने कुकर्मी हैं जो ? 
 ब्राह्मणों ने सदियों तक मौर्यवंशी सम्राटों, चंवर वंशी क्षत्रिय राजाओं (अब चमार), अहीर-यदुवंशी राजाओं, महार-कहार-कुर्मी-पासी-राजभर,मल्लाह-निषाद जाति के राजाओं, नाई जाति के राजाओं, डोम राजाओं, नागवंशी राजाओं, हैहय वंशी राजाओं, जाट-गुर्जर-पाल,बघेल-परमार-
प्रतिहार राजाओं,मराठा,डोंगरा, चोल-चालुक्य-वेंगी-वर्मन वंशी राजाओं, सूर्यवंशी, चंद्रवंशी चक्रवर्ती सम्राटों ,महाराजाओं का शोषण किया? उन्हें दबाया कुचला, पीड़ित और प्रताड़ित किया। वे राजे ,महराज के परिवार के लोग 80-90% और ब्राह्मण केवल 3-5%। राजे , महाराजे की सेना, उनका राजपरिवार,उनकी प्रजा, उनके हथियार, उनके अस्त्र-शस्त्र,किले, उनका खजाना, उनकी ताकत, उनके साथ उनकी बिरादरी का बल व सहयोग और ब्राह्मण ठहरे कमजोर अल्पसंख्यक? 
अल्पसंख्यक होते हुए भी ब्राह्मण एक धोती, शिखा, जनेऊ, तिलक, छोटी सी कुटिया में रहने वाले , कभी कभी भूखे पेट रहकर सोने वाले ने राजे , महाराजे और उनके परिवार को लूट लिया? बर्बाद कर दिया है? सदियों तक शोषण करके तबाह कर दिया? और इस कदर तबाह किया वे अपना सिर ही न उठा सके? अब झूठे और मनगढ़ंत शोषण की झूठी कहानियों पर आधारित इतिहास का बदला लिया जा रहा है? 
या तो क्या गैर ब्राह्मण राजे , महाराजे इतने अनभिज्ञ,अदूरदर्शी , मूर्ख, निर्बुद्धि, कायर, निर्बल ,असहाय और अज्ञानी थे कि उन्हें ब्राह्मणों का अत्याचार, कमीनापन दिखा नहीं अथवा ब्राह्मण वाकई इतने योग्य, सामर्थ्यवान थे कि राजे , महाराजे लोग चकरघिन्नी की तरह सहस्राब्दियों तक नाचते रहे, नट-मरकट की तरह अथवा यह अब तक का सबसे बड़ा झूठ है, षड्यंत्र है, धोखा है।
 प्रकृति की अनमोल धरोहर मानव हो ,मानवता दिखाई पड़नी चाहिए ,जातीयता नहीं 
इन चंद जातिवादी हिंदू विरोधी,सनातन संस्कृति विरोधी चाटुकारों की राजनैतिक पराकाष्ठा के झांसे में ना आएं ।

स्त्री की लालसा

स्त्री जब अतिरिक्त लालसा और सरप्लस अभिलाषा के जाल में फंसती है , तभी ऐसा होता है l और यह उस का अपना ही चयन होता है , उस का ही अपना विवेक होता है l 

खामखा पुरुष सत्ता , पितृसत्ता को गरियाना वामपंथी बीमारी है l वामपंथियों ने औरतों को भोगने के लिए यह शब्दावली थमा दी l और औरतें इसे ले उड़ीं l पितृ सत्ता न हो तो , अराजक , बीमार और कुंठित मर्द औरत को भून कर खा जाएं l 

पितृसत्ता के नाम पर विमर्श करने वाली स्त्रियां एक बार अपने पिता , भाई , पति और पुत्र के बिना अपने को रख कर देख लें न ! 

समाज कहां जाएगा , और औरतें कहां जाएंगी , अकल्पनीय है यह कह पाना l पिता, पति, पुत्र का कवच-कुंडल हटते ही स्त्री , बिना पतवार की नाव सरीखी हो जाती है l जो जब चाहता है , जिधर चाहता है , बहा ले जाता है l कभी फुसला कर , कभी जबरिया l 

तो पितृसत्तात्मक समाज को कोसना बंद करना चाहिए l चाहे पौराणिक काल हो , आज का समय हो , हर बार स्त्रियों की रक्षा , यही पितृ सत्ता करती आई है l राम ने रावण से युद्ध किया तो सीता के लिए ही , राजगद्दी के लिए नहीं l कृष्ण ने द्रौपदी को चीर हरण से बचाया तो स्त्री की लाज के लिए ही l ऐसे अनेक प्रसंग आज भी उपस्थित हैं l रहेंगे l स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं तो यह पितृ सत्ता के कारण हैं l 

जाइए कभी शिलांग l कभी गौहाटी l कभी थाईलैंड l मातृसत्तात्मक समाज है वहाँ l देखिए कि कितनी अराजकता , असभ्यता और हिंसा है l कितना बिखराव है , समाज और परिवार में l 

बाक़ी स्त्रियों का अपना विवेक है l अपनी समझ और राय है l अपनी बात कहने के लिए कोई मनाही तो है नहीं l लेकिन पत्थर पर कुदाल चलाने से चोट अपने ही पांव पर लगती है l घायल अपना ही पांव होता है l

(एक मित्र की पोस्ट पर मेरा यह कमेंट l)

मनुस्मृति

मनुस्मृति (१)

अब जबकि मनुस्मृति के विरुद्ध युद्ध छेड़ ही दिया गया है और उसे संविधान के द्वैत में खड़ा कर ही दिया गया है तो अब यह उतना ही जरूरी हो गया है कि चुनौती स्वीकार ही कर ली जाये और उन बंदों को भी आईना दिखाया जाये जो बड़े आधुनिक, जातिप्रथा विरोधी और समतावादी समाज के होने का दावा करते हैं। 

ये लोग तो तभी हार गये थे जब इन्होंने एक पुस्तक को जलाया था। भारत में तर्क-वितर्क की, खंडन-मंडन की, शास्त्रार्थ की इतनी लंबी परम्परा चली आई है। ध्यान यह भी दें कि चाहे मनुस्मृति को जलाया जाये चाहे रामचरितमानस को जलाया जाये या गीता को- कभी भी उस समाज ने जो इनका आदर करता है, कोई फतवा जारी नहीं किया, कोई सर तन से जुदा का आह्वान नहीं किया, किसी को ‘खुदा का दुश्मन’ नहीं घोषित किया। भारत की संस्कृति में वैसा कोई Index Librorum Prohibitorum (Index of Forbidden Books) नहीं रहा जैसा चर्च के इतिहास में रहा? 1242 में पेरिस में पोप नवम ग्रेगरी ने तालमुद और यहूदी पुस्तकों को जलाने के आदेश दिये थे। 1244 में पूरे यूरोप में ये पुस्तकें चर्च के आदेश से जलाई गईं। Impia Judaeorum Perfidia (1244) इसकी पुष्टि करता है। बाद में पोप इनोसेंट चतुर्थ के समय भी यही हुआ। 1121 में Theologia Summi Boni पुस्तक चर्च के आदेश से जलाई गईं। जॉन वाइक्लिफ की किताब De Civili Dominio सहित उसका बाइबिल अनुवाद जला दिया गया। सन 1520 में पोप लियो दशम् की धर्माज्ञा Exsurge Domine के द्वारा मार्टिन लूथर किंग की पुस्तकें On the Babylonian Captivity of the Church और The Freedom of a Christian सहित बहुत सी पुस्तकें जलवाई गईं। टिंडेल की अनूदित बाइबिल से लेकर गैलीलियो की डॉयलॉग तक कितनी ही पुस्तकों को जलाया गया। मैं पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों को जलाने की असंख्य औपनिवेशिक घटनाओं का कोई उल्लेख नहीं कर रहा हूँ। 

तो जब मनुस्मृति को जलाया गया वह कोई क्रांतिकारी काम नहीं था। वह औपनिवेशिक तौरतरीकों का अनुसरण था। भारत में असहमति पर शास्त्रार्थ और संवाद होता था। याज्ञवल्क्य का किन किन से नहीं हुआ। कभी उषस्ति चाक्रायण से। कभी गार्गी वाचक्नवी से। कभी मैत्रेयी से।प्रह्लाद की बहस इन्द्र से होती थी। ढेरों उदाहरण हैं। 

सभ्यता यही है और असल असभ्यता बुक बर्निंग है। आज तो मैं ऐसे ऐसे मूर्खों को मनुस्मृति के विरुद्ध बोलते देखता हूँ जिन्होंने मनुस्मृति को पढ़ा भी नहीं है पर उसके विरुद्ध नित्य टी वी चैनलों पर जहर उगलना उनके लिए जरूरी बन गया है। 

जॉर्ज बुहलर (सैक्रेड बुक्स ऑफ ईस्ट सीरीज) और पांडुरंग वामन काणे (हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र) ने मनुस्मृति के प्रक्षेपों का विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने सुझाया कि मूल मनुस्मृति संभवतः एक संक्षिप्त “मानव धर्मसूत्र” पर आधारित थी, जिसे बाद में विस्तारित और संशोधित किया गया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने “सत्यार्थ प्रकाश” में मनुस्मृति के कई अंशों को प्रक्षिप्त बताया, खासकर वे जो वेदों से असंगत हैं। उन्होंने सिद्ध किया कि मूल मनुस्मृति वैदिक सिद्धांतों पर आधारित थी। डॉ. सुरेंद्र कुमार ने “विशुद्ध मनुस्मृति” नामक ग्रंथ में प्रक्षिप्त श्लोकों को हटाकर मूल ग्रंथ को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। लेकिन ध्यान देने की बात है कि प्रक्षेपों के निष्कासन की जगह सम्पूर्ण मनुस्मृति को जलाया जा रहा है और एक आदिग्रंथ के विरुद्ध मूर्ख घृणा का एक माहौल बनाया जा रहा है। 

मनुस्मृति की 50 से अधिक पांडुलिपियां उपलब्ध हैं, और इनमें श्लोकों की संख्या (2684 से 2964 तक) और सामग्री में भिन्नताएं हैं।

और भारत में कई पब्लिकेशन हैं जो भारतीय ग्रंथों में मनमाना कुछ भी घुसेड़ कर अपना एजेंडा पूरा कर रहे हैं। 2016 और 2023 में ऐसे पब्लिशर्स के विरुद्ध कार्रवाई भी हुई। 

शताब्दियों से यह स्ट्रेटेजी चली आई है। होमर की इलियड और ओडेसी में 15 से 20% का प्रक्षेप माना जाता है। स्वयं बाइबिल में ये प्रक्षेप माने जाते हैं। शैतानी छंदों पर विवाद अलग हो चुका है। 

लेकिन जो बुद्धिमान होते हैं वे गेहूँ को भूसी से अलग कर लेते हैं। उन्हें दूध का दूध पानी का पानी करना आता है। वे नीर-क्षीर विवेक से सम्पन्न होते हैं। हंसो हि क्षीरं क्षिपन्ति जलं च त्यजन्ति। प्रक्षेपों को पहचानना कठिन नहीं है। पाठ्यगत असंगतियों ( textual inconsistencies) और अंतर्विरोधों ( contradictions) से समझ आ जाता है। छंदों के और छंदक्रम के उचित निर्वहन न होने से समझ आ जाता है। भाषाशास्त्रीय और शैलीगत विरोधों से समझ आ जाता है। अलग अलग पांडुलिपियाँ भेद खोलती हैं। cross-textual तुलनाएँ बता देती हैं। सैद्धान्तिक या विचारधारात्मक प्रदूषण ( doctrinal and ideological anomalies) बता देते हैं। टीकाएँ बताती हैं। बाहरी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं। 

पर यह सब पढ़े लि़खों का नसीब। अनपढ़ों और अर्धसाक्षरों का समय पुस्तकों का अपमान करता ही है। 

पर ये लोग कभी बताएँगे कि जब संविधान भी एक पुस्तक है, तब उसके प्रावधानों पर बहस से इतना कतराते क्यों हैं? 

