Sunday, 8 June 2025

बौद्ध धर्म

भारत में बौद्ध धर्म का विस्तार और संकुचन 

महात्मा बुद्ध के बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद ही उनके विचार धर्म और दर्शन का रूप ग्रहण कर सकते थे। यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि भारत के प्राचीन इतिहास में कभी ऐसा काल नहीं आया जिसे धार्मिक दृष्टि से बौद्ध काल कहा जा सके। हिमालय की तलहटी से विंध्य तक फैले सोलह महाजनपदों का काल महात्मा बुद्ध के बुद्धत्व प्राप्त करने से पहले का है जिसमें ब्राह्मण धर्म का वर्चस्व क़ायम रहा। 

नंद वंश और मौर्य वंश के शासक शूद्र होते हुए भी ब्राह्मण धर्म के अनुरूप ही शासन करते रहे और महज़ शूद्र होने के नाते उनके किसी तरह के प्रतिरोध का प्रमाण नहीं मिलता। 

ब्राह्मण चाणक्य ने निरंकुश हुए नंदों के विनाश के लिए एक साहसी और महत्वाकांक्षी युवक के रूप में चंद्रगुप्त को तैयार‌ किया और जीवन पर्यंत उसके हित साधन में लगे रहे। विशाखदत्त के प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक मुद्राराक्षम्‌ में शासन के स्थायित्व के लिए चंद्रगुप्त के संघर्ष के दौरान चाणक्य लगातार उसे ‘वृषल’ (निम्नकुलोत्पन्न) कहकर संबोधित करता रहा। जब मुख्यत: चाणक्य के प्रयास से नंदों के प्रति स्वामिभक्त राजपुरुषों और अधिकारियों का गुट चंद्रगुप्त के अनुकूल हो गया तथा पश्चिमोत्तर के देशी और विदेशी राजाओं को बिना युद्ध के, कूटनीति+कुशल ख़ुफ़िया तंत्र के सहारे निष्क्रिय कर दिया गया, तभी चाणक्य चंद्रगुप्त को पहली बार ‘भो राजन्‌ चंद्रगुप्त’ कहकर संबोधित करता है।            

केवल अशोक के काल में बौद्ध धर्म का उत्कर्ष दिखाई पड़ता है जिसने कलिंग-युद्ध के बाद उपजे पश्चात्ताप में बौद्ध धर्म की शरण ली। अशोक के काल में सदाचार के साथ-साथ बौद्ध धर्म में केंद्रीभूत अहिंसा पर भी बल दिया गया। किंतु अशोक में धार्मिक असहिष्णुता या ब्राह्मण धर्म से विद्वेष का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इसके विपरीत ब्राह्मण धर्म ने बौद्ध धर्म के प्रभाव को निरस्त करने के लिए स्वयं में परिवर्तन लाकर पशुओं की बलि वाले यज्ञों का बहिष्कार कर दिया। वैष्णव ब्राह्मणों ने मांसाहार तक का परित्याग कर दिया। शेष हिंदू जनता में हर जाति का एक बड़ा तबक़ा मांसाहार का परित्याग कर शाकाहारी हो गया।  

इस सम्बंध में अशोक के शिलालेख-1 और स्तम्भलेख-2 और 5 में निम्न उल्लेख महत्वपूर्ण है—

“पहले राजकीय रसोई में प्रति दिन सैकड़ों हज़ार (अतिशयोक्ति संभव है) जीवों का वध होता था। किंतु जब यह पवित्र अभिलेख लिखा जा रहा है, कढ़ी के लिए केवल तीन जीवों की हत्या होती है—दो मोर और एक हिरण की—इनमें से भी हिरण की हमेशा नहीं। अब इन तीन जीवों का भी वध नहीं किया जाएगा।“ 

अशोक का शिलालेख-5 कई पक्षियों, कछुओं और हड्डी-विहीन मछलियों के वध पर निषेध लगाने के साथ बकरियों, भेड़ों, गायों के वध के बारे में निम्नलिखित आदेश जारी करता है—
“बकरियों (बकरे नहीं), भेड़ों और छ: महीने की उम्र तक के उनके बछड़ों (नर, मादा दोनों) तथा गायों (वे कम उम्र की हों, दूध देनेवाली हों या न हों) को वध से मुक्त किया जाता है।“  

तो, अशोक के समय में निश्चय ही मांसाहार को हतोत्साहित किया गया और बहुत संभव है तभी से हिंदुओं ने गोमांस-भक्षण को टैबू मान लिया। 

