Wednesday, 18 June 2025

एक ही घटना किसी को आस्तिक किसी को नास्तिक बनती है

एक ही घटना,किसी को ईश्वर से विमुख कर देती है,तो किसी को उसी ईश्वर की ओर मोड़ देती है।कोई चीखता है,"अगर भगवान होते,तो मेरे साथ ऐसा क्यों होता?"तो कोई रोकर,टूटकर कहता है,"हे प्रभु!अब मुझे आपकी आवश्यकता है,कृपा करो!"

मानव की चेतना,जब किसी प्रचंड जीवन–आघात से टकराती है,जैसे कि,किसी प्रिय का असमय निधन,कोई बड़ा अन्याय,अपार हानि,या कोई असहनीय शारीरिक–मानसिक पीड़ा,तब वो उसकी आध्यात्मिक भूमि को झकझोर देती है।
वहां से दो प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं–:

प्रथम पथ...
"नास्तिकता की ज़िद्द",अहं की दीवारें और तर्कों का अंधकार,कुछ लोग उस आघात को,अपना निजी युद्ध मानकर,ईश्वर के ही अस्तित्व को नकार देते हैं।वो कहते हैं,"अगर भगवान होते,तो मेरे पिता क्यों मरते? मेरी बेटी को कैंसर क्यों होता?क्यों हुआ मेरे साथ यह अन्याय?"

ये प्रतिक्रिया वास्तव में,अहंकार की गहराई से जन्म लेती है।ये वो मानसिक अवस्था है,जिसमें व्यक्ति चाहता है कि,ब्रह्मांड उसके नियमों से चले,और जब ब्रह्मांड उस अपेक्षा के विपरीत चलता है,तो वो संकट से नहीं,नियंत्रण के अभाव से टूटता है।वो प्रश्न नहीं पूछते,वो उत्तरों को नकारते हैं।तर्क नहीं खोजते,वो तर्कों से द्वेष करने लगते हैं।"यदि मैं ईश्वर को नहीं समझ पाया,तो वो है ही नहीं",ये एक बाल–सुलभ,किंतु,
विद्वत्तामयी ज़िद्द है,जो उन्हें,"विनाश" की ओर ले जाती है।

धर्मग्रंथों में भी ऐसे व्यक्तियों को ‘मन्यते अहम’ कहकर संबोधित किया गया है,
"जो स्वयं को ही अंतिम सत्य मानते हैं।"

श्रीमद्भगवद्गीता (16.8) में,
ऐसे लोगों का वर्णन करते हुए कहा गया है,
"असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥"

वो कहते हैं,ये संसार असत्य है,बिना किसी आधार के है, बिना ईश्वर के है,ये केवल वासना से उत्पन्न हुआ है।"

द्वितीय पथ..
आस्तिकता की विनम्रता,पतन से उठता एक नया पथ।
और वहीं,उसी घटना से कोई और,जो पहले तर्कवादी था, जीवन को भौतिकता से ऊपर कुछ नहीं मानता था,वो विनम्र हो उठता है।जब उसका विज्ञान उत्तर नहीं दे पाता,जब उसके शब्द मौन हो जाते हैं,और जब सारी तकनीक असहाय हो जाती है,तब वो अपने भीतर झांकता है।

वो कहता है,"अब मुझे अपने भीतर उतरना होगा।"

वो रोता है,पर ईश्वर को पुकारता है।वो गिरता है,पर नम्रता से कहता है,"हे ईश्वर! मुझे ज्ञानी नहीं,योग्य बना दो।"और तब,वो ही ब्रह्मांड,जो पहले उसके लिए,एक जड़–तत्व था,अब चेतन हो उठता है।गुरु मिलते हैं,संकेत आने लगते हैं,स्वप्नों में प्रतीक प्रकट होने लगते हैं,और ब्रह्मज्ञान के बीज,उसकी आत्मा में अंकुरित होने लगते हैं.....

क्यों होता है ऐसा..?
कारण "घटना" नहीं..
कारण "चेतना" है...