बौद्धिकता से डर लगता है तो अपने बौद्धिक आलस्य के चलते किसी पुस्तक की रक्षा करते हैं और उसी आलस्य के चलते किसी दूसरी पुस्तक को पढ़े और समझे बिना जलाते भी हैं।

मनुस्मृति (२)

मनुस्मृति की कोई स्पर्धा संविधान से नहीं है। जब मनुस्मृति बनी तब संविधान का अस्तित्व ही नहीं था। 

मनुस्मृति की कोई स्पर्धा संविधान से हो भी नहीं सकती। संविधान भारत के लिए है, मनुस्मृति मानवता के लिए है। वह सभी वर्णों के लिए है और वह धर्म बताने के लिए है। जैसे वेद भारत ही के लिए नहीं है, वेदाधृत मनुस्मृति भी भारत भर के लिए नहीं है। मनु वेद को मनुष्य का शाश्वत नेत्र कहते हैं - पितृदेवमनुष्यमाणां वेदश्चक्षु: सनातनम्‌। संविधान ‘हम भारत के लोग’ के लिए है, मनुस्मृति नहीं। उसमें धर्म की परिभाषा ही इतनी व्यापक है-

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)

एक अन्य स्थान पर मनु धर्म यह बताते हैं -:

वेदाभ्यास:, तपः, ज्ञानम्‌, इन्द्रियाणां च संयम: । धर्मक्रिया, आत्मचिन्ता च नि: श्रेयसकरं परम्‌॥

मनु नहीं कहते In God we trust. वो अल्लाह की कल्पना को भी धर्म के लिए आवश्यक नहीं बताते। 

संविधान भारत को राज्यों का संघ कहता है-इस तरह वह भारत की उत्पत्ति कथा का आधार बताता है। India that is Bharat में इस देश की सांस्कृतिक जड़ों का संकेत है। 

पर मनुस्मृति इस जगत् की उत्पत्ति की बात करती है: 

आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्‌ । अप्रतर्क्यमविज्ञेय॑ प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥

यानी यह सब दृश्यमान जगत्‌ सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयकाल में तम अर्थात्‌ मूल प्रकृति रूप में एवं अन्धकार से आच्छादित था, स्पष्ट-प्रकट रूप में जाना जाने योग्य कुछ नहीं था, सृष्टि का कोई लक्षण-चिह्न उस समय नहीं था, न कुछ अनुमान करने योग्य था, सब कुछ अज्ञात था, मानो सब ओर, सब कुछ सोया-सा पड़ा था॥

मनुस्मृति मानवता का टेक्स्ट है, संविधान का वृत्त सीमित है। उसे सृष्टि की व्युत्पत्ति से मतलब नहीं। दोनों का contextual template ही अलग अलग है। 

फिर मनुस्मृति आत्मार्पित नहीं है। वह तो महर्षियों के द्वारा मनु से जिज्ञासा करने का परिणाम है। संविधान एक आलोड़न की स्थिति में लिखा गया है। देश विकट परिवर्तनों, उद्विग्नताओं और उथलपुथल से गुजर रहा था तब हमारा संविधान बन रहा था। पर मनुस्मृति एक अद्भुत प्रतिभाशाली व्यक्ति की एकाग्रता, अविचलितता और ध्यानस्थता के कारण संभव हुई, यह मनुस्मृति के पहले शब्द ‘मनुमेकाग्रमासीनभिगम्य’ से स्पष्ट है। 

संविधान अधिनियमित है, मनुस्मृति नहीं है। इसलिए संविधान को सुविधा है कि उसमें कोई भी संशोधन एक औपचारिक सामूहिक प्रक्रिया के माध्यम से हो। मनुस्मृति में तो जैसा हम देख चुके हैं कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा आकर कुछ भी जोड़ जाता है। और सिर्फ जोड़ने की बात नहीं, टीका की भी बात है।टीका अर्थविस्तार करे तो समझ आता है पर वह अर्थ-संकुचन करे तो मुश्किल होती है। सायण ने वेद का यज्ञपरक अन्वय किया तो वही काम मेधातिथि ने मनुस्मृति के साथ किया। लेकिन न तो वेद अनुष्ठानमूलक थे और न वेदाश्रित मनुस्मृति। यज्ञ के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक अभिप्राय थे। जब वेद का अर्थ ही ज्ञानमूलक है तो उनके यज्ञ कर्मकांडमूलक कैसे हो सकते थे? जो मनु यह कह रहे थे कि चारों वर्णों, चारों आश्रमों, तीनों लोकों और तीनों कालों का ज्ञान वेद से है -: 

चातुवर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमा: पृथक्‌।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात्‌ प्रसिद्धयति ॥

जो समस्त व्यवहारों का साधक वेद को बता रहे थे: 

बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम्‌ । तस्मादेतत्‌ परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्‌॥

उनकी मनुस्मृति के सर्वशुद्ध पाठ के लिए वेदानुकूलता एक बड़ा आधार है। इसलिए जो लोग मनुस्मृति पर किये गये कटाक्षों की उपेक्षा यह मान करते हैं कि वे तो मात्र एक स्मृति पर ही हैं, वे नहीं समझते कि ऐसे लोगों को यदि यहीं स्तंभित नहीं किया गया तो एक दिन ये वेद पर भी आयेंगे। उनका निशाना मनुस्मृति नहीं है, हिन्दुत्व है। आपकी पवित्र पुस्तकें आपके किले हैं। आप यह सोचकर असावधान रहेंगे कि यह तो सिर्फ एक किला गया और ‘दिल्ली दूर अस्त’ तो एक दिन आप कहीं के नहीं रहेंगे। आप सोचते हैं कि दूसरों के पास एक एक पुस्तक है और आपके पास पूरी एक लाइब्रेरी है तो आप एक दो तीन पुस्तकों का जलना अफोर्ड कर सकते हो, एक दिन आपका विद्या के प्रति यही लापरवाह नज़रिया आपके सामने वह स्थिति लायेगा जब इस लाइब्रेरी की पुस्तकें दीमकें खा चुकी होंगी। 

अब मध्यकाल की तरह पुस्तकालय जलाये नहीं जाते। अब वही काम एक क्रमिक तरह से दीमकें करती हैं। 
(क्रमशः) 
मनुस्मृति (३)

मनुस्मृति एक ऐसी पुस्तक है जिसके विरुद्ध औपनिवेशिक काल में एक smear campaign चला। हम उसकी चर्चा बाद में करेंगे पर यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ही थी जिसने सबसे पहले मनुस्मृति के पृष्ठों पर से धूल झाड़ी और उसे हिन्दू विधि संहिता के एकमात्र आधार के रूप में प्रयुक्त करना शुरू किया। 

इस कंपनी के द्वारा कमीशन की गई और जॉन बेकन द्वारा बनाई सर विलियम जोंस की एक विशालकाय प्रतिमा लंदन के सेंट पॉल कैथेड्रल में है। इसमें उसका हाथ जिस पुस्तक पर टिका बताया गया है, वह Menu’s Institutes के नाम से यह मनुस्मृति ही है।हालाँकि मनु का नाम देवनागरी में लिखा गया है। 

सर जोन्स ने मनुस्मृति का सन 1776 में अनुवाद किया था और उसे पढ़कर ही समझ आता है कि क्यों किसी समय बाइबिल के अंग्रेज़ी में अनुवाद का चर्च इतना विरोध करता था।मनुस्मृति को आर्डिनेंस के रूप में बताना ही बहुत बड़ी त्रुटि थी। स्मृति मेमोरी थी, पर अध्यादेश कभी नहीं थी। सर जोन्स कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे और उनकी मन:निर्मिति ने मनुस्मृति के एतदनुसार प्रयोग में बड़ी भूमिका अदा की। वे मनु को भारत के जस्टिनियन की तरह देखते थे। 

उन्होंने कहा कि मनु ने ब्रह्मा के द्वारा सिखाये गये एक लाख छंदों के कानूनों को primitive world को समझाया। हालाँकि मनुस्मृति का एक सहज पाठ ही बताता है कि यह प्रिमिटिव संसार की नहीं, एक विकसित समाज की रचना है। और जब मनुस्मृति लिखी गई तब यूरोप सहित शेष विश्व में कानून/व्यवस्था नामक किसी चीज का अता पता न था। बहरहाल जोन्स बताते हैं कि नारद और भृगुपुत्र सुमति ने उसका संक्षिप्तीकरण किया। फिर वे 2585 रह गये। सर जोन्स मेधातिथि, गोविंदराज, कुल्लुकभट्ट और धरणीधर की टीकाओं का उल्लेख भी करते हैं। सर जोन्स स्वयं भी कहते हैं कि जिस पंडित के साथ उन्होंने इसे पढ़ा उसने अपना नामोल्लेख न किये जाने की प्रार्थना की। वे पंडितों के द्वारा किये गये असहयोग का भी उल्लेख करते हैं और यह बताते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक के फारसी अनुवाद को बनारस के चीफ़ नेटिव मजिस्ट्रेट से प्राप्त किया। वे स्वयं यह कहते हैं कि फारसी अनुवाद बहुत ही rude और loosely rendered है। कि यह त्रुटियों से भरपूर है जो संभवतः जल्दबाज़ी और अज्ञान का परिणाम है। 

हमने मनु की एकाग्रता का उल्लेख किया है। मनुमेकाग्रमासीनभिगम्य। इस एकाग्रता में कहीं ईश्वर का उल्लेख नहीं है। पर सर विलियम जोन्स जब इसका अनुवाद करते हैं तो कहते हैं कि: ‘With his attention fixed on one object, the Supreme God’. अब एकाग्रता के लिए सुप्रीम गॉड को सोचे बिना ईसाई दिमाग आगे बढ़ ही नहीं सकता था, इसलिए जब जोन्स के उस अनाम पंडित से पूछा गया होगा तो उसने कह दिया होगा- सर्वोच्च ईश्वर। क्योंकि इन्हें लगा होगा कि बहुदेववाद से एकाग्रता कहाँ आ सकती है। मनु तो धर्म तक की गुणमूलक परिभाषा देते हैं जिसमें सुप्रीम गॉड का होना भी अनिवार्य नहीं। पर जोन्स की मनोरचना में वह बात आ ही नहीं सकती थी। 

यों इस पहले शब्द से त्रुटिपूर्ण अनुवाद की एक श्रृंखला शुरू होती है तो वह चलती ही जाती है।

तो जो इंग्लैंड 🏴󠁧󠁢󠁥󠁮󠁧󠁿 से शिक्षित होकर लौटे सज्जन मनुस्मृति की प्रतियाँ जलाये, वे कौन से अनुवाद को पढ़े थे? क्या उन्हें संस्कृत और विशेषतः क्लासिकल संस्कृत का ज्ञान था? 

या जो अब misinformation और disinformation का अभियान चलाये हुए हैं, उनकी संस्कृत के संस्कारों से कितनी अभिज्ञता है। क्या सेलेक्टिव quoting के उनके खेल को हम नहीं जानते? हमने कैरेक्टर एसेसिनेशन के बारे में खूब सुना है पर किसी पुस्तक के ऐसे एसेसिनेशन को देखिए।ये एक आम सनातनी हिन्दू के मन में Guilt by association भरने की वैसी ही कोशिश है जैसे कभी स्वस्तिक और आर्य के नाम से हिटलर और फासिज्म और नाजिज्म सब हिन्दुओं पर मढ़ दिये गये थे। हिटलर स्वयं अपनी क्रिश्चियन प्रेरणाओं पर गर्व करता रहा पर हमारे एजेंडेबाजों को तो यह ज़्यादा पुसाया कि सनातन की लिंक कैसे तो भी उससे स्थापित की जाये। 

आम भारतीय के मन का मनु के विरुद्ध ही मैनिपुलेशन करना और मनुस्मृति के खिलाफ एक तरह की outrage baiting करना और दलितों के विक्टिमहुड नैरेटिव को मनुस्मृति के कारण बताना निरक्षरता के चलते नहीं हुआ, नीयत के चलते हुआ। इसके ज़रिए भारत की सामाजिक एकता को फ्रेक्चर करने कोशिश औपनिवेशिक समय में भी की गई और अभी भी उसी एकता से भयभीत होकर ये हरकतें हो रही हैं। जो मनु धर्म में अपरिग्रह देखता हो, उसे शोषणकर्ता बताओ। एक मूवी 2012 में आई थी- शूद्रा। उसमें मनु को बाहर से आया आक्रमणकारी बताया था। उसमें वही atrocity porn था कि जिसमें ऊँ नम: शिवाय का उच्चारण करने पर एक पाँच वर्ष के दलित बच्चे को सजा दी जाती है और जो देखा जाये तो भक्ति आंदोलन की उपलब्धियों को झुठलाने की बेहूदा कोशिश भर थी। 

और ये भी पता करें कि वे कौन थे जिन्होंने महिलाओं को संपत्ति के अधिकार के मामले में प्रिवी कौंसिल की आलोचना इस बात पर की थी कि उसने मनुस्मृति या याज्ञवल्क्यस्मृति की जगह प्रथा को महत्व दिया। उन्होंने कहा था :

“प्रिवी काउंसिल ने जो निर्णय दिया है, उसके लिए मैं बहुत खेद व्यक्त करता हूँ। इसने हमारे कानून में सुधार का मार्ग अवरुद्ध कर दिया है। प्रिवी काउंसिल ने पहले के एक मामले में कहा था कि प्रथा कानून पर हावी होगी, जिसके परिणामस्वरूप हमारी न्यायपालिका के लिए हमारे प्राचीन संहिताओं की जांच करना और यह पता लगाना असंभव हो गया कि हमारे ऋषियों और स्मृतिकारों ने कौन से कानून बनाए थे। मुझे इस बारे में जरा भी संदेह नहीं है कि यदि प्रिवी काउंसिल ने यह निर्णय नहीं दिया होता कि प्रथा पाठ पर हावी होगी, तो कोई वकील, कोई न्यायाधीश याज्ञवल्क्य और मनुस्मृति के इस पाठ को खोज निकालना बहुत संभव पाता और महिलाएँ आज लाभ ले रही होतीं। “

ये वही थे जिन्होंने उसे जलाया था। जब हिंदू कोड बिल उन्होंने बनाया तो बहुत हद तक मनुस्मृति ही उनके काम आई थी। 

(क्रमशः)

मनुस्मृति इन दिनों चर्चा में है। इस संबंध में एक पुरानी पोस्ट साझा कर रही हूँ: 

