घर के सामने का पीपल
अब धीरे धीरे मर रहा है,
ऐसा होता हुआ देख कर
मेरा मन बहुत डर रहा है.
बचपन में यह पेड़ बहुत बड़ा था,
तन कर बहुत ऊँचा खड़ा था,
इसमे बड़े-बड़े कोटर थे,
वे गिलहरियों के घर थे,
कई चिड़ियों के घोसले थे,
जिनमे उनके बच्चे पले थे.
पक्षियों के कई झुण्ड आते थे,
वे दिन भर चहचहाते थे.
बच्चे इसकी छाँव में खेलते थे,
पहलवान इसके नीचे दण्ड पेलते थे,
कभी यहाँ चौपाल लगती थी,
बारातों की साज सजती थी.
अब सब कुछ सूना-सूना है,
इसे देख मेरा दुख दूना है,
अब यह ठूँठ में बदल गया है,
मेरा बचपन भी ढल गया है.
इसके मरते ही मेरे बचपन की
यादें भी गुजर जाएँगी,
मेरे यादों में बसी खुशियाँ
हमेशा के लिए मर जाएंगी.
साभार अनजान कवि
मदन चतुर्वेदी
अब धीरे धीरे मर रहा है,
ऐसा होता हुआ देख कर
मेरा मन बहुत डर रहा है.
बचपन में यह पेड़ बहुत बड़ा था,
तन कर बहुत ऊँचा खड़ा था,
इसमे बड़े-बड़े कोटर थे,
वे गिलहरियों के घर थे,
कई चिड़ियों के घोसले थे,
जिनमे उनके बच्चे पले थे.
पक्षियों के कई झुण्ड आते थे,
वे दिन भर चहचहाते थे.
बच्चे इसकी छाँव में खेलते थे,
पहलवान इसके नीचे दण्ड पेलते थे,
कभी यहाँ चौपाल लगती थी,
बारातों की साज सजती थी.
अब सब कुछ सूना-सूना है,
इसे देख मेरा दुख दूना है,
अब यह ठूँठ में बदल गया है,
मेरा बचपन भी ढल गया है.
इसके मरते ही मेरे बचपन की
यादें भी गुजर जाएँगी,
मेरे यादों में बसी खुशियाँ
हमेशा के लिए मर जाएंगी.
साभार अनजान कवि
मदन चतुर्वेदी