ये अंतर इसीलिए है कि,घटना समान होती है,परंतु,"चेतना" भिन्न होती है।जिसका मन ईश्वर से लड़ता है,वो ज्ञान को अस्वीकार करता है।जिसका मन ईश्वर से झुकता है,वो ज्ञान को आत्मसात करता है।ये अंतर उसी प्रकार है जैसे,सूर्य सब पर समान रूप से प्रकाश डालता है,परंतु सूरजमुखी उस दिशा में खिलता है जिस दिशा में सूर्य है,और उल्लू उस ओर भागता है जहां सूर्य का प्रकाश नहीं,अंधकार है।

फिर मन में प्रश्न आता है,कि आख़िर कौन सही है,नास्तिक या आस्तिक?

सनातन धर्म के अनुसार,नास्तिक कोई दोषी नहीं है,वो बस जीवन के कठिन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते–ढूंढते थक गया पथिक है।परंतु जब वो थक कर,विश्राम के स्थान को भी,ठुकरा दे,जब वो अपने दुख को ही,"अंतिम सत्य" घोषित कर दे,और जब वो अपने अनुभव को ही,"पूर्ण–ज्ञान" मान ले,
तब वो,"पतन" की ओर बढ़ता है...........

जो वेदों को न माने,नकारे या उनका तिरस्कार करे,जो आत्मा,पुनर्जन्म,कर्मफल,और ब्रह्म को न माने,वो नास्तिक की श्रेणी में आता है।इस प्रकार ईश्वर को न मानना पर्याप्त नहीं,यदि कोई व्यक्ति वेद,आत्मा,धर्म के साथ,ईश्वर को ही अस्वीकार करे,तो वो "नास्तिक" है।

सनातन धर्म ने अन्य पंथों की भांति,इन विचारधाराओं को पूरी तरह बहिष्कृत नहीं किया।उनमें भी,"तत्व–बोध" और "तर्क–सम्मत संवाद" के लिए,स्थान दिए गए।इसमें चार्वाक दर्शन,प्रमुख है,जो वर्तमान नास्तिकता का प्रतीक है,"यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।"अर्थात् ,जब तक जीओ,सुख से जीओ,चाहे कर्ज लेकर घी पीना पड़े।चार्वाक दर्शन,भौतिकवाद और इंद्रिय–सुख को ही,जीवन का लक्ष्य मानता था।पुनर्जन्म,आत्मा,और धर्म को नकारता था।ये आज के मॉडर्न नास्तिक दृष्टिकोण के सबसे निकट है।

 श्रीमद्भगवद्गीता (16.8–9):
"असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥"
 "ये दैत्यस्वभाव वाले लोग कहते हैं कि,ये संसार बिना किसी ईश्वर के है,बिना किसी आधार के है,केवल वासना से उत्पन्न हुआ है।"

 "एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥"

"ऐसी दृष्टि वाले,बुद्धिहीन,आत्मा से विमुख व्यक्ति,
संसार के विनाश के लिए पैदा होते हैं।"

योगेश्वर श्रीकृष्ण,नास्तिकता को अल्पबुद्धि और जगत–विनाशकारी प्रवृत्ति बताते हैं।

याज्ञवल्क्य ऋषि (बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.12):
 "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः,श्रोतव्यः,मन्तव्यः, निदिध्यासितव्यः।"
आत्मा को देखना,सुनना,विचारना और मनन करना आवश्यक है।जो आत्मा को ही नहीं मानता,वो आध्यात्मिकता के द्वार पर भी नहीं आ सकता।

फिर भी,सनातन धर्म में अद्भुत धैर्य है,वो नास्तिक से भी संवाद करता है,और बार–बार करता है।सनातन धर्म,नास्तिकता से डरता नहीं,भागता नहीं,वो तर्क करता है, झगड़ता नहीं।उसमें बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ हुए,चार्वाक का खंडन हुआ,पर नास्तिक को भी,"संवाद का अवसर" मिला।

इसीलिए सनातन धर्म,कोई "एक–मतवादी कट्टर विचारधारा" नहीं,वो तो चेतना का महासागर है,जहां हर मत,एक लहर है,जो सत्य के तट से टकराकर,या तो,"लौटती है",
या उसमें "विलीन हो जाती है।"