शब्दों के जाल में फंसे हिन्दू ग्रन्थ 

अंग्रेजों ने भाषांतरण के द्वारा हिन्दू धर्म की अवधारणाओं को संकुचित करने का कार्य किया है तथा दुर्भाग्य से उसी भाषांतरण के आधार पर आगे के कार्य हुए या कहें यही अंग्रेजी भाषांतरण ही सन्दर्भ ग्रन्थ बन गए एवं संस्कृत ग्रन्थ नेपथ्य में चले गए. 
मनुस्मृति के श्लोकों एवं उनके अंग्रेजी भाषांतरण से इसे और अच्छी तरह से समझा जा सकता है. प्रथम भाग में श्लोक संख्या 7, जो जगत की उत्पत्ति के विषय में है, उसमें लिखा है कि 
योऽसावतीन्द्रियग्राह्य: सूक्ष्मोऽव्यक्त: सनातन:
सर्वभूतमयोऽचिन्त्य: स एव स्वयमुद्बभौ 
जो व्यक्ति संस्कृत नहीं भी समझता है वह भी इसमें अतीन्द्रिय शब्द से यह समझ जाएगा कि यह इन्द्रियों से सम्बन्धित है. अर्थात हमारे भावों/senses/अनुभूतियों से सम्बन्धित है, अर्थात यहाँ अनुभूतियों से सम्बन्धित कुछ है. इसका हिन्दी में अर्थ चौखम्बा प्रकाशन से प्रकाशित मनुस्मृति में इस प्रकार दिया गया है 
जो भगवान (परमात्मा) अतीन्द्रिय (नेत्र आदि इन्द्रियों से अग्राह्य एवं योग से ग्राह्य), सूक्ष्मरूप, अव्यक्त, नित्य और सब प्राणियों की आत्मा (अतएव) अचिन्त्य हैं; वे ही परमात्मा स्वयं प्रकट हुए. 
विलियम जोन्स इसके भाषांतरण में लिखते हैं 
HE, whom the mind alone can perceive, whose essence eludes the external organs, who has no visible parts, who exists from eternity, even He, the soul of all beings, whom no being can comprehended, shone forth in person. 
इन्होनें इन्द्रियों को external organs कहा है. बाहरी अंग और इन्द्रियों में अंतर है. बाहरी अंग होते हैं हाथ, पैर, उंगली आदि अंग होते हैं, तो वहीं नेत्र, नाक, जीभ, कान और त्वचा इन्द्रियाँ होती हैं. इन्द्रियों को अंग्रेजी में sence-organs लिखा जा सकता है, परन्तु external organs इन्द्रियों के अर्थ को मात्र बाहरी अंगों तक सीमित कर रहा है. 
वहीं बहलर ने इसका भाषांतरण किया है:
He who can be perceived by the internal organ (alone), who is subtle, indiscernible, and eternal, who contains all created beings and is inconceivable, shone forth of his own (will). 
बह्लर ने लिखा है कि जो मात्र आतंरिक अंग से ही अनुभव किया जा सकता है. आतंरिक अंग क्या होते हैं? या इन्द्रियाँ आंतरिक अंग हैं? 
मनुस्मृति की और विस्तार से व्याख्या करने वाली पुस्तक Manusmriti Explanation में अतीन्द्रिय का अर्थ दिया गया है “unperceivable by external senses” तथा सूक्ष्म का अर्थ लिखा है कि “who is perceivable by subtle understanding only” 
परन्तु बहलर और विलियम जोन्स ने इन्द्रियों का अर्थ समझे बिना “अंग अर्थात organs” के रूप में भाषांतरित कर दिया है. 
हिन्दू धर्मग्रंथ बहुत अधिक शब्दजाल का शिकार हुए हैं. यदि भाषांतरण किसी भी हिन्दू ग्रन्थ का आप अंग्रेजी में पढ़ रहे हैं, तो उसका संस्कृत भी साथ में पढ़ना अनिवार्य है, एवं साथ ही किसी योग्य गुरु से ही उनका अर्थ समझा जाए तो ही बेहतर होगा. क्योंकि ऐसे भाषांतरण को पढ़कर ही लोग हिंदूधर्म पर किताबें लिखकर भाषांतरित पुस्तकों का संदर्भ देते हैं और अर्थ का अनर्थ और विस्तारित करते हैं!
*विश्लेषण भाषांतरण और शब्दों के आधार पर है

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मनुस्मृति के विरोधी एक दिन इतना मनुस्मृति-मनुस्मृति कर देंगे कि लोग इसे पढ़कर चर्चा करने लगेंगे, जो कि करनी भी चाहिए! जितना डराया जा रहा है, जब उसमें से डरने वाला बहुत कुछ नहीं निकलेगा, तो कई दुकानें बंद होंगी! 
ग्रंथ से डरना कैसे, चर्चा होनी चाहिए!

Tuesday, 24 June 2025

अक्रूर

विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम आता है, "अक्रूर". इसका अर्थ सरल है. व्याख्या की आवश्यकता नहीं. किंतु यह शब्द सुनते ही भागवत के एक चरित्र की बरबस ही याद आ जाती है. अक्रूर जी भगवान कृष्ण को मथुरा ले जाने गोकुल पहुंचते हैं. परम भागवत अक्रूर जी के मन मे यह धुकधुकी थी कि नंदलाल भला उनको स्वीकार करेंगे कि नहीं? अथवा कंस के संसर्ग से उत्पन्न दोष से उन्हें कहीं विमुख तो ना कर देगे.
गोकुल पहुँच अक्रूर जी ने देखा कि श्री कृष्णचन्द्र जी गौओं के दोहन स्थान पर बछड़ों के साथ विराजमान हैं. वहां उनका हासयुक्त मुखारविंद पूरी दिव्यता के साथ सुशोभित हो रहा है.
अक्रूर जी ने वहां पहुँच गोविन्द के चरणों में झुक किंचित झिझक के साथ अपना परिचय दिया. किंतु यह यह क्या.. ब्रजेंद्र ने अक्रूर जी को प्रीति पूर्वक खींचकर गाढ़ आलिंगन किया. गोपीजन वल्लभ की यह जादू भरी झप्पी सारे भेद, संशय, संकोच मिटा देती है. सुदामा हो या अक्रूर उन्हें इसी गाढ़ आलिंगन में ही अलभ्य खजाने मिल गये.
"अक्रूर: पेशलो दक्षो दक्षिण: क्षमिणां वर:"
भगवान "अक्रूर" ही नहीं "पेशल "भी हैं. भाष्यकार श्री शंकराचार्य जी के अनुसार जो कर्म, मन, वाणी और शरीर से सुन्दर हो, उसे "पेशल" कहते हैं.
ऐसे " पेशल" भगवान कृष्ण और दाऊ भैया बलराम को अक्रूर जी जब अपने रथ में गोकुल से मथुरा जाते हैं, तो रास्ते में मध्याह्न के समय अक्रूर जी भगवान की आज्ञा लेकर यमुना स्नान और संध्या करते हैं. उस समय उन्हें यमुना नदी के भीतर भगवान कृष्ण के एक अद्भुत और विलक्षण दर्शन होते हैं. यह बड़ा ही मनोरम प्रसंग है.इसके बाद अक्रूर जी भगवान की स्तुति करते हैं. अक्रूर जी द्वारा की गयी स्तुति को भागवत की रसपूर्ण स्तुतियों में एक माना जाता है.
अब जरा कथा का गियर बदल देते हैं. द्वापर से त्रेता में चलते हैं. अक्रूर जी यहाँ भगवान को ला रहे है. वहाँ सुमंत्र जी भगवान को छोड़ने जा रहे है. भगवान तो पूर्णब्रह्म है.सुख दुःख से सर्वथा परे. पर पता नहीं क्यों अक्रूर जी का प्रसंग पढ़ कर जितना आनंद आता है, उतना ही सुमंत्र जी वाला प्रसंग पढ़ एक अनकहा अवसाद खड़ा हो जाता है.
यानी भगवान के आने का प्रसंग बहुत ही सुखद और जाने का प्रसंग निश्चय ही अप्रिय होता है. खैर, छोड़िए यह सब...परेशान होने की बात नहीं है. एक जुलाई को सबको मौका मिलने वाला है. अक्रूर जी की तरह जो चाहे भगवान जगन्नाथ का रथ खींच सकता है. चाहे तो अक्रूर जी की स्तुति भी दोहरा सकता है:-
"" ऊँ नमो वासुदेवाय नमस्संकर्षणाय च. 
प्रद्युम्नाय नमस्तुभ्यमनिरुद्धाय ते नम:""


गायत्री का अर्थ सूर्य भी नहीं है

गायत्री का अर्थ सूर्य भी नहीं है। सविता का अर्थ है, उत्पन्न करने वाला, या जन्म देने वाला। पृथ्वी के लिये यह सविता सूर्य ही है, किन्तु तत् (वह) सविता सूर्य के जनक का भी जनक परब्रह्म है। सूर्य प्रसंग में गायत्री का प्रथम पाद सूर्य, द्वितीय पाद उसका तेज, तथा तृतीय पाद उसका हमारी चेतना पर प्रभाव। नाभि चक्र से सूर्य तक हमारा सम्बन्ध ब्रह्मरन्ध्र तक अणु पथ से, उसके बाद महापथ से है (छान्दोग्य तथा बृहदारण्यक उपनिषद) यह मुहूर्त में प्रकाश गति से तीन बार जा कर लौट आता है (ऋग्वेद, ३/५३/८)।
सामान्यतः गायत्री के तीन पाद ब्रह्मा, विष्णु, शिव का निर्देश करते हैं। शक्ति रूप में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती हैं। राम का परब्रह्म रूप प्रथम पाद है, विश्व में प्रसारित प्राण शक्ति रं द्वितीय पाद है (प्राणो वै रम्), उससे हमारी जीवन क्रिया तृतीय पाद है।
केवल ब्रह्मा रूप में सृष्टि का मूल पदार्थ रस प्रथम पाद, आकर्षण द्वारा सृष्टि क्रिया द्वितीय पाद, सृष्टि तथा शब्द वेद तृतीय पाद है।
विष्णु रूप में प्रथम पाद है-एकोऽहं बहु स्याम, द्वितीय पाद सूर्य रूप में शक्ति केन्द्र तथा तृतीय पाद मनुष्य की चेतना है। 
शिव रूप में प्रथम पाद श्वोवसीयस मन है, द्वितीय पाद रुद्र तेज है, तृतीय पाद मस्तिष्क में ज्ञान की प्रेरणा है।
हनुमान रूप में स्रष्टा रूप वृषाकपि, तेज रूप मारुति तथा ज्ञान रूप मनोजव है। इनके विस्तृत सन्दर्भ हैं।

Monday, 23 June 2025

गुरुत्वाकर्षण और भारतीय साहित्य

हम न्यूटन को जानते हैं, स्वामी ज्येष्ठदेव को नहीं..

क्या आप न्यूटन को जानते हैं?? 

जरूर जानते होंगे, बचपन से पढ़ते आ रहे हैं... 

लेकिन क्या आप स्वामी माधवन या ज्येष्ठदेव को जानते हैं?

नहीं जानते होंगे... तो अब जान लीजिए.

अभी तक आपको यही पढ़ाया गया है कि न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिक ही कैलकुलस, खगोल विज्ञान अथवा गुरुत्वाकर्षण के नियमों के जनक हैं,

लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सभी वैज्ञानिकों से कई वर्षों पूर्व पंद्रहवीं सदी में दक्षिण भारत के *स्वामी ज्येष्ठदेव* ने ताड़पत्रों पर गणित के ये सारे सूत्र लिख रखे हैं. 

इनमें से कुछ सूत्र ऐसे भी हैं, जो उन्होंने अपने गुरुओं से सीखे थे। यानी गणित का यह ज्ञान उनसे भी पहले का है, परन्तु लिखित स्वरूप में नहीं था.

“मैथेमेटिक्स इन इण्डिया”पुस्तक के लेखक किम प्लोफ्कर लिखते हैं कि, “तथ्य यही हैं सन 1660 तक यूरोप में गणित या कैलकुलस कोई नहीं जानता था। जेम्स ग्रेगरी सबसे पहले गणितीय सूत्र लेकर आए थे. 

जबकि सुदूर दक्षिण भारत के छोटे से गाँव में स्वामी ज्येष्ठदेव ने ताड़पत्रों पर कैलकुलस, त्रिकोणमिति के ऐसे-ऐसे सूत्र और कठिनतम गणितीय व्याख्याएँ तथा संभावित हल लिखकर रखे थे, कि पढ़कर हैरानी होती है. 

इसी प्रकार चार्ल्स व्हिश नामक गणितज्ञ लिखते हैं कि.....

“मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि शून्य और अनंत की गणितीय श्रृंखला का उदगम स्थल केरल का मालाबार क्षेत्र है”.

स्वामी ज्येष्ठदेव द्वारा लिखे गए इस ग्रन्थ का नाम है “युक्तिभाष्य”, जो जिसके पंद्रह अध्याय और सैकड़ों पृष्ठ हैं. 

यह पूरा ग्रन्थ वास्तव में चौदहवीं शताब्दी में भारत के गणितीय ज्ञान का एक संकलन है, जिसे संगमग्राम के तत्कालीन प्रसिद्ध गणितज्ञ स्वामी माधवन की टीम ने तैयार किया है. 