अशोक की मृत्यु के बाद उसके किसी पुत्र को राज्याधिकार मिलने का साक्ष्य नहीं मिलता। इसके बजाय साम्राज्य का उत्तराधिकार सीधे उसके दो पौत्रों—दशरथ और सम्प्रति को मिला। दशरथ को साम्राज्य का पूर्वी हिस्सा मिला और उसने पुरानी राजधानी पाटलिपुत्र से शासन किया। सम्प्रति ने उज्जैन को अपनी नई राजधानी बनाकर शासन शुरू किया। इस तरह अशोक की मृत्यु के बाद ही कम से कम अस्थाई तौर पर साम्राज्य का विभाजन हो गया। यह भी साक्ष्य मिलता है कि जिस निष्ठा से अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार को वरीयता दी, उसी निष्ठा से सम्प्रति ने जैन धर्म का प्रचार किया। सौराष्ट्र के जैन-मंदिर संकुल में सबसे प्राचीन मंदिर सम्प्रति के ही बनवाये हुए थे। 

दशरथ और सम्प्रति के बाद पुराणों में क्रमश: शालिशूक, देववर्मन और शतंधनुष का नाम आता है जिनमें शालिशूक को गार्गी संहिता (ज्योतिष ग्रंथ) एक दुष्ट प्रकृति का कलह-प्रिय और अधार्मिक राजा बताती है। अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ को छोड़कर अन्य किसी के बारे में इसके अलावा किसी स्रोत से कोई जानकारी नहीं मिलती। बृहद्रथ के बारे में भी सिर्फ़ इतनी कि उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने सेना के सामने ही उसका वध कर दिया और स्वयं राजा बन गया (185 ई. पू.)। इतना संकेत अवश्य मिलता है कि अशोक के परवर्ती मौर्य राजाओं के काल में साम्राज्य का लगातार विघटन होता रहा और दक्षिण के राज्य एक-एककर स्वतंत्र होते गये। इस स्थिति ने पश्चिमोत्तर की बाहरी ताक़तों—यवनों--को भारत पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित किया और एक अंधकार युग की शुरुआत हुई जो गुप्त काल (320-499) के शुरू होने तक चलता रहा।

पुष्यमित्र ने बृहद्रथ का वध सेना के सामने ही क्यों किया होगा? एक ही कारण हो सकता है, सेना बृहद्रथ से असन्तुष्ट थी। क्यों? पश्चिमोत्तर से यवनों (यूनानियों) का बार-बार आक्रमण हो रहा था किन्तु बृहद्रथ उसका प्रतिकार करने के प्रति उदासीन था। बाद में यवन अयोध्या तक पहुंच गए और उसकी घेराबंदी कर ली जिसका उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है। इसके बाद वे पाटलिपुत्र की ओर बढ़ने लगे। उस समय यवनों का नेतृत्व कर रहा था मिनेंडर। बौद्ध ग्रंथ उसका उल्लेख मिलिन्द के रूप में बहुत आदर से करते हैं। बौद्ध भिक्षु नागसेन और मिलिन्द का संवाद मिलिन्दपन्हों बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें नागसेन मिलिन्द के प्रश्नों का उत्तर देकर उसकी जिज्ञासाएं शांत करते हैं। तो बौद्धों की दिलचस्पी बाह्य आक्रमणकारी यवनों को पराजित कर भारत में उनका प्रवेश रोकने में नहीं, उन्हें बौद्ध बनाने में थी। 

अन्ततः पुष्यमित्र ने यवनों को पराजित कर उन्हें सीमा पार तल ठेल दिया तथा इस विजय के उपलक्ष्य में पतंजलि के पौरोहित्य में अश्वमेध यज्ञ सम्पादित किया। किन्तु सीमावर्ती यवनों से संघर्ष पुष्यमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र के समय तक चलता रहा जिसने उन्हें निर्णायक शिकस्त दी जिससे उनके साथ शांतिपूर्ण संबंंध स्थापित हो सका (भारत का इतिहास, को. अ. अन्तोना और दो अन्य, प्रगति प्रकाशन, पृ. 108)। 