असल में,सनातन धर्म के अनुसार,
"नास्तिकता एक "पड़ाव" है,"अंतिम लक्ष्य" नहीं है।"

अनेक ऋषि जैसे,वाल्मीकि,अजामिल,अंगुलिमाल,प्रारंभ में अधार्मिक या नास्तिक से भी नीचे थे,पर उन्होंने परिवर्तन स्वीकारा,और सत्य के पथ पर आ गए।इसलिए सनातन धर्म कहता है,"नास्तिक होना पाप नहीं,पर नास्तिक बनकर *अहंकार करना*,ये ही *पतन* का कारण है।"

जो वेद,आत्मा,पुनर्जन्म और ईश्वर को न माने,वो नास्तिक है।जो केवल तर्कों में उलझकर श्रद्धा को त्याग दे,वो नास्तिक है।जो अपने अहंकार को ज्ञान मान ले,वो नास्तिक है।परंतु जो सत्य की खोज में प्रश्न करता है,झूठे देवताओं को(प्रेत–पूजा)नकारता है,झूठे मठाधीशों का खंडन करता है,उनका विरोध करता है,किंतु विनम्र बना रहता है,वो "प्रश्नकर्ता" है,न कि नास्तिक।

श्रद्धा से ही सत्य प्रकट होता है,तर्क से सत्य परखना संभव है,परंतु तर्क से सत्य को जन्म नहीं दिया जा सकता।जिसे श्रद्धा का गर्भ चाहिए,वो ही ज्ञान का जन्मदाता बन सकता है।और "आस्तिक" वो कोई "अंधभक्त" नहीं।वो तो अनुभव से नम्र हुआ हुआ "ज्ञान–पथिक" है,जो ये मानता है कि,"मैं सब कुछ नहीं जानता",इसलिए वो सीखता है,स्वीकारता है,और इसीलिए,ब्रह्मांड उसके लिए बोलने लगता है।

स्मरण रखो,अहं की दीवारें गिराओ,
तो ब्रह्मांड अवश्य तुमसे बोलेगा।

ईश्वर न किसी घटना में छिपा है,न किसी तर्क में,वो छिपा है आपकी पात्रता में।यदि आप ज़िद्द छोड़ दें,तो सत्य झुक कर आपके द्वार पर खड़ा होगा।यदि आप विनम्रता से स्वीकार कर लें कि "मुझे अभी सब कुछ नहीं आता",तो सृष्टि अपने रहस्य खोलने लगेगी।एक ही घटना से कोई नास्तिक बनता है,कोई आस्तिक,क्योंकि ब्रह्मांड नहीं बदलता,चेतना बदलती है।दोष न घटना का है,न ईश्वर का,दोष या तो अहंकार का है,या तो श्रद्धा की कमी का।जो गिरकर रोता है,वो खड़ा होकर चलना सीखता है,पर जो गिरकर क्रोध करता है,वो वहीं पड़ा रह जाता है...

अब निर्णय तुम्हारा है..चलना सीखना है,
या ज़मीन को दोष देते हुए,वहीं पड़े–पड़े,हाथ–पैर पटकते रहना है।विवेक से चुनो,क्योंकि,तुम्हारा निर्णय,तुम्हारी नीति बनाएगा,और वही नीति,तुम्हारी नियति लिखेगी।इस बार चुन लो समझदारी से,नहीं तो कोई बात नहीं,वक्त फिर आएगा,कभी किसी और युग में,किसी और जन्म में,किसी और देह में।

फिर कोई तुम्हें समझाएगा,फिर कोई जीवन का सत्य बताएगा,बस उस दिन,थोड़ा विनम्र होना,थोड़ा मौन होना,
क्योंकि,जब तक तुम समझ नहीं जाओगे,ये शिक्षक,ये जीवन,तुम्हें छोड़ेगा नहीं,तुम्हें बार–बार बुलाएगा,बार–बार गिराएगा,जब तक तुम चलना सीख नहीं जाते,मैं सीख रहा हूं,
मेरे संग ही इस बार सीख लो..
सीखोगे..?

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