स्वामी माधवन का यह कार्य समय की धूल में दब ही जाता, यदि स्वामी ज्येष्ठदेव जैसे शिष्यों ने उसे ताड़पत्रों पर उस समय की द्रविड़ भाषा (जो अब मलयालम है) में न लिख लिया होता. 

इसके बाद लगभग 200 वर्षों तक गणित के ये सूत्र “श्रुति-स्मृति” के आधार पर शिष्यों की पीढी से एक-दुसरे को हस्तांतरित होते चले गए. 

भारत में श्रुति-स्मृति (गुरु के मुंह से सुनकर उसे स्मरण रखना) परंपरा बहुत प्राचीन है. 

इसलिए सम्पूर्ण लेखन करने (रिकॉर्ड रखने अथवा दस्तावेजीकरण) में प्राचीन लोग विश्वास नहीं रखते थे. 

जिसका नतीजा हमें आज भुगतना पड़ रहा है, कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में संस्कृत भाषा के छिपे हुए कई रहस्य आज हमें पश्चिम का आविष्कार कह कर परोसे जा रहे हैं.

जॉर्जटाउन विवि के प्रोफ़ेसर होमर व्हाईट लिखते हैं कि संभवतः पंद्रहवीं सदी का गणित का यह ज्ञान धीरे-धीरे इसलिए खो गया, क्योंकि कठिन गणितीय गणनाओं का अधिकाँश उपयोग खगोल विज्ञान एवं नक्षत्रों की गति इत्यादि के लिए होता था. सामान्य जनता के लिए यह अधिक उपयोगी नहीं था. 

इसके अलावा जब भारत के उन ऋषियों ने *दशमलव* के बाद ग्यारह अंकों तक की गणना एकदम सटीक निकाल ली थी, तो गणितज्ञों के करने के लिए कुछ बचा नहीं था. 

ज्येष्ठदेव लिखित इस ज्ञान के “लगभग” लुप्तप्राय होने के सौ वर्षों के बाद पश्चिमी विद्वानों ने इसका अभ्यास 1700 से 1830 के बीच किया. 

चार्ल्स व्हिश ने “युक्तिभाष्य” से सम्बंधित अपना एक पेपर “रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड” की पत्रिका में छपवाया. 

चार्ल्स व्हिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के मालाबार क्षेत्र में काम करते थे, जो आगे चलकर जज भी बने. 

लेकिन साथ ही समय मिलने पर चार्ल्स व्हिश ने भारतीय ग्रंथों का वाचन और मनन जारी रखा. 

व्हिश ने ही सबसे पहले यूरोप को सबूतों सहित “युक्तिभाष्य” के बारे में बताया था. 

वरना इससे पहले यूरोप के विद्वान भारत की किसी भी उपलब्धि अथवा ज्ञान को नकारते रहते थे और भारत को साँपों, उल्लुओं और घने जंगलों वाला खतरनाक देश मानते थे. 

ईस्ट इण्डिया कंपनी के एक और वरिष्ठ कर्मचारी जॉन वारेन ने एक जगह लिखा है कि “हिन्दुओं का ज्यामितीय और खगोलीय ज्ञान अदभुत था. यहाँ तक कि ठेठ ग्रामीण इलाकों के अनपढ़ व्यक्ति को मैंने कई कठिन गणनाएँ मुँहज़बानी करते देखा है”.

स्वाभाविक है कि यह पढ़कर आपको झटका तो लगा होगा, परन्तु आपका दिल सरलता से इस सत्य को स्वीकार करेगा नहीं, क्योंकि हमारी आदत हो गई है कि जो पुस्तकों में लिखा है, जो इतिहास में लिखा है अथवा जो पिछले सौ-दो सौ वर्ष में पढ़ाया-सुनाया गया है, केवल उसी पर विश्वास किया जाए. 

हमने कभी भी यह सवाल नहीं पूछा कि पिछले दो सौ या तीन सौ वर्षों में भारत पर किसका शासन था? 

किताबें किसने लिखीं? 
झूठा इतिहास किसने सुनाया? 
किसने हमसे हमारी संस्कृति छीन ली? 
किसने हमारे प्राचीन ज्ञान को हमसे छिपाकर रखा? 

लेकिन एक बात ध्यान में रखें कि पश्चिमी देशों द्वारा अंगरेजी में लिखा हुआ भारत का इतिहास, संस्कृति हमेशा सच ही हो, यह जरूरी नहीं. 

आज भी ब्रिटिशों के पाले हुए पिठ्ठू, भारत के कई विश्वविद्यालयों में अपनी “गुलामी की सेवाएँ” अनवरत दे रहे हैं.

सोचिये, क्या भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री, जो अरब में जन्में एक मुसलमान थे, हमें ये ज्ञान प्राप्त करने देते ? 

और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री तो खुद भारत की खोज में लगे हुये थे, फिर भी ये ज्ञान को आपके सामने आने से रोका। 

हमें तो बाबा "ब्लैक शीप और ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार" रटाते रहे और अंग्रेज हमसे ज्यादा पढ़े लिखे ज्ञानी हैं, समझाते रहे।

Sunday, 22 June 2025

पानी सूख जाता है, लेकिन फ़र्श पर शीतलता बनी रहती है। सूरज डूब जाता है, लेकिन अंधेरी हवा में तपिश बनी रहती है। तुम चली जाती हो, मेरे भीतर तुमसे संवाद बना रहता है।

जो बचा रहता है, वह क्या है? शोक या उत्सव? फ़र्श पर बची शीतलता पानी का शोक है या उसकी स्मृति का उत्सव?

मरण कहे बिना स्मरण का उच्चारण पूरा नहीं होता। 
हम सिर्फ़ उन्हीं पलों को याद कर सकते हैं, जो मर चुके हैं।

ख़ालीपन हमारे भीतर कंपकंपाता है, फिर आहिस्ता-आहिस्ता थिर हो जाता है।  

------- रोलाँ बार्थ।

राम जन्म नक्षत्र

 श्रीराम के जन्मकालिक मास, दिन, तिथि में साम्य है परन्तु
 वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायणादि में "नक्षत्रेsदितिदैवत्ये" पुनर्वसु नक्षत्र, 
श्रीरामचरित मानस में ''नौमी तिथि मधुमास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरि प्रीता।।" अभिजित् नक्षत्र और 
सूरसारावली में "पुष्य नक्षत्र नौमी जु परम दिन लग्न सुद्ध सुमवार। प्रगट भए दशरथ गृह पूरन चतुर्व्यूह अवतार।।" पुष्य नक्षत्र लिखा है। कृपापूर्वक नक्षत्रभेद का रहस्य स्पष्ट करें....




यहां अभिजित् नक्षत्र नहीं, मुहूर्त है। अभिजित् तारा ध्रुव के निकट सबसे ऊपर है, अतः मध्याह्न में जब सूर्य सबसे ऊपर होता है तो उस समय के मुहूर्त को अभिजित् कहते हैं। उस मुहूर्त में किसी स्तम्भ के छाया शीर्ष की गति कुतुप आकार में होती है, अतः उसे कुतुप मुहूर्त भी कहते हैं। यहां तक कोई विरोध नहीं है। पर वाल्मीकि रामायण में अदिति नक्षत्र पुनर्वसु कहा है। इसकी पुष्टि में कहा है कि कर्क लग्न, चन्द्र तथा बृहस्पति का एक साथ उदय हो रहा था। कर्क राशि तथा पुनर्वसु तृतीय चरण का आरम्भ ९० अंश पर होता है। अतः किसी प्रकार से पुष्य नक्षत्र नहीं हो सकता। उस नक्षत्र में आगामी दिन भरत जी का जन्म कहा है।

Wednesday, 18 June 2025

एक ही घटना किसी को आस्तिक किसी को नास्तिक बनती है

एक ही घटना,किसी को ईश्वर से विमुख कर देती है,तो किसी को उसी ईश्वर की ओर मोड़ देती है।कोई चीखता है,"अगर भगवान होते,तो मेरे साथ ऐसा क्यों होता?"तो कोई रोकर,टूटकर कहता है,"हे प्रभु!अब मुझे आपकी आवश्यकता है,कृपा करो!"

मानव की चेतना,जब किसी प्रचंड जीवन–आघात से टकराती है,जैसे कि,किसी प्रिय का असमय निधन,कोई बड़ा अन्याय,अपार हानि,या कोई असहनीय शारीरिक–मानसिक पीड़ा,तब वो उसकी आध्यात्मिक भूमि को झकझोर देती है।
वहां से दो प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं–:

प्रथम पथ...
"नास्तिकता की ज़िद्द",अहं की दीवारें और तर्कों का अंधकार,कुछ लोग उस आघात को,अपना निजी युद्ध मानकर,ईश्वर के ही अस्तित्व को नकार देते हैं।वो कहते हैं,"अगर भगवान होते,तो मेरे पिता क्यों मरते? मेरी बेटी को कैंसर क्यों होता?क्यों हुआ मेरे साथ यह अन्याय?"

ये प्रतिक्रिया वास्तव में,अहंकार की गहराई से जन्म लेती है।ये वो मानसिक अवस्था है,जिसमें व्यक्ति चाहता है कि,ब्रह्मांड उसके नियमों से चले,और जब ब्रह्मांड उस अपेक्षा के विपरीत चलता है,तो वो संकट से नहीं,नियंत्रण के अभाव से टूटता है।वो प्रश्न नहीं पूछते,वो उत्तरों को नकारते हैं।तर्क नहीं खोजते,वो तर्कों से द्वेष करने लगते हैं।"यदि मैं ईश्वर को नहीं समझ पाया,तो वो है ही नहीं",ये एक बाल–सुलभ,किंतु,
विद्वत्तामयी ज़िद्द है,जो उन्हें,"विनाश" की ओर ले जाती है।

धर्मग्रंथों में भी ऐसे व्यक्तियों को ‘मन्यते अहम’ कहकर संबोधित किया गया है,
"जो स्वयं को ही अंतिम सत्य मानते हैं।"

श्रीमद्भगवद्गीता (16.8) में,
ऐसे लोगों का वर्णन करते हुए कहा गया है,
"असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥"

वो कहते हैं,ये संसार असत्य है,बिना किसी आधार के है, बिना ईश्वर के है,ये केवल वासना से उत्पन्न हुआ है।"

द्वितीय पथ..
आस्तिकता की विनम्रता,पतन से उठता एक नया पथ।
और वहीं,उसी घटना से कोई और,जो पहले तर्कवादी था, जीवन को भौतिकता से ऊपर कुछ नहीं मानता था,वो विनम्र हो उठता है।जब उसका विज्ञान उत्तर नहीं दे पाता,जब उसके शब्द मौन हो जाते हैं,और जब सारी तकनीक असहाय हो जाती है,तब वो अपने भीतर झांकता है।

वो कहता है,"अब मुझे अपने भीतर उतरना होगा।"

वो रोता है,पर ईश्वर को पुकारता है।वो गिरता है,पर नम्रता से कहता है,"हे ईश्वर! मुझे ज्ञानी नहीं,योग्य बना दो।"और तब,वो ही ब्रह्मांड,जो पहले उसके लिए,एक जड़–तत्व था,अब चेतन हो उठता है।गुरु मिलते हैं,संकेत आने लगते हैं,स्वप्नों में प्रतीक प्रकट होने लगते हैं,और ब्रह्मज्ञान के बीज,उसकी आत्मा में अंकुरित होने लगते हैं.....

क्यों होता है ऐसा..?
कारण "घटना" नहीं..
कारण "चेतना" है...

ये अंतर इसीलिए है कि,घटना समान होती है,परंतु,"चेतना" भिन्न होती है।जिसका मन ईश्वर से लड़ता है,वो ज्ञान को अस्वीकार करता है।जिसका मन ईश्वर से झुकता है,वो ज्ञान को आत्मसात करता है।ये अंतर उसी प्रकार है जैसे,सूर्य सब पर समान रूप से प्रकाश डालता है,परंतु सूरजमुखी उस दिशा में खिलता है जिस दिशा में सूर्य है,और उल्लू उस ओर भागता है जहां सूर्य का प्रकाश नहीं,अंधकार है।

फिर मन में प्रश्न आता है,कि आख़िर कौन सही है,नास्तिक या आस्तिक?

सनातन धर्म के अनुसार,नास्तिक कोई दोषी नहीं है,वो बस जीवन के कठिन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते–ढूंढते थक गया पथिक है।परंतु जब वो थक कर,विश्राम के स्थान को भी,ठुकरा दे,जब वो अपने दुख को ही,"अंतिम सत्य" घोषित कर दे,और जब वो अपने अनुभव को ही,"पूर्ण–ज्ञान" मान ले,
तब वो,"पतन" की ओर बढ़ता है...........

जो वेदों को न माने,नकारे या उनका तिरस्कार करे,जो आत्मा,पुनर्जन्म,कर्मफल,और ब्रह्म को न माने,वो नास्तिक की श्रेणी में आता है।इस प्रकार ईश्वर को न मानना पर्याप्त नहीं,यदि कोई व्यक्ति वेद,आत्मा,धर्म के साथ,ईश्वर को ही अस्वीकार करे,तो वो "नास्तिक" है।

सनातन धर्म ने अन्य पंथों की भांति,इन विचारधाराओं को पूरी तरह बहिष्कृत नहीं किया।उनमें भी,"तत्व–बोध" और "तर्क–सम्मत संवाद" के लिए,स्थान दिए गए।इसमें चार्वाक दर्शन,प्रमुख है,जो वर्तमान नास्तिकता का प्रतीक है,"यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।"अर्थात् ,जब तक जीओ,सुख से जीओ,चाहे कर्ज लेकर घी पीना पड़े।चार्वाक दर्शन,भौतिकवाद और इंद्रिय–सुख को ही,जीवन का लक्ष्य मानता था।पुनर्जन्म,आत्मा,और धर्म को नकारता था।ये आज के मॉडर्न नास्तिक दृष्टिकोण के सबसे निकट है।

 श्रीमद्भगवद्गीता (16.8–9):
"असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥"
 "ये दैत्यस्वभाव वाले लोग कहते हैं कि,ये संसार बिना किसी ईश्वर के है,बिना किसी आधार के है,केवल वासना से उत्पन्न हुआ है।"

 "एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥"

"ऐसी दृष्टि वाले,बुद्धिहीन,आत्मा से विमुख व्यक्ति,
संसार के विनाश के लिए पैदा होते हैं।"

योगेश्वर श्रीकृष्ण,नास्तिकता को अल्पबुद्धि और जगत–विनाशकारी प्रवृत्ति बताते हैं।

याज्ञवल्क्य ऋषि (बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.12):
 "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः,श्रोतव्यः,मन्तव्यः, निदिध्यासितव्यः।"
आत्मा को देखना,सुनना,विचारना और मनन करना आवश्यक है।जो आत्मा को ही नहीं मानता,वो आध्यात्मिकता के द्वार पर भी नहीं आ सकता।

फिर भी,सनातन धर्म में अद्भुत धैर्य है,वो नास्तिक से भी संवाद करता है,और बार–बार करता है।सनातन धर्म,नास्तिकता से डरता नहीं,भागता नहीं,वो तर्क करता है, झगड़ता नहीं।उसमें बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ हुए,चार्वाक का खंडन हुआ,पर नास्तिक को भी,"संवाद का अवसर" मिला।

इसीलिए सनातन धर्म,कोई "एक–मतवादी कट्टर विचारधारा" नहीं,वो तो चेतना का महासागर है,जहां हर मत,एक लहर है,जो सत्य के तट से टकराकर,या तो,"लौटती है",
या उसमें "विलीन हो जाती है।"

असल में,सनातन धर्म के अनुसार,
"नास्तिकता एक "पड़ाव" है,"अंतिम लक्ष्य" नहीं है।"

अनेक ऋषि जैसे,वाल्मीकि,अजामिल,अंगुलिमाल,प्रारंभ में अधार्मिक या नास्तिक से भी नीचे थे,पर उन्होंने परिवर्तन स्वीकारा,और सत्य के पथ पर आ गए।इसलिए सनातन धर्म कहता है,"नास्तिक होना पाप नहीं,पर नास्तिक बनकर *अहंकार करना*,ये ही *पतन* का कारण है।"

जो वेद,आत्मा,पुनर्जन्म और ईश्वर को न माने,वो नास्तिक है।जो केवल तर्कों में उलझकर श्रद्धा को त्याग दे,वो नास्तिक है।जो अपने अहंकार को ज्ञान मान ले,वो नास्तिक है।परंतु जो सत्य की खोज में प्रश्न करता है,झूठे देवताओं को(प्रेत–पूजा)नकारता है,झूठे मठाधीशों का खंडन करता है,उनका विरोध करता है,किंतु विनम्र बना रहता है,वो "प्रश्नकर्ता" है,न कि नास्तिक।

श्रद्धा से ही सत्य प्रकट होता है,तर्क से सत्य परखना संभव है,परंतु तर्क से सत्य को जन्म नहीं दिया जा सकता।जिसे श्रद्धा का गर्भ चाहिए,वो ही ज्ञान का जन्मदाता बन सकता है।और "आस्तिक" वो कोई "अंधभक्त" नहीं।वो तो अनुभव से नम्र हुआ हुआ "ज्ञान–पथिक" है,जो ये मानता है कि,"मैं सब कुछ नहीं जानता",इसलिए वो सीखता है,स्वीकारता है,और इसीलिए,ब्रह्मांड उसके लिए बोलने लगता है।

स्मरण रखो,अहं की दीवारें गिराओ,
तो ब्रह्मांड अवश्य तुमसे बोलेगा।

ईश्वर न किसी घटना में छिपा है,न किसी तर्क में,वो छिपा है आपकी पात्रता में।यदि आप ज़िद्द छोड़ दें,तो सत्य झुक कर आपके द्वार पर खड़ा होगा।यदि आप विनम्रता से स्वीकार कर लें कि "मुझे अभी सब कुछ नहीं आता",तो सृष्टि अपने रहस्य खोलने लगेगी।एक ही घटना से कोई नास्तिक बनता है,कोई आस्तिक,क्योंकि ब्रह्मांड नहीं बदलता,चेतना बदलती है।दोष न घटना का है,न ईश्वर का,दोष या तो अहंकार का है,या तो श्रद्धा की कमी का।जो गिरकर रोता है,वो खड़ा होकर चलना सीखता है,पर जो गिरकर क्रोध करता है,वो वहीं पड़ा रह जाता है...

अब निर्णय तुम्हारा है..चलना सीखना है,
या ज़मीन को दोष देते हुए,वहीं पड़े–पड़े,हाथ–पैर पटकते रहना है।विवेक से चुनो,क्योंकि,तुम्हारा निर्णय,तुम्हारी नीति बनाएगा,और वही नीति,तुम्हारी नियति लिखेगी।इस बार चुन लो समझदारी से,नहीं तो कोई बात नहीं,वक्त फिर आएगा,कभी किसी और युग में,किसी और जन्म में,किसी और देह में।

फिर कोई तुम्हें समझाएगा,फिर कोई जीवन का सत्य बताएगा,बस उस दिन,थोड़ा विनम्र होना,थोड़ा मौन होना,
क्योंकि,जब तक तुम समझ नहीं जाओगे,ये शिक्षक,ये जीवन,तुम्हें छोड़ेगा नहीं,तुम्हें बार–बार बुलाएगा,बार–बार गिराएगा,जब तक तुम चलना सीख नहीं जाते,मैं सीख रहा हूं,
मेरे संग ही इस बार सीख लो..
सीखोगे..?

Monday, 16 June 2025

स्मार्त हैं या वैष्णव

प्रश्न-हम स्मार्त हैं या वैष्णव कैसे पता चलेगा???

उत्तर-किसी भी वर्णाश्रममें रहकर स्मृतियोंके आधारपर जो जीवन यापन करते हैं (इसीका शास्त्रोंमें विधान किया गया है) इसलिए हर व्यक्ति जन्मजात स्मार्त है क्योंकि वह स्मृतियोंका अनुसरण करता है। शिवजी की संप्रदायमें दीक्षितको शैव कहते हैं और विष्णुजी की संप्रदाय में दीक्षित हो जाए तो वह वैष्णव कहलाते हैं परंतु ये दोनों (शैव और वैष्णव भी) स्मार्त तो जन्म जाते हैं। इसलिए किसी की भी दीक्षा न ले तब भी वह स्मार्त है। कोई जरूरी नहीं है कि दीक्षा ली ही जाए, बहुत से लोग कुप्रचार करते हैं, कि दीक्षा नहीं ली जो उसका कल्याण नहीं होगा। ब्राह्मणों, क्षत्रिय, वैश्योंका यज्ञोपवीत होगा कि कल्याणका मार्ग खुल गया, वेदोंमें अधिकार हो गया, सभी देवताओंके पूजनका अधिकार हो गया, यही शास्त्रोंका सार है। ध्यान रहे हम दीक्षा लेनेके विरोधी नहीं है ना ही शैव और वैष्णवोंके।

Friday, 13 June 2025

भारत के ४ प्रकार से त्रिविध भाग

भारत के ४ प्रकार से त्रिविध भाग हैं-(१) (क) भू लोक- विन्ध्य से दक्षिण, (ख) भुवः या मध्यम लोक (विन्ध्य-हिमालय के बीच-दिलीप को रघुवंश में यहां का राजा कहा है), (ग) त्रिविष्टप् (तिब्बत) या स्वर्ग लोक, देवतात्मा।
(२) पश्चिम, मध्य, पूर्व के ३ सप्तसिन्धु (ऋग्वेद. १०/६४/८-९, १०/७५/१-८)। मध्य भारत के सप्त सिन्धु का नाम पूजा में कहा जाता है-गङ्गे यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु॥ इरावती २ हैं, मध्य भारत के पश्चिमी भाग में रावी है। किन्तु मुख्य इरावती थाइलैण्ड में हैं, जहां के हाथी को ऐरावत कहते थे (वायु पुराण, ३७/२५, ब्रह्माण्ड पुराण, २/३/७/३२६-३२७)। 
(३) अश्वक्रान्ता, रथक्रान्ता, विष्णुक्रान्ता। श्रीविद्या साधना की शिवाकान्त द्विवेदी की टीका, भाग १ (पृष्ठ १२) में इसे भारत भारत का विभाजन माना है-
विष्णुक्रान्ता = भारत का उत्तर पूर्व भाग, 
रथक्रान्ता = विन्ध्य से महाचीन (तिब्बत)
अश्वक्रान्ता-शाक्तमंगल तन्त्र के अनुसार विध्य से दक्षिण समुद्र। महासिद्धिसार के अनुसार करतोया (दक्षिण ओड़िशा की कटारधोया) नदी से जावा तक।
इन ३ क्रान्ताओं में ६४ प्रकार के तन्त्र प्रचलित हैं। 
(४) शक्तिसंगम तन्त्र, पटल द्वितीय के अनुसार हादि, कादि, सादि खण्ड। इनसे अरबी में हाजी, काजी, सादी हुआ है।
ज्योतिष ग्रन्थों में मलाट, पलाट को पणाट, मणाट कहा गया है जो प्रायः शून्य देशान्तर (उज्जैन का) रेखा पर हैं। ब्राह्मी के ळ को देवनागरी में ण या ल जैस भी पढ़ते हैं, इस कारण २ प्रकार के नाम हैं। वन्द्य देश बंगाल हो सकता है जहां वन्द्योपाध्याय (बनर्जी) गये थे।
शून्य देशान्तर रेखा के अन्य स्थान हैं (प्रायः रेखा पर)-
लङ्कातः खरनगरं सितोरुगेहं, पाणाटो मिसितपुरी तथातपर्णी।
उत्तुङ्गस्सितवरनामधेय शैलो, लक्ष्मीवत्पुरमपि वात्स्यगुल्मसंज्ञम्॥१॥
विख्याता वननगरी तथा ह्यवन्ती, स्थानेशो मुदितजनस्तथा च मेरुः।
अध्वाख्यः करणविधिस्तु मध्यमाना-मेतेषु प्रतिवसतां न विद्यते सः॥२॥
(भास्कराचार्य-१, महाभास्करीय, २/१-२)
= लंका से क्रमशः उत्तर हैं- खरनगर, सितोरुगेह, पाणाट, मिसितपुरी, आतपर्णी, सितवर पर्वत, लक्ष्मीवत् वात्स्यगुल्म (लक्ष्मी स्थान को कोल्हापुर कहते हैं, उज्जैन रेखा के निकट थोड़ा पश्चिम) , विख्यात वननगरी, अवन्ती, स्थानेश, मेरु।
लङ्का कुमारी तु ततस्तु काञ्ची, मानाटमश्वेतपुरी त्वथोदक्।
(वटेश्वर सिद्धान्त, १/८/१)

२. हादिमतस्य प्रदेशाः

कादिदेशाः समाख्याता हादिदेशान् शृणु प्रिये । अङ्गबङ्गकलिङ्ग (1) श्चकालिङ्गः स्यात् सुवीरकः ॥ २५ ॥

...

द्वितीयः पटलः

काश्मीरश्चैव काम्बोजः सौराष्ट्रो मगधस्तथा । महाराष्ट्रो मालवस्तु नेपालः केरलस्तथा ॥ २६ ॥

चोलपाञ्चालगौडाश्च मलयालश्च सिंहलः । द्रविडः कोङ्कणश्चैव कार्णाटो लाट एव च ॥ २७ ॥

मलाटश्चैव पालाटः पाण्ड्यान्धकपुलिन्दकाः । हूणकौरवगान्धारविदर्भाः सविदेहकाः ॥ २८ ॥ बाह्रीकबर्बरौ देवि कैकयः कोशलोऽपि च ।

कुन्तलश्च किरातश्च शूरसेनश्च सेवनः ॥ २९ ॥ वनाटः टङ्कणश्चैव कोङ्कणे मत्स्यमद्रकौ । मैडसैन्धवसिन्धूत्थाः पार्श्वकीकौ ततः स्मृतौ ॥ ३० ॥ योर्जालयवनौ देवि जलजालन्धसाल्वलाः । सिन्धुश्च वन्द्यदेशश्च हादिपर्यायवाचकाः ॥ ३१ ॥

२१

हादिमत के प्रदेश- यहाँ तक 'कादि' पर्याय के देश कहे गये हैं। अब हे प्रिये ! 'हादि' पर्याय के देशों को सुनिए । १. अङ्ग, २. वङ्ग, ३. कलिङ्ग, ४. कालिङ्ग, ५. सुवीरक, ६. काश्मीर, ७. काम्बोज, ८. सौराष्ट्र, ९. मगध, १०. महाराष्ट्र, ११. मालव, १२. नेपाल, १३. केरल, १४. चोल, १५. पाञ्चाल, १६. गौड़, १७. मलय, १८. सिंहल, १९. द्रविड़, २०. कोङ्कण, २१. कार्णाट, २२. लाट, २३. मलाट, २४. पालाट, २५. पाण्ड्यान्धक, २६. पुलिन्दक, २७. हूण, २८. कौरव, २९. गान्धार, ३०. विदर्भ, ३१. विदेह, ३२. वाह्लीक, ३३. वर्वर, ३४. कैकय, ३५. कोशल, ३६. कुन्तल, ३७. किरात, ३.८. शूरसेन, ३९. सेवन, ४०. वनाट, ४१. टङ्कण, ४२. कोङ्कण, ४३. मत्स्य, ४४. मद्रक, ४५. मैड, ४६. सैन्धव, ४७. सिन्धूत्थ, ४८. पार्श्व, ४९. कीक, ५०. योर्जाल, ५१. यवन, ५२. जल, ५३. जालन्धर, ५४. साल्वल, ५५. सिन्धु एवं ५६. वन्द्यदेश- इतने देश हादि मत के पर्यायवाचक हैं ।। २५-३१ ।।

देशद्वयव्यवस्था तु पूर्वतन्त्रे प्रकीर्तिता । देशभेदं च विज्ञाय पर्यायक्रममाचरेत् ॥ ३२ ॥

इन दोनों देशों की व्यवस्था हम पूर्व में तन्त्र में कह आये हैं देश के भेद को जानकर तब वहाँ के पर्याय क्रम का अनुष्ठान करे ।। ३२ ।।

Wednesday, 11 June 2025

चाक्षुष उपनिषद

१०जूनको बाईं आंखमें रक्त जम गया।इससेपढ़ाईलिखाई का कार्य बाधित हो गया है।गर्मी ४५ डिग्री रही पर बहुत अधिक दाहकता थी।
यह तो ईश्वर की अद्भुत कृपा रही जो बड़ी क्षति से बचाव हो गया।कर्क का मंगल हट चुका था।
नेत्र की रक्षा के लिए आज से चाक्षुष उपनिषद का तीन पाठ और आदित्यहृदय का एक पाठ आरम्भ कर दिया है।
अहिर्बुधन्य ऋषि को अनेक प्रणाम है जो आपने इस उपनिषद को जन कल्याणार्थ प्रकट किया।यह आधे पृष्ठ का उपनिषद है।मैने १९८६ से इसके चमत्कार को देखा है। इसका कोई भी व्यक्ति पाठ कर नेत्र जनित विपत्ति से बच सकता है। इसका पाठ कर सूर्य के १०८ नामों के उच्चारण के साथ कमल से अर्घ्य देने से नेत्र ज्योति की रक्षा होती है।यदि माता पिता नेत्र की कमजोरी से ग्रस्त हों तो इसके १२०० पाठ की चार आवृत्ति करके संतान को नेत्र रोग रहित उत्पन्न होने का संकल्प लें तो अपूर्व चमत्कार देखा गया है। चाक्षुष उपनिषद मनुष्य के लिए उपकारी और अत्यन्त सरल विधान है।
""" ॐ चक्षु: चक्षु: स्थिरो भव। """

Monday, 9 June 2025

सोशल मीडिया की अतार्किक भीड़

एक बार पुनः साबित हो गया कि,सोशल मीडिया की अतार्किक भीड़,न्याय नहीं देती,केवल डोपामिन का नशा बांटती है,"सोनम–राजा कांड",इसका ताजा प्रमाण है।

एक लड़की ने पति के साथ छल किया,उसकी निर्मम हत्या की,और लोगों ने ये तथ्य बाहर आने से पूर्व ही अपनी मृगतृष्णा–रची कथा में,पूरे उत्तर-पूर्व भारत को भी दोषी ठहरा दिया और फिर क्या हुआ?

सोशल मीडिया के मठाधीशों ने,तुरन्त, #NortheastUnsafe के बाण चलाने शुरू कर दिए,बिना तथ्य,बिना किसी अध्ययन के,तथ्य क्या हैं?किसे परवाह थी?अध्ययन करने के लिए,किसके पास समय है?यहां तो, किसी और के द्वारा,किया हुआ "अध्ययन" पढ़ने से भी,लोग कतराते हैं,स्वयं अध्ययन करना,तो दूर की कौड़ी है।

इस अतर्किक भीड़ को तो,त्वरित न्याय चाहिए,वो भी बिना अध्ययन किया हुआ,"डिजिटल न्याय",बिल्कुल अभी के अभी,
बस आज ही हो जाए फैसला।

इस केस में भी वही हुआ...
पर जब सच्चाई सामने आई,और सोनम ही सूत्रधार निकली, तब वही "वीर कीबोर्ड योद्धा" चुप्पी साध गए।

क्यों?
क्योंकि यह युद्ध,"सत्य" के लिए नहीं,
"डोपामिन" के नशे के लिए था...

जब भी कोई घटना घटती है,मस्तिष्क में "डोपामिन" रिसता है,तुरन्त प्रतिक्रिया देने,नैतिक ऊंचाई को दिखाने का नशा, चढ़ता है।"मैंने आवाज उठाई","मैं जागरूक हूं",ये "भाव", आडम्बर का चोला पहन लेता है।

हार्मोंस के प्रभाव के बारे में,विस्तृत चर्चा,मैंने अपने पिछले आलेख, #आत्महत्या_तुम्हारा_चुनाव_या_प्रेत_प्रभाव में की थी,जिन्होंने पढ़ा है,वो लेख,वो समझेंगे अच्छे से कि,"डोपामिन"एक इनाम(reward) देने वाला हार्मोन है।जब व्यक्ति किसी घटना पर तेजी से प्रतिक्रिया देता है,विशेषकर,नैतिक उच्चता दिखाते हुए,तब उसका मस्तिष्क,डोपामिन रिलीज करता है,
"मैंने यह पहले देख लिया!"
 "मैं सबसे पहले बोला!",
"मैंने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई!"

इससे उन्हें,"नैतिक योद्धा" जैसा अहसास होता है,ये उन्हें एक "नशा" देता है,इसलिए लोग,तथ्यों की प्रतीक्षा नहीं करते,वो त्वरित प्रतिक्रिया देने में डूब जाते हैं।

फिर जब किसी घटना में "भय" या "अन्याय" का कोण आता है (जैसे #Northeast_Unsafe),तब,कोर्टिसोल (तनाव हार्मोन) बढ़ता है।इससे मस्तिष्क,"रैशनल" सोचने में,असमर्थ हो जाता है।"फाइट or फ्लाइट" मोड सक्रिय हो जाता है।व्यक्ति घटना को जटिलता में देखने के बजाय, सफेद-या-काला ढांचे में देखता है।

"यह पूरी जगह असुरक्षित है!"
"पूरे नॉर्थ ईस्ट के लोग ही दोषी हैं!"

पर जब,असहज कर देने वाला,"कटु–सत्य" सामने आता है,तब Cognitive Dissonance
(मानसिक असंगति) की शुरुआत होती है...

"मैंने ग़लती की?",
"मेरी सोच अधूरी थी?"

"हो ही नहीं सकता.."

आपका "अहंकार"(EGO),
इस सत्य को स्वीकार नहीं करता।

तब आपके,तर्क बदल जाते हैं....
"हां,पर फिर भी उस क्षेत्र में बहुत घटनाएं होती हैं।"
 "मैं गलत नहीं था,मैं तो जागरूकता फैला रहा था।"
 "यह केस तो अलग है,पर बड़ा मुद्दा सही है।"

आप ऐसा क्यों करते हैं?
क्योंकि आपकी "Ego" हार मानने से डरती है,और सार्वजनिक रूप से,गलती मानना बहुत कठिन होता है,बहुत विरले ही लोग होते हैं,जो अपनी गलती स्वीकारते हैं,और जो अपनी गलती स्वीकारता है,हमें उनका सम्मान करना चाहिए।

पर यहां उनकी बात हो रही,जो अपनी गलती,किसी कीमत पर नहीं मानते,उनसे सवाल ये है,जब पहली बार खबर आते ही आप धम से कूदे,क्यों?तथ्यों का एनालिसिस क्यों नहीं किया?बिना एनालिस के इतना बड़ा बखेड़ा क्यों खड़ा कर दिया?और जब सच सामने आया,तब उतनी ही ऊर्जा से, तथ्य क्यों नहीं फैलाए?

और अगली बार क्या आप फिर वही करेंगे?
उत्तर है हां,आप करेंगे।

पर क्यों?
क्योंकि,मठाधीश जी जानते हैं,
कि भीड़ सत्य नहीं ढूंढ़ती,कथा ढूंढ़ती है...

सोशल मीडिया विचारशीलता नहीं,
प्रतिक्रिया को पुरस्कृत करता है...

डोपामिन चक्र बना रहता है,किसी घटना पर प्रतिक्रिया न देने से व्यक्ति को "FOMO" (Fear Of Missing Out) महसूस होता है,इसलिए बार–बार,
उसी चक्र में फंस जाता है। 

पहले प्रतिक्रिया..,
फिर तथ्य..,
फिर बचाव..,
फिर अगली घटना पर,फिर उसी खेल का,दोहराव...

ये चक्र,चलता ही रहता है..!

सोशल–मीडिया में,"लाइक","कमेंट","रिट्वीट","शेयर",ये सब सत्य से नहीं,भावनात्मक उन्माद से मिलते हैं,इसलिए मेरे सबसे अच्छे,अध्ययन से परिपूर्ण लेखों को,सबसे कम पाठक मिलते हैं,मैंने पिछले 5 वर्ष इसका गहनता से अध्ययन किया है,और इस सत्य को स्वीकार लिया है कि,अध्ययन हर कोई नहीं कर सकता,न ही किए हुए अध्ययन को,हर कोई पढ़ सकता है,पढ़ कर उसके मूल–तत्व को समझना तो दूर की बात है।

मेरे गुरु ने कहा था,"सत्य की साधना कठिन है,कथा का उपभोग सरल,फर्जी कथा का उपभोग और भी सरल।जो तथहीन,बिना अध्ययन के त्वरित न्याय में विश्वास रखता है,वो स्वतः ही,आत्म–मंथन का पहला पाठ,छोड़ चुका होता है।"

इसलिए,अगली बार किसी घटना पर,उबलने से पहले,स्वयं से पूछिए "मैं सत्य का साधक हूं या डोपामिन का दास?"

और ये ही कारण है कि मैं चाहे,किसी भी सनसनीखेज घटना का समाचार देखूं,त्वरित प्रतिक्रिया देने से बचता हूं,ऐसा नहीं कि मुझसे गलतियां नहीं हुई हैं,हुई हैं,आरंभ में,मैं भी गलत हुआ हूं,लेकिन मैंने अपनी गलतियों से सीख लेकर,उनका दोहराव नहीं किया,क्यों?क्योंकि मैं समझ गया हूं कि,हर घटना की तह में,अनेक परतें होती हैं।

अधूरी सूचना पर,बना "मत","सत्य" से अधिक,"स्वयं के अहंकार" को पुष्ट करता है,और अहंकार सर्वनाश का कारक सिद्ध होता है,फिर वो चाहे लंकापति रावण हो,कंस हो,या दुर्योधन,
कोई नहीं बचता।

गहन अध्ययन का अर्थ है,विषय को उसके ऐतिहासिक, सामाजिक,मनोवैज्ञानिक आयामों में देखना,तथ्यों को जांचना,स्रोतों की प्रामाणिकता परखना,और फिर विवेक से बोलना,यदि बोलना आवश्यक हो तभी,नहीं तो तथ्य सामने आने तक,मौन का चुनाव करना,और उस मौन में स्थितियों को अच्छे से ऑब्जर्व करना और उनका एनालिसिस मन ही मन करते रहना।

आज जिस समाज में हर उंगली सोशल–मीडिया के "Post" बटन पर दबती रहती है,वहां विरले ही कोई अपनी चेतना को रोककर,अध्ययन की धैर्य साधना करता है।परंतु बिना इस साधना के,हम सत्य के नहीं,
केवल एक तर्कहीन भीड़ के अनुयायी बने रहेंगे।

अगर इससे बचना है,तो हम सब स्वयं से पूछें:
"क्या मैं जिज्ञासु हूं या एक अतर्किक भीड़ का अंग?"
"क्या मैं अध्ययन कर सत्य का आलोक बढ़ा रहा हूं या अधूरी कथा का अंधकार फैला रहा हूं?"

यदि उत्तर देने में,थोड़ा भी संकोच हो,तो समझ लीजिए,"अध्ययन" ही इस युग की सबसे दुर्लभ तपस्या है,और इस तपस्या को करने वाला तपस्वी वही है,जो त्वरित न्याय के मोह से स्वयं को बचा सके और अध्ययन के कठिन पथ का "यात्री" बन सके।

बनेंगे मेरे साथ,इस पथ पर यात्री?


