Monday, 9 June 2025

सोशल मीडिया की अतार्किक भीड़

एक बार पुनः साबित हो गया कि,सोशल मीडिया की अतार्किक भीड़,न्याय नहीं देती,केवल डोपामिन का नशा बांटती है,"सोनम–राजा कांड",इसका ताजा प्रमाण है।

एक लड़की ने पति के साथ छल किया,उसकी निर्मम हत्या की,और लोगों ने ये तथ्य बाहर आने से पूर्व ही अपनी मृगतृष्णा–रची कथा में,पूरे उत्तर-पूर्व भारत को भी दोषी ठहरा दिया और फिर क्या हुआ?

सोशल मीडिया के मठाधीशों ने,तुरन्त, #NortheastUnsafe के बाण चलाने शुरू कर दिए,बिना तथ्य,बिना किसी अध्ययन के,तथ्य क्या हैं?किसे परवाह थी?अध्ययन करने के लिए,किसके पास समय है?यहां तो, किसी और के द्वारा,किया हुआ "अध्ययन" पढ़ने से भी,लोग कतराते हैं,स्वयं अध्ययन करना,तो दूर की कौड़ी है।

इस अतर्किक भीड़ को तो,त्वरित न्याय चाहिए,वो भी बिना अध्ययन किया हुआ,"डिजिटल न्याय",बिल्कुल अभी के अभी,
बस आज ही हो जाए फैसला।

इस केस में भी वही हुआ...
पर जब सच्चाई सामने आई,और सोनम ही सूत्रधार निकली, तब वही "वीर कीबोर्ड योद्धा" चुप्पी साध गए।

क्यों?
क्योंकि यह युद्ध,"सत्य" के लिए नहीं,
"डोपामिन" के नशे के लिए था...

जब भी कोई घटना घटती है,मस्तिष्क में "डोपामिन" रिसता है,तुरन्त प्रतिक्रिया देने,नैतिक ऊंचाई को दिखाने का नशा, चढ़ता है।"मैंने आवाज उठाई","मैं जागरूक हूं",ये "भाव", आडम्बर का चोला पहन लेता है।

हार्मोंस के प्रभाव के बारे में,विस्तृत चर्चा,मैंने अपने पिछले आलेख, #आत्महत्या_तुम्हारा_चुनाव_या_प्रेत_प्रभाव में की थी,जिन्होंने पढ़ा है,वो लेख,वो समझेंगे अच्छे से कि,"डोपामिन"एक इनाम(reward) देने वाला हार्मोन है।जब व्यक्ति किसी घटना पर तेजी से प्रतिक्रिया देता है,विशेषकर,नैतिक उच्चता दिखाते हुए,तब उसका मस्तिष्क,डोपामिन रिलीज करता है,
"मैंने यह पहले देख लिया!"
 "मैं सबसे पहले बोला!",
"मैंने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई!"

इससे उन्हें,"नैतिक योद्धा" जैसा अहसास होता है,ये उन्हें एक "नशा" देता है,इसलिए लोग,तथ्यों की प्रतीक्षा नहीं करते,वो त्वरित प्रतिक्रिया देने में डूब जाते हैं।

फिर जब किसी घटना में "भय" या "अन्याय" का कोण आता है (जैसे #Northeast_Unsafe),तब,कोर्टिसोल (तनाव हार्मोन) बढ़ता है।इससे मस्तिष्क,"रैशनल" सोचने में,असमर्थ हो जाता है।"फाइट or फ्लाइट" मोड सक्रिय हो जाता है।व्यक्ति घटना को जटिलता में देखने के बजाय, सफेद-या-काला ढांचे में देखता है।

"यह पूरी जगह असुरक्षित है!"
"पूरे नॉर्थ ईस्ट के लोग ही दोषी हैं!"

पर जब,असहज कर देने वाला,"कटु–सत्य" सामने आता है,तब Cognitive Dissonance
(मानसिक असंगति) की शुरुआत होती है...

"मैंने ग़लती की?",
"मेरी सोच अधूरी थी?"

"हो ही नहीं सकता.."

आपका "अहंकार"(EGO),
इस सत्य को स्वीकार नहीं करता।

तब आपके,तर्क बदल जाते हैं....
"हां,पर फिर भी उस क्षेत्र में बहुत घटनाएं होती हैं।"
 "मैं गलत नहीं था,मैं तो जागरूकता फैला रहा था।"
 "यह केस तो अलग है,पर बड़ा मुद्दा सही है।"

आप ऐसा क्यों करते हैं?
क्योंकि आपकी "Ego" हार मानने से डरती है,और सार्वजनिक रूप से,गलती मानना बहुत कठिन होता है,बहुत विरले ही लोग होते हैं,जो अपनी गलती स्वीकारते हैं,और जो अपनी गलती स्वीकारता है,हमें उनका सम्मान करना चाहिए।

पर यहां उनकी बात हो रही,जो अपनी गलती,किसी कीमत पर नहीं मानते,उनसे सवाल ये है,जब पहली बार खबर आते ही आप धम से कूदे,क्यों?तथ्यों का एनालिसिस क्यों नहीं किया?बिना एनालिस के इतना बड़ा बखेड़ा क्यों खड़ा कर दिया?और जब सच सामने आया,तब उतनी ही ऊर्जा से, तथ्य क्यों नहीं फैलाए?