तो पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या इसलिये नहीं की थी कि वह स्वयं ब्राह्मण था और बृहद्रथ बौद्ध। ऐसा होता तो बृहद्रथ ने एक ब्राह्मण को अपना सेनापति क्यों नियुक्त किया होता? वस्तुत: बौद्ध परम्परा द्वारा पुष्यमित्र शुंग पर बौद्ध मठों और बिहारों के विध्वंस का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण है (Oxford History of India, Vincent Smith, p 139)। एच सी रॉय चौधरी और एरिक सेल्डेसलैच्ट्स (Eric Seldeslachts) ने एतत्संबंधी बौद्ध परम्परा को निराधार घोषित किया है। वाम इतिहासकार रोमिला थापर ने भी इसे अविश्वसनीय बताया है (Decline of the Maurys, 1960, p.200)। इसके विपरीत पुष्यमित्र द्वारा मौर्यकाल में निर्मित सांची और भरहुत के स्तूपों के पुनरुद्धार का अकाट्य प्रमाण मिलता है। वस्तुत: अशोक के अभिलेख मौर्य काल में बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच पूर्ण सौहार्द का संकेत देते हैं। इन अभिलेखों में सर्वत्र बौद्ध श्रमणों के साथ और उनके पहले ब्राह्मणों का उल्लेख हुआ है।

यह धारणा कि पूरे देश की निचली जातियों और अंत्यजों का एक बड़ा तबक़ा एक साथ बौद्ध बन गया, तथ्यात्मक संभावना की कसौटी पर भी खरी नहीं उतरती। देश में बौद्ध धर्म का प्रसार धीरे-धीरे और पॉकेट्स में ही हुआ। वैशाली और मगध या बिहार, सारनाथ और बाद में कोसल (साकेत) इसके केंद्र रहे। बौद्ध दर्शन के विकास के साथ इसके विद्वान नालंदा, तक्षशिला, वलभी और विक्रमशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों में पहुँचे और वहाँ बौद्ध ग्रंथों का पठन-पाठन और चिंतन-मनन शुरू हुआ. किंतु जनसाधारण के लिए अपने पुराने संस्कारों को छोड़कर बौद्ध श्रमणों के उपदेशों के अनुरूप जीवन ढालना आसान नहीं रहा होगा। फिर बौद्ध धर्म के केंद्र थे संघ, विहार और मठ; गृहस्थों के लिए इनके अनुरूप जीवनशैली बदलना अव्यावहारिक और कठिन था। 

बहुत जल्दी ही, वैशाली में आयोजित दूसरी धम्मसंगीति (383 ई.पू.) में महायान और हीनयान का द्वंद्व उठ खड़ा हुआ। महायान के अंतर्गत बौद्ध मंदिर, महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ, उनके पूर्वजन्मों पर आधारित जातक कथाएँ आदि सनातन धर्म से बहुत दूर नहीं जाती थीं और अंतत: महात्मा बुद्ध को विष्णु के अवतार के रूप में सनातन धारा में समाहित कर लिया गया और बौद्ध धर्म का हीनयान प्राचीन तंत्र-साधकों के प्रभाव में वज्रयान में अंतरित होकर पंचमकारों की साधना में लिप्त हो गया जो समाज की मर्यादा और महिलाओं के शील के लिए ख़तरा बन गया। राजपूत काल तक आते-आते बौद्ध धर्म का नामोनिशान मिट गया था। 
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बौद्ध धर्म सारनाथ में बारहवीं शताब्दी तक फल फूल रहा था। गोविन्द चन्द्र गहडवाल 1114 से 1155 के शासनकाल में उसकी पत्नी कुमार देवी द्वारा एक बहुमंजिला मठ बनवाकर बौद्ध भिक्षुओं को दान में दिया गया था। उत्खनन में बौद्ध मठ उद्घाटित हुआ है और कुमार देवी का एक अभिलेख भी प्राप्त हुआ है। सम्प्रति यह मठ भी हीनयान से संबंधित था। मठ के अधिपति का कमरा एक सुरंग के माध्यम से मठ के पीछे खुलता था। जिसमें महिलाओं के साथ रात्रि में यौनाचार होता था। सुरंग से जुड़ता हुआ कक्ष आज भी मौजूद है कक्ष की छत टूट चुकी है। अभिलेख सारनाथ संग्रहालय में आज भी देखा जा सकता है। 