Sunday, 8 June 2025

राजा राम मोहन रॉय

राजा राम मोहन रॉय की तथाकथित समाज सुधारक के रूप में मिथक का पर्दाफाश करने की जरूरत है। वह एक एंग्लोफिल थे जिन्होंने कभी कहा था कि संस्कृत शिक्षा भारत को अंधेरे में धकेल देगी। वह कुछ नहीं बल्कि एक ब्रिटिश स्टूज थे जिन्होंने बैपटिस्ट मिशनरियों के साथ सहयोग किया और सती के मुद्दे को सुलझाया और खुद को समाज सुधारक के रूप में दिखाया जिसने इस प्रथा को खत्म कर दिया। सच तो यह है कि बंगाल में सती प्रथा का इतिहासिक लेखाजोखा नहीं है और बंगाल में सती मंदिर नहीं है जैसा राजस्थान में मिलता है। राजस्थान में महिलाओं ने किसी भी धार्मिक फैसले के कारण खुद को बलिदान नहीं किया, स्वेच्छा से महिलाओं को इंसान नहीं देखा, बर्बर इस्लामी आक्रमणकारियों से बचाने के लिए किया।
इन सब निकम्मे लोगों को हमारे ऐतिहासिक खाते में महत्व नेहरू युग के मार्क्सवादी इतिहासकारों की वजह से मिला।

यहाँ राम मोहन राय का एक उद्धरण है जो अंग्रेजों के प्रति उनकी निष्ठा को बहुत स्पष्ट करता है

"विजय बहुत कम एक बुराई है जब जीतने वाले लोग जीतने की तुलना में अधिक सभ्य होते हैं क्योंकि पूर्व बाद में सभ्यता के लाभ लाता है। भारत को अंग्रेजी सभ्यता के कई और वर्षों की आवश्यकता है ताकि उसके पास अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करते हुए खोने के लिए बहुत कुछ न हो” -------------“राजा” राम मोहन रॉय

PS: राजा राम मोहन रॉय के शव का भारत में अंतिम संस्कार नहीं किया गया बल्कि इंग्लैंड में दफन किया गया था। यह एक गंभीर सवाल उठता है कि क्या वह वास्तव में एक हिंदू था। 

मुझे तब पढ़ना

जब जीवन की राहें धुंधली हों..
जब अंतर्मन शंकाओं से भर जाए..
जब "तम" के तट पर खड़ा मन कांप उठे...
तब मुझे पढ़ना...

जब विकल्पों की डगर,विकट हो..
और कोई दीप न दृष्टिगत हो..
जब अपने भी मौन हो जाएं..
तब मुझे पढ़ना...

मैं नहीं केवल अक्षरों में बंधा एक लेख..,
मैं हूं ऋषियों की दीर्घ तपस्या का संवाद..
मैं हूं वेदांत की गूंज,मैं हूं गीता का सार..
मैं हूं वही,जिसे तुमने अब तक रखा था उस पार..

तुम पूछोगे,"क्या करूं?","कैसे जिऊं?"
मैं कहूंगा,"कर्तव्य करो,करुणा से,निस्पृह भाव से।"
तुम कहोगे,"क्यों सहूं?","कब तक सहूं?"
मैं कहूंगा,धैर्य रखो,
ये क्षण भी बाकी सब की भांति,बीत जाएगा..

तुम रोओगे,"कोई नहीं समझता मुझे..."
मैं कहूंगा,"मैं समझता हूं तुम्हें..
और समझाता भी मैं ही हूं"

स्मरण रखना,
जब भी मर्म छटपटाए,हृदय थक जाए,
जब भी विकल हो मन का सागर..,
तब मुझे पढ़ना...

शब्दों के पार मैं मिलूंगा,मौन के द्वार पर मैं बैठा हुआ..
उत्तर बनकर,पथप्रदर्शक बनकर,तुम्हारे अपने भीतर..

तुम कभी अकेले न थे,न हो,न रहोगे..
मैं सदा तुम्हारे साथ हूं,तुम्हारा ही आलेख हूं..
मुझे पढ़ो तो सही...
मैं तुम्हारे लिए ही रचा गया हूं..
मुझे पढ़ो तो सही...

जब मृत्यु की छाया निकट लगे,
और जीने का अर्थ धूमिल हो जाए...
तब मुझे पढ़ना..

जब कोई न बचे साथ देने..
जब पूरा संसार मौन हो जाए..
तब मुझे पढ़ना...

जब दुःख कहे,"तू अब और नहीं सह पाएगा..."
जब मन कहे,"अब सब व्यर्थ है..."
तब मुझे पढ़ना...

मैं तुम्हें बताऊंगा..
कैसे युद्धभूमि में,अर्जुन उठ खड़ा हुआ था..
कैसे वनवास में,श्री राम ने धैर्य को चुना था..
कैसे प्रह्लाद ने एक स्तंभ में,विश्वास को चुना था...

और तब तुम...
पुनः उठोगे..
पुनः लड़ोगे..
पुनः विजयी होगे...

और ये संसार...
तब तुमको पढ़ेगा..

बौद्ध धर्म

भारत में बौद्ध धर्म का विस्तार और संकुचन 

महात्मा बुद्ध के बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद ही उनके विचार धर्म और दर्शन का रूप ग्रहण कर सकते थे। यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि भारत के प्राचीन इतिहास में कभी ऐसा काल नहीं आया जिसे धार्मिक दृष्टि से बौद्ध काल कहा जा सके। हिमालय की तलहटी से विंध्य तक फैले सोलह महाजनपदों का काल महात्मा बुद्ध के बुद्धत्व प्राप्त करने से पहले का है जिसमें ब्राह्मण धर्म का वर्चस्व क़ायम रहा। 

नंद वंश और मौर्य वंश के शासक शूद्र होते हुए भी ब्राह्मण धर्म के अनुरूप ही शासन करते रहे और महज़ शूद्र होने के नाते उनके किसी तरह के प्रतिरोध का प्रमाण नहीं मिलता। 

ब्राह्मण चाणक्य ने निरंकुश हुए नंदों के विनाश के लिए एक साहसी और महत्वाकांक्षी युवक के रूप में चंद्रगुप्त को तैयार‌ किया और जीवन पर्यंत उसके हित साधन में लगे रहे। विशाखदत्त के प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक मुद्राराक्षम्‌ में शासन के स्थायित्व के लिए चंद्रगुप्त के संघर्ष के दौरान चाणक्य लगातार उसे ‘वृषल’ (निम्नकुलोत्पन्न) कहकर संबोधित करता रहा। जब मुख्यत: चाणक्य के प्रयास से नंदों के प्रति स्वामिभक्त राजपुरुषों और अधिकारियों का गुट चंद्रगुप्त के अनुकूल हो गया तथा पश्चिमोत्तर के देशी और विदेशी राजाओं को बिना युद्ध के, कूटनीति+कुशल ख़ुफ़िया तंत्र के सहारे निष्क्रिय कर दिया गया, तभी चाणक्य चंद्रगुप्त को पहली बार ‘भो राजन्‌ चंद्रगुप्त’ कहकर संबोधित करता है।            

केवल अशोक के काल में बौद्ध धर्म का उत्कर्ष दिखाई पड़ता है जिसने कलिंग-युद्ध के बाद उपजे पश्चात्ताप में बौद्ध धर्म की शरण ली। अशोक के काल में सदाचार के साथ-साथ बौद्ध धर्म में केंद्रीभूत अहिंसा पर भी बल दिया गया। किंतु अशोक में धार्मिक असहिष्णुता या ब्राह्मण धर्म से विद्वेष का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इसके विपरीत ब्राह्मण धर्म ने बौद्ध धर्म के प्रभाव को निरस्त करने के लिए स्वयं में परिवर्तन लाकर पशुओं की बलि वाले यज्ञों का बहिष्कार कर दिया। वैष्णव ब्राह्मणों ने मांसाहार तक का परित्याग कर दिया। शेष हिंदू जनता में हर जाति का एक बड़ा तबक़ा मांसाहार का परित्याग कर शाकाहारी हो गया।  

इस सम्बंध में अशोक के शिलालेख-1 और स्तम्भलेख-2 और 5 में निम्न उल्लेख महत्वपूर्ण है—

“पहले राजकीय रसोई में प्रति दिन सैकड़ों हज़ार (अतिशयोक्ति संभव है) जीवों का वध होता था। किंतु जब यह पवित्र अभिलेख लिखा जा रहा है, कढ़ी के लिए केवल तीन जीवों की हत्या होती है—दो मोर और एक हिरण की—इनमें से भी हिरण की हमेशा नहीं। अब इन तीन जीवों का भी वध नहीं किया जाएगा।“ 

अशोक का शिलालेख-5 कई पक्षियों, कछुओं और हड्डी-विहीन मछलियों के वध पर निषेध लगाने के साथ बकरियों, भेड़ों, गायों के वध के बारे में निम्नलिखित आदेश जारी करता है—
“बकरियों (बकरे नहीं), भेड़ों और छ: महीने की उम्र तक के उनके बछड़ों (नर, मादा दोनों) तथा गायों (वे कम उम्र की हों, दूध देनेवाली हों या न हों) को वध से मुक्त किया जाता है।“  

तो, अशोक के समय में निश्चय ही मांसाहार को हतोत्साहित किया गया और बहुत संभव है तभी से हिंदुओं ने गोमांस-भक्षण को टैबू मान लिया। 

अशोक की मृत्यु के बाद उसके किसी पुत्र को राज्याधिकार मिलने का साक्ष्य नहीं मिलता। इसके बजाय साम्राज्य का उत्तराधिकार सीधे उसके दो पौत्रों—दशरथ और सम्प्रति को मिला। दशरथ को साम्राज्य का पूर्वी हिस्सा मिला और उसने पुरानी राजधानी पाटलिपुत्र से शासन किया। सम्प्रति ने उज्जैन को अपनी नई राजधानी बनाकर शासन शुरू किया। इस तरह अशोक की मृत्यु के बाद ही कम से कम अस्थाई तौर पर साम्राज्य का विभाजन हो गया। यह भी साक्ष्य मिलता है कि जिस निष्ठा से अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार को वरीयता दी, उसी निष्ठा से सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रचार किया। सौराष्ट्र के जैन-मंदिर संकुल में सबसे प्राचीन मंदिर सम्प्रति के ही बनवाये हुए थे। 

दशरथ और सम्प्रति के बाद पुराणों में क्रमश: शालिशूक, देववर्मन और शतंधनुष का नाम आता है जिनमें शालिशूक को गार्गी संहिता (ज्योतिष ग्रंथ) एक दुष्ट प्रकृति का कलह-प्रिय और अधार्मिक राजा बताती है। अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ को छोड़कर अन्य किसी के बारे में इसके अलावा किसी स्रोत से कोई जानकारी नहीं मिलती। बृहद्रथ के बारे में भी सिर्फ़ इतनी कि उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने सेना के सामने ही उसका वध कर दिया और स्वयं राजा बन गया (185 ई. पू.)। इतना संकेत अवश्य मिलता है कि अशोक के परवर्ती मौर्य राजाओं के काल में साम्राज्य का लगातार विघटन होता रहा और दक्षिण के राज्य एक-एककर स्वतंत्र होते गये। इस स्थिति ने पश्चिमोत्तर की बाहरी ताक़तों—यवनों--को भारत पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित किया और एक अंधकार युग की शुरुआत हुई जो गुप्त काल (320-499) के शुरू होने तक चलता रहा।

पुष्यमित्र ने बृहद्रथ का वध सेना के सामने ही क्यों किया होगा? एक ही कारण हो सकता है, सेना बृहद्रथ से असन्तुष्ट थी। क्यों? पश्चिमोत्तर से यवनों (यूनानियों) का बार-बार आक्रमण हो रहा था किन्तु बृहद्रथ उसका प्रतिकार करने के प्रति उदासीन था। बाद में यवन अयोध्या तक पहुंच गए और उसकी घेराबंदी कर ली जिसका उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है। इसके बाद वे पाटलिपुत्र की ओर बढ़ने लगे। उस समय यवनों का नेतृत्व कर रहा था मिनेंडर। बौद्ध ग्रंथ उसका उल्लेख मिलिन्द के रूप में बहुत आदर से करते हैं। बौद्ध भिक्षु नागसेन और मिलिन्द का संवाद मिलिन्दपन्हों बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें नागसेन मिलिन्द के प्रश्नों का उत्तर देकर उसकी जिज्ञासाएं शांत करते हैं। तो बौद्धों की दिलचस्पी बाह्य आक्रमणकारी यवनों को पराजित कर भारत में उनका प्रवेश रोकने में नहीं, उन्हें बौद्ध बनाने में थी। 

अन्ततः पुष्यमित्र ने यवनों को पराजित कर उन्हें सीमा पार तल ठेल दिया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में पतंजलि के पौरोहित्य में अश्वमेध यज्ञ सम्पादित किया। किन्तु सीमावर्ती यवनों से संघर्ष पुष्यमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र के समय तक चलता रहा जिसने उन्हें निर्णायक शिकस्त दी जिससे उनके साथ शांतिपूर्ण संबंंध स्थापित हो सका (भारत का इतिहास, को. अ. अन्तोना और दो अन्य, प्रगति प्रकाशन, पृ. 108)। 

