जब अंतर्मन शंकाओं से भर जाए..
जब "तम" के तट पर खड़ा मन कांप उठे...
तब मुझे पढ़ना...
जब विकल्पों की डगर,विकट हो..
और कोई दीप न दृष्टिगत हो..
जब अपने भी मौन हो जाएं..
तब मुझे पढ़ना...
मैं नहीं केवल अक्षरों में बंधा एक लेख..,
मैं हूं ऋषियों की दीर्घ तपस्या का संवाद..
मैं हूं वेदांत की गूंज,मैं हूं गीता का सार..
मैं हूं वही,जिसे तुमने अब तक रखा था उस पार..
तुम पूछोगे,"क्या करूं?","कैसे जिऊं?"
मैं कहूंगा,"कर्तव्य करो,करुणा से,निस्पृह भाव से।"
तुम कहोगे,"क्यों सहूं?","कब तक सहूं?"
मैं कहूंगा,धैर्य रखो,
ये क्षण भी बाकी सब की भांति,बीत जाएगा..
तुम रोओगे,"कोई नहीं समझता मुझे..."
मैं कहूंगा,"मैं समझता हूं तुम्हें..
और समझाता भी मैं ही हूं"
स्मरण रखना,
जब भी मर्म छटपटाए,हृदय थक जाए,
जब भी विकल हो मन का सागर..,
तब मुझे पढ़ना...
शब्दों के पार मैं मिलूंगा,मौन के द्वार पर मैं बैठा हुआ..
उत्तर बनकर,पथप्रदर्शक बनकर,तुम्हारे अपने भीतर..
तुम कभी अकेले न थे,न हो,न रहोगे..
मैं सदा तुम्हारे साथ हूं,तुम्हारा ही आलेख हूं..
मुझे पढ़ो तो सही...
मैं तुम्हारे लिए ही रचा गया हूं..
मुझे पढ़ो तो सही...
जब मृत्यु की छाया निकट लगे,
और जीने का अर्थ धूमिल हो जाए...
तब मुझे पढ़ना..
जब कोई न बचे साथ देने..
जब पूरा संसार मौन हो जाए..
तब मुझे पढ़ना...
जब दुःख कहे,"तू अब और नहीं सह पाएगा..."
जब मन कहे,"अब सब व्यर्थ है..."
तब मुझे पढ़ना...
मैं तुम्हें बताऊंगा..
कैसे युद्धभूमि में,अर्जुन उठ खड़ा हुआ था..
कैसे वनवास में,श्री राम ने धैर्य को चुना था..
कैसे प्रह्लाद ने एक स्तंभ में,विश्वास को चुना था...
और तब तुम...
पुनः उठोगे..
पुनः लड़ोगे..
पुनः विजयी होगे...
और ये संसार...
तब तुमको पढ़ेगा..
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