और अगली बार क्या आप फिर वही करेंगे?
उत्तर है हां,आप करेंगे।

पर क्यों?
क्योंकि,मठाधीश जी जानते हैं,
कि भीड़ सत्य नहीं ढूंढ़ती,कथा ढूंढ़ती है...

सोशल मीडिया विचारशीलता नहीं,
प्रतिक्रिया को पुरस्कृत करता है...

डोपामिन चक्र बना रहता है,किसी घटना पर प्रतिक्रिया न देने से व्यक्ति को "FOMO" (Fear Of Missing Out) महसूस होता है,इसलिए बार–बार,
उसी चक्र में फंस जाता है। 

पहले प्रतिक्रिया..,
फिर तथ्य..,
फिर बचाव..,
फिर अगली घटना पर,फिर उसी खेल का,दोहराव...

ये चक्र,चलता ही रहता है..!

सोशल–मीडिया में,"लाइक","कमेंट","रिट्वीट","शेयर",ये सब सत्य से नहीं,भावनात्मक उन्माद से मिलते हैं,इसलिए मेरे सबसे अच्छे,अध्ययन से परिपूर्ण लेखों को,सबसे कम पाठक मिलते हैं,मैंने पिछले 5 वर्ष इसका गहनता से अध्ययन किया है,और इस सत्य को स्वीकार लिया है कि,अध्ययन हर कोई नहीं कर सकता,न ही किए हुए अध्ययन को,हर कोई पढ़ सकता है,पढ़ कर उसके मूल–तत्व को समझना तो दूर की बात है।

मेरे गुरु ने कहा था,"सत्य की साधना कठिन है,कथा का उपभोग सरल,फर्जी कथा का उपभोग और भी सरल।जो तथहीन,बिना अध्ययन के त्वरित न्याय में विश्वास रखता है,वो स्वतः ही,आत्म–मंथन का पहला पाठ,छोड़ चुका होता है।"

इसलिए,अगली बार किसी घटना पर,उबलने से पहले,स्वयं से पूछिए "मैं सत्य का साधक हूं या डोपामिन का दास?"

और ये ही कारण है कि मैं चाहे,किसी भी सनसनीखेज घटना का समाचार देखूं,त्वरित प्रतिक्रिया देने से बचता हूं,ऐसा नहीं कि मुझसे गलतियां नहीं हुई हैं,हुई हैं,आरंभ में,मैं भी गलत हुआ हूं,लेकिन मैंने अपनी गलतियों से सीख लेकर,उनका दोहराव नहीं किया,क्यों?क्योंकि मैं समझ गया हूं कि,हर घटना की तह में,अनेक परतें होती हैं।

अधूरी सूचना पर,बना "मत","सत्य" से अधिक,"स्वयं के अहंकार" को पुष्ट करता है,और अहंकार सर्वनाश का कारक सिद्ध होता है,फिर वो चाहे लंकापति रावण हो,कंस हो,या दुर्योधन,
कोई नहीं बचता।

गहन अध्ययन का अर्थ है,विषय को उसके ऐतिहासिक, सामाजिक,मनोवैज्ञानिक आयामों में देखना,तथ्यों को जांचना,स्रोतों की प्रामाणिकता परखना,और फिर विवेक से बोलना,यदि बोलना आवश्यक हो तभी,नहीं तो तथ्य सामने आने तक,मौन का चुनाव करना,और उस मौन में स्थितियों को अच्छे से ऑब्जर्व करना और उनका एनालिसिस मन ही मन करते रहना।

आज जिस समाज में हर उंगली सोशल–मीडिया के "Post" बटन पर दबती रहती है,वहां विरले ही कोई अपनी चेतना को रोककर,अध्ययन की धैर्य साधना करता है।परंतु बिना इस साधना के,हम सत्य के नहीं,
केवल एक तर्कहीन भीड़ के अनुयायी बने रहेंगे।

अगर इससे बचना है,तो हम सब स्वयं से पूछें:
"क्या मैं जिज्ञासु हूं या एक अतर्किक भीड़ का अंग?"
"क्या मैं अध्ययन कर सत्य का आलोक बढ़ा रहा हूं या अधूरी कथा का अंधकार फैला रहा हूं?"

यदि उत्तर देने में,थोड़ा भी संकोच हो,तो समझ लीजिए,"अध्ययन" ही इस युग की सबसे दुर्लभ तपस्या है,और इस तपस्या को करने वाला तपस्वी वही है,जो त्वरित न्याय के मोह से स्वयं को बचा सके और अध्ययन के कठिन पथ का "यात्री" बन सके।

बनेंगे मेरे साथ,इस पथ पर यात्री?


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