हीनयान भारतीय तंत्र का दूषित रूप बन गया था। समाज-कंटक। शिव प्रसाद सिंह ने अपने एक खोजपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास में विकृत हीनयान का विशद वर्णन किया है। राजपूत काल में उसी रूप में था। समाज की मुख्यधारा से दूर। हाँ, राजपूत काल के पूर्व 712 में जब खलीफ़ा की ओर से बिन कासिम ने सिन्ध के राजा दाहिर पर आक्रमण किया था तो बौद्ध उससे मिल गए थे और दाहिर ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की थी। उसके बाद उसकी दो पुत्रियों को खलीफ़ा के पास भेजा गया था और उनकी बड़ी दुर्गति हुई थी।


यदि समसामयिक स्रोत है तब तो मानना ही होगा, जैसे बिनकासिम का सिंध विजय आधारहीन अवधारणा है, सोमनाथ भंजन तथा चौखट गजनी ले जाना, हजार साल की दासता आदि प्रमाण हीन प्रलाप है. जो प्रसिद्ध लोगों ने किया है. इनका कोई समसामयिक प्रमाण नहीं है. एक एक पर धैर्य से विचार किया। जा सकता है. मेरा आग्रह शिर्फ सत्य जानने का है. 
आर्य आक्रमण का ऐसा सजीव चित्रण नेहरू जी ने किया है मानो लाइव रिकार्ड कर रहे हों, चाहे जितने बड़े हों उनको सम्मानित माना जा सकता है? 
जोधा का विवाह भी अकबर नामा में तो नहीं ही है, उसकी अनेक रानियां, रखैंलें थी लेकिन हाईलाइट इसी को किया गया, क्यों? झूंठ को शोर की जरूरत होती है. 
आखिर इलियट/डाउसन ने ही तो यह सब रचा है और स्वीकार भी किया है कि हिन्दू अपने राजा रानी पर बहुत बड़ी बोल बोलते हैं इन्हें मजा चखाऊंगा. और रच दिया पोथी पर पोथी. 


 पोस्ट में अशोक के बारे में उनके अभिलेखों का सहारा लिया गया है जो समसामयिक हैं। चाणक्य और चंद्रगुप्त के बारे में विशाखदत्त के अतिप्राचीन ऐतिहासिक नाटक मुद्राराक्षसम् को भी आधार बनाया गया है। रही बात मौर्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा सेना के सामने ही अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ की हत्या की। इस हत्या के तथ्य पर तो संभवत: विवाद की गुंजाइश नहीं है। विवाद इस पर हो सकता है कि इस हत्या का कारण क्या रहा होगा और इसके बाद पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों और उनके संघों तथा विहारों के साथ कैसा व्यवहार किया होगा। पोस्ट में यवनों (यूनानियों) के आक्रमण का उल्लेखकर दोनों पक्षों को जोड़ दिया गया है। यवन आक्रमण का तथ्य अकाट्य है। समसामयिक पतंजलि के महाभाष्य में यवनों द्वारा अयोध्या की घेराबंदी के उल्लेख को इंगित किया गया है। इस घटना के 500-600 साल बाद के बौद्ध ग्रंथों में पुष्यमित्र द्वारा बौद्ध धर्म पर किये गए अत्याचारों का उल्लेख मिलता है। इन धार्मिक ग्रंथों के कथ्य की प्रकृति कैसी है? दशरथ जातक में राम को पिछले जन्म का बुद्ध बताया गया है, सीता को राम की बहन बताया गया है जो बाद में उनकी पत्नी बन गईं। बौद्ध और जैन धार्मिक स्रोतों में इतिहास के अनेक अनर्गल और धार्मिक पक्षपात युक्त विवरण मिलते हैं। पुष्यमित्र शुंग के बारे में हेमचंद्र रायचौधरी, विन्सेंट स्मिथ, एक अन्य पाश्चात्य इतिहासकार और वाम इतिहासकार रोमिला थापर में मतैक्य है। रमेशचन्द्र मजूमदार के मत का उल्लेख नहीं है किन्तु उनका भी मत यही है। ध्यातव्य है कि राजा की हत्या के बाद सेना में ही नहीं, राज्याधिकारियों और सामान्य जनता में भी कहीं चूं तक नहीं हुई और शान्तिपूर्वक सत्ता परिवर्तन हो गया। मेरा ख्याल है, रायचौधारी और मजूमदार पर ऐसे आक्षेप न तो लगाए गए, न लगाने का कोई गम्य आधार है जिनका जिक्र आपने किया है। रोमिला थापर की इतिहास दृष्टि वामपंथी मानी जाती है किन्तु इस बिन्दु पर वे गैर वामपंथी इतिहासकारों के साथ हैं।

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