तो पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या इसलिये नहीं की थी कि वह स्वयं ब्राह्मण था और बृहद्रथ बौद्ध। ऐसा होता तो बृहद्रथ ने एक ब्राह्मण को अपना सेनापति क्यों नियुक्त किया होता? वस्तुत: बौद्ध परम्परा द्वारा पुष्यमित्र शुंग पर बौद्ध मठों और बिहारों के विध्वंस का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण है (Oxford History of India, Vincent Smith, p 139)। एच सी रॉय चौधरी और एरिक सेल्डेसलैच्ट्स (Eric Seldeslachts) ने एतत्संबंधी बौद्ध परम्परा को निराधार घोषित किया है। वाम इतिहासकार रोमिला थापर ने भी इसे अविश्वसनीय बताया है (Decline of the Maurys, 1960, p.200)। इसके विपरीत पुष्यमित्र द्वारा मौर्यकाल में निर्मित सांची और भरहुत के स्तूपों के पुनरुद्धार का अकाट्य प्रमाण मिलता है। वस्तुत: अशोक के अभिलेख मौर्य काल में बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच पूर्ण सौहार्द का संकेत देते हैं। इन अभिलेखों में सर्वत्र बौद्ध श्रमणों के साथ और उनके पहले ब्राह्मणों का उल्लेख हुआ है।

यह धारणा कि पूरे देश की निचली जातियों और अंत्यजों का एक बड़ा तबक़ा एक साथ बौद्ध बन गया, तथ्यात्मक संभावना की कसौटी पर भी खरी नहीं उतरती। देश में बौद्ध धर्म का प्रसार धीरे-धीरे और पॉकेट्स में ही हुआ। वैशाली और मगध या बिहार, सारनाथ और बाद में कोसल (साकेत) इसके केंद्र रहे। बौद्ध दर्शन के विकास के साथ इसके विद्वान नालंदा, तक्षशिला, वलभी और विक्रमशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों में पहुँचे और वहाँ बौद्ध ग्रंथों का पठन-पाठन और चिंतन-मनन शुरू हुआ. किंतु जनसाधारण के लिए अपने पुराने संस्कारों को छोड़कर बौद्ध श्रमणों के उपदेशों के अनुरूप जीवन ढालना आसान नहीं रहा होगा। फिर बौद्ध धर्म के केंद्र थे संघ, विहार और मठ; गृहस्थों के लिए इनके अनुरूप जीवनशैली बदलना अव्यावहारिक और कठिन था। 

बहुत जल्दी ही, वैशाली में आयोजित दूसरी धम्मसंगीति (383 ई.पू.) में महायान और हीनयान का द्वंद्व उठ खड़ा हुआ। महायान के अंतर्गत बौद्ध मंदिर, महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ, उनके पूर्वजन्मों पर आधारित जातक कथाएँ आदि सनातन धर्म से बहुत दूर नहीं जाती थीं और अंतत: महात्मा बुद्ध को विष्णु के अवतार के रूप में सनातन धारा में समाहित कर लिया गया और बौद्ध धर्म का हीनयान प्राचीन तंत्र-साधकों के प्रभाव में वज्रयान में अंतरित होकर पंचमकारों की साधना में लिप्त हो गया जो समाज की मर्यादा और महिलाओं के शील के लिए ख़तरा बन गया। राजपूत काल तक आते-आते बौद्ध धर्म का नामोनिशान मिट गया था। 
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बौद्ध धर्म सारनाथ में बारहवीं शताब्दी तक फल फूल रहा था। गोविन्द चन्द्र गहडवाल 1114 से 1155 के शासनकाल में उसकी पत्नी कुमार देवी द्वारा एक बहुमंजिला मठ बनवाकर बौद्ध भिक्षुओं को दान में दिया गया था। उत्खनन में बौद्ध मठ उद्घाटित हुआ है और कुमार देवी का एक अभिलेख भी प्राप्त हुआ है। सम्प्रति यह मठ भी हीनयान से संबंधित था। मठ के अधिपति का कमरा एक सुरंग के माध्यम से मठ के पीछे खुलता था। जिसमें महिलाओं के साथ रात्रि में यौनाचार होता था। सुरंग से जुड़ता हुआ कक्ष आज भी मौजूद है कक्ष की छत टूट चुकी है। अभिलेख सारनाथ संग्रहालय में आज भी देखा जा सकता है। 

हीनयान भारतीय तंत्र का दूषित रूप बन गया था। समाज-कंटक। शिव प्रसाद सिंह ने अपने एक खोजपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास में विकृत हीनयान का विशद वर्णन किया है। राजपूत काल में उसी रूप में था। समाज की मुख्यधारा से दूर। हाँ, राजपूत काल के पूर्व 712 में जब खलीफ़ा की ओर से बिन कासिम ने सिन्ध के राजा दाहिर पर आक्रमण किया था तो बौद्ध उससे मिल गए थे और दाहिर ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की थी। उसके बाद उसकी दो पुत्रियों को खलीफ़ा के पास भेजा गया था और उनकी बड़ी दुर्गति हुई थी।


यदि समसामयिक स्रोत है तब तो मानना ही होगा, जैसे बिनकासिम का सिंध विजय आधारहीन अवधारणा है, सोमनाथ भंजन तथा चौखट गजनी ले जाना, हजार साल की दासता आदि प्रमाण हीन प्रलाप है. जो प्रसिद्ध लोगों ने किया है. इनका कोई समसामयिक प्रमाण नहीं है. एक एक पर धैर्य से विचार किया। जा सकता है. मेरा आग्रह शिर्फ सत्य जानने का है. 
आर्य आक्रमण का ऐसा सजीव चित्रण नेहरू जी ने किया है मानो लाइव रिकार्ड कर रहे हों, चाहे जितने बड़े हों उनको सम्मानित माना जा सकता है? 
जोधा का विवाह भी अकबर नामा में तो नहीं ही है, उसकी अनेक रानियां, रखैंलें थी लेकिन हाईलाइट इसी को किया गया, क्यों? झूंठ को शोर की जरूरत होती है. 
आखिर इलियट/डाउसन ने ही तो यह सब रचा है और स्वीकार भी किया है कि हिन्दू अपने राजा रानी पर बहुत बड़ी बोल बोलते हैं इन्हें मजा चखाऊंगा. और रच दिया पोथी पर पोथी. 


 पोस्ट में अशोक के बारे में उनके अभिलेखों का सहारा लिया गया है जो समसामयिक हैं। चाणक्य और चंद्रगुप्त के बारे में विशाखदत्त के अतिप्राचीन ऐतिहासिक नाटक मुद्राराक्षसम् को भी आधार बनाया गया है। रही बात मौर्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा सेना के सामने ही अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ की हत्या की। इस हत्या के तथ्य पर तो संभवत: विवाद की गुंजाइश नहीं है। विवाद इस पर हो सकता है कि इस हत्या का कारण क्या रहा होगा और इसके बाद पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों और उनके संघों तथा विहारों के साथ कैसा व्यवहार किया होगा। पोस्ट में यवनों (यूनानियों) के आक्रमण का उल्लेखकर दोनों पक्षों को जोड़ दिया गया है। यवन आक्रमण का तथ्य अकाट्य है। समसामयिक पतंजलि के महाभाष्य में यवनों द्वारा अयोध्या की घेराबंदी के उल्लेख को इंगित किया गया है। इस घटना के 500-600 साल बाद के बौद्ध ग्रंथों में पुष्यमित्र द्वारा बौद्ध धर्म पर किये गए अत्याचारों का उल्लेख मिलता है। इन धार्मिक ग्रंथों के कथ्य की प्रकृति कैसी है? दशरथ जातक में राम को पिछले जन्म का बुद्ध बताया गया है, सीता को राम की बहन बताया गया है जो बाद में उनकी पत्नी बन गईं। बौद्ध और जैन धार्मिक स्रोतों में इतिहास के अनेक अनर्गल और धार्मिक पक्षपात युक्त विवरण मिलते हैं। पुष्यमित्र शुंग के बारे में हेमचंद्र रायचौधरी, विन्सेंट स्मिथ, एक अन्य पाश्चात्य इतिहासकार और वाम इतिहासकार रोमिला थापर में मतैक्य है। रमेशचन्द्र मजूमदार के मत का उल्लेख नहीं है किन्तु उनका भी मत यही है। ध्यातव्य है कि राजा की हत्या के बाद सेना में ही नहीं, राज्याधिकारियों और सामान्य जनता में भी कहीं चूं तक नहीं हुई और शान्तिपूर्वक सत्ता परिवर्तन हो गया। मेरा ख्याल है, रायचौधारी और मजूमदार पर ऐसे आक्षेप न तो लगाए गए, न लगाने का कोई गम्य आधार है जिनका जिक्र आपने किया है। रोमिला थापर की इतिहास दृष्टि वामपंथी मानी जाती है किन्तु इस बिन्दु पर वे गैर वामपंथी इतिहासकारों के साथ हैं।

Saturday, 7 June 2025

शिवाजी और राजतिलक

आज यदमुल्लो ने फिर से जहर उगला है कि शिवाजी का राजतिलक ब्राह्मणो ने पैर के अंगूठे से किया है इसलिए फिर से प्रमाण पोस्ट कर रहे जिससे इस अखिलेश की यदमुल्ली गैंग को आप ट्विटर पर जाकर जबाब दे सको

इतिहास में समकालीन सोर्स का बहुत महत्व होता है
ब्राह्मण कृष्ण जी अनंत खुद शिवाजी के भी राज दरबार में थे और उनके बेटे राजाराम के भी राज दरबार में थे उन्होंने उनके बेटे राजा राम के कहने पर ही शिवाजी का इतिहास सभासद भाखर लिखी है 

इसमें उन्होंने शिवाजी के संपूर्ण राजतिलक का वर्णन किया है 
उन्होंने लिखा है कि पंडित गागा भट्ट जो वास्तव में महाराष्ट्र के ही ब्राह्मण थे उनके पूर्वज बहुत पहले वाराणसी में बस गए थे शिवाजी से मिलने आए और उन्होंने सुझाव दिया कि आप एक क्षत्रिय हो सिसोदिया कुल के हो और आपका राज्य इस समय मुसलमानो से भी विशाल है इसलिए आप चक्रवर्ती क्षत्रिय राजाओं जैसे ही छत्र धारण करिए 
इसके लिए शिवाजी का विशाल राज सिंहासन बनाया गया सोने का मुकुट बनवाया गया गंगाजल 
सहित सभी नदियों से जल मंगाया गया
मनु स्मृति में यह लिखा है कि राजा के 8 मंत्री होते हैं इसलिए शिवाजी ने गागा भट्ट के सलाह पर 8 मंत्री बनाए जिसमें सात ब्राह्मण थे 
गंगा भट्ट और अन्य ब्राह्मणों ने पूजा की और शिवाजी को सिंहासन पर बिठाकर वेद मंत्रों के उनका राजतिलक किया 
सातों ब्राह्मण मंत्री और अन्य एक मंत्री उनके अगल बगल खड़े होकर इस संपूर्ण विधिविधान में शोभा बढ़ाए
सभी मंत्रियों को शिवाजी द्वारा उस जमाने की ₹100000 दक्षिणा दी गई 
इसके अलावा ६०००० ब्राह्मण और लगभग 100000 प्रजा इकट्ठा हुई जिसको शिवाजी ने खुलकर दान दिया 
उस जमाने की एक करोड़ 60 लख रुपए दान देने में खर्च हुआ
प्रमाण सभासद भाखर पेज ८२ से ९२ कमेंट में

भोजन के समय जल ग्रहण

🙁किसी ने भोजन के समय वाम हस्त से जल पीने में मना किया है; तदर्थ "वामहस्ते जलं धृत्वा मणिबन्धे निधाय च।भुञ्जमान: पिबन्वारि नोच्छिष्टं मनुरब्रवीत्।।" अन्यदपि "जलपात्रं तु नि:क्षिप्य मणिबन्धे च दक्षिणे। विप्रो भोजनकाले तु पिबेद्वामेन पाणिना।। धारया नोदकं पेयं पीत्वा दोषमवाप्नुयात्। जलपात्रेण तत्पेयमिति शातातपोब्रवीत्।।" भोजनकाल में जलपात्र को वाम हस्त से उठाकर दक्षिण मणिबन्ध पर रखे और वाम हस्त से शनै: जलपान करे। भोजनकाल में दक्षिणहस्त से जल पीना कुछ आश्वलायनों के लिए है, यथा "दक्षिणेनैव भुञ्जान उदकं पिबेत्" इति। जलपात्र को ऊपर उठाकर मुख में जलधारा से जल पीना दोषावह है। भोजनेतर काल में- "न पिबेन्न च भुञ्जीत द्विज: सव्येन पाणिना। नैकहस्तेन च जलं शूद्रेणावर्जितं पिबेत्।।" दायें हाथ से जल पीना चाहिए। देशशाखाद्यवच्छेदेन वैविध्य का बोध न हो तो चञ्चुचालन करते रहना कथमपि सही